1917 से 1947 तक स्वाधीनता समर के हर कार्यक्रम में सक्रिय रहने सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फरवरी, 1879 को भाग्यनगर (हैदराबाद, आंध्र प्रदेश) में हुआ था। वे आठ भाई-बहिनों में सबसे बड़ी थीं। उनके पिता श्री अघोरनाथ चट्टोपाध्याय वहां के निजाम कॉलेज में रसायन वैज्ञानिक तथा माता श्रीमती वरदा सुन्दरी बंगला में कविता लिखती थीं। इसका प्रभाव सरोजिनी पर बालपन से ही पड़ा और वह भी कविता लिखने लगी।
उनके पिता चाहते थे कि वह गणित में प्रवीण बने; पर उनका मन कविता में लगता था। बुद्धिमान होने के कारण उन्होंने 12 वर्ष में ही कक्षा 12 की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। मद्रास विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में उन्हें जितने अंक मिले, उतने तब तक किसी ने नहीं पाये थे। 13 वर्ष की अवस्था में उन्होंने अंग्रेजी में 1,300 पंक्तियों की कविता ‘झील की रानी’ तथा एक नाटक लिखा। उनके पिता ने इन कविताओं को पुस्तक रूप में प्रकाशित कराया।
1895 में उच्च शिक्षा के लिए वे इंग्लैंड गयीं। वहां भी पढ़ाई और काव्य साधना साथ-साथ चलती रही। 1898 में सेना में कार्यरत चिकित्सक डा0 गोविंद राजुलु नायडू से उनका विवाह हुआ। वे अंग्रेजी, हिन्दी, बंगला, गुजराती एवं तमिल की प्रखर वक्ता थीं। 1902 में कोलकाता में उनका ओजस्वी भाषण सुनकर श्री गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें घर के एकान्त और काव्य जगत की कल्पनाओं से निकलकर सार्वजनिक जीवन में आने का सुझाव दिया।
1914 में इंग्लैंड में उनकी भेंट गांधी जी से हुई। वे उनके विचारों से प्रभावित होकर स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय हो गयीं। एक कुशल सेनापति की भांति उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय सत्याग्रह तथा संगठन दोनों क्षेत्रों में दिया। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी द्वारा संचालित आंदोलन में भी काम किया। भारत में भी उन्होंने कई आंदोलनों का नेतृत्व किया तथा जेल गयीं। गांव हो या नगर, वे हर जगह जाकर जनता को जाग्रत करती थीं।
उन्हें युवाओं तथा महिलाओं के बीच भाषण देना बहुत अच्छा लगता था। अब तक महिलाएं अपने घर और परिवार तक सीमित रहने के कारण स्वाधीनता आंदोलन से दूर ही रहती थीं; पर सरोजिनी नायडू के सक्रिय होने से वातावरण बदलने लगा। वे अपने मधुर कंठ से सभाओं में देशभक्ति से पूर्ण कविताएं पढ़ती थीं। इस कारण लोग उन्हें ‘भारत कोकिला’ कहने लगे। जलियांवाला बाग कांड के बाद उन्होंने ‘कैसर-ए-हिन्द’ की उपाधि वापस कर दी।
राजनीति में सक्रियता से उनकी पहचान राष्ट्रीय स्तर पर बन गयी। 1925 में कानपुर के कांग्रेस अधिवेशन में उन्हें अध्यक्ष बनाया गया। इस प्रकार वे कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष बनीं। साबरमती में एक स्वयंसेवक के नाते उन्होंने स्वाधीनता के प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर किये थे। अतः गांधी जी उन पर बहुत विश्वास करते थे।
1931 में लंदन में हुए दूसरे गोलमेज सम्मेलन में वे उन्हें भी प्रतिनिधि के नाते साथ ले गये थे। 1932 में जेल जाते समय आंदोलन को चलाते रहने का दायित्व उन्होंने सरोजिनी नायडू को ही दिया। ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के समय वे गांधी जी के साथ आगा खां महल में बन्दी रहीं।
स्वाधीनता प्राप्ति के बाद नेहरू जी के आग्रह पर वे उत्तर प्रदेश की पहली राज्यपाल बनीं। इसी पद पर रहते हुए दो मार्च, 1949 को उनका देहांत हुआ। उन्होंने नारियों को जीवन के हर क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए प्रेरित किया। इस नाते उनका योगदान भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण है।
(संदर्भ : विकीपीडिया एवं अंतरजाल पर उपलब्ध सामग्री)