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अधर्म, अनीति और और मर्यादाहीनता इस समय भारतीय राजनीति का एक अनिवार्य अंग बन गया लगता है । मर्यादाओं को तोड़ना और मर्यादाहीन होकर उच्छृंखल आचरण करना भी हमारे नेताओं या जनप्रतिनिधियों को असंवैधानिक और नैतिक नजर नहीं आ रहा है । इसका परिणाम क्या होगा ? संभवत: इस प्रश्न का उत्तर हमारे नेता नहीं जानते। पर यदि अपने शास्त्रों की दृष्टि से देखा जाए तो इस आचरण के अवश्यंभावी परिणाम के विषय में यह कहा जा सकता है कि जैसा राजा होता है वैसी प्रजा हो जाती है। कहने का अभिप्राय है कि आज के जनप्रतिनिधियों के उच्छृंखल असंवैधानिक और अनैतिक आचरण से जनता अराजकता के इन गुणों को स्वयं भी धारण करने लगती है। जिससे राष्ट्र की सारी व्यवस्था उलट-पुलट हो जाती है। जब छोटे लोग देश के शासक को अनीतिपरक निर्णय लेने के लिए उकसाने लगते हैं तो ‘महाभारत’ होना निश्चित हो जाता है।

कल देश की संसद में देश की सबसे बड़ी पार्टी के नेता राहुल गांधी ने जिस प्रकार लोकसभाध्यक्ष की उपस्थिति में 2 मिनट का मौन रखने के लिए अपने लोगों को उकसाया और यह दिखाने का प्रयास किया कि लोकसभा अध्यक्ष के रहते भी वह अनैतिक, असंवैधानिक और अमर्यादित आचरण करने को अपना अधिकार मानते हैं, उसने हमें बहुत कुछ सोचने के लिए विवश कर दिया है। माना कि कांग्रेस के नेता को विपक्ष की राजनीति करने के लिए अपना विरोध प्रकट करने का पूरा अधिकार है उन्हें प्रधानमंत्री श्री मोदी का विरोध करने का भी अधिकार है ,वह चाहे उनकी जितनी आलोचना कर सकते हैं, परंतु देश की संसद में बैठे लोकसभाध्यक्ष का और संसद की कार्यवाही का अपमान करना तो उनकी बुद्धि की कई परतों को खोलने के लिए पर्याप्त है। वह इस समय कम्युनिस्टों की कठपुतली बनकर ऐसी राजनीति पर उतर आए हैं जो देश के शासकों और लोकतांत्रिक प्रतिष्ठानों में बैठे प्रतिष्ठित व्यक्तियों को उत्तेजित करें और वह उत्तेजना में कोई ऐसा निर्णय लें जिससे लोकतांत्रिक अव्यवस्था फैल जाए। महाभारत के युद्ध से पहले दुर्योधन ने भी अपने पिता धृतराष्ट्र को उकसाने के ऐसे ही कई कार्य किए थे।
महाभारत के ‘सभा पर्व’ में आता है कि दुर्योधन ने अपने पिता धृतराष्ट्र से कहा – पिताजी! जिसके पास अपनी बुद्धि नहीं है, जिसने केवल बहुत से शास्त्रों का श्रवण भर किया है, वह शास्त्र के तात्पर्य को नहीं समझ सकता, ठीक उसी तरह, जैसे कलछी दाल के रस को नही जानती। एक नौका में बँधी हुई दूसरी नौका के समान आप विदुर की बुद्धि के आश्रित है। जानते हुए भी मुझे मोह में क्यों डालते हैं, स्वार्थ साधन के लिये क्या आप में तनिक भी सावधानी नहीं है, अथवा आप मुझ से द्वेष रखते हैं। आप जिनके शासक हैं, वे धार्तराष्ट्र नहीं के बराबर हैं (क्योंकि आप उन्हें स्वेच्छा से उन्नति के पथ पर बढ़ने नहीं देते)। आप सदा अपने वर्तमान कर्तव्य को भविष्य पर ही टालते रहते हैं। जिस दल का अगुआ दूसरे की बुद्धि पर चलता है, वह अपने मार्ग में सदा मोहित होता रहता है। फिर उसके पीछे चलने वाले लोग अपने मार्ग का अनुसरण कैसे कर सकते हैं? राजन्! आपकी बुद्धि परिपक है, आप वृद्ध पुरुषों की सेवा करते रहते हैं, आपने अपनी इन्द्रियों पर विजय पा ली है, तो भी जब हम लोग अपने कार्यों में तत्पर होते है, उस समय आप हमें बार-बार मोह में ही डाल देते हैं। बृहस्पति ने राजव्यवहार को लोकव्यवहार से भिन्न बतायाहै, अत: राजा को सावधान होकर सदा अपने प्रयोजन का ही चिन्तन करना चाहिये। महाराज! क्षत्रिय की वृत्ति विजय में ही लगी रहती है, वह चाहे धर्म ही या अधर्म। अपनी वृत्ति के विषय में क्या परीक्षा करनी है? भरत कुलभूषण! शत्रु की जगमगाती हुई राजलक्ष्मी को अपने अधिकार में करने की इच्छावाला भूपाल सम्पूर्ण दिशाओं का उसी प्रकार संचालन करे, जैसे सारथि चाबुक से घोड़ों को हाँक कर अपनी रुचि के अनुसार चलाता है। गुप्त या प्रकट, जो उपाय शत्रु को संकट में डाल दे, वहीं शस्त्रज्ञ पुरुषों का शस्त्र है। केवल काटने वाला शस्त्र ही शस्त्र नहीं है। राजन्! अमुक शत्रु है और अमुक मित्र, इसका कोई लेखा नहीं है और न शत्रु मित्र सूचक कोई अक्षर ही है। जो जिसको संताप देता है, वही उसका शत्रु कहा जाता है। असंतोष ही लक्ष्मी की प्राप्ति का मूल कारण है, अत: मैं असंतोष चाहता हूँ। राजन् ! जो अपनी उन्नति के लिये प्रयत्न करता है, उसका वह प्रयत्न ही सर्वाेत्तम नीति है। ऐश्वर्य अथवा धन में ममता नही करनी चाहिये, क्योंकि पहले की उपार्जित धन को दूसरे लोग बलात्कार से छीन लेते हैं। यही राजधर्म माना गया है। इन्द्र ने नमुचि से कभी बैर न करने की प्रतिज्ञा करके उस पर विश्वास जमाया और मौका देखकर उसका सिर काट लिया। तात! शत्रु के प्रति इसी प्रकार का व्यवहार सदा से होता चला आया है। यह इन्द्र को भी मान्य है। जैसे सर्प बिल में रहने वाले चूहों आदि को निगल जाता है, उसीप्रकार यह भूमि विरोध न करने वाले राजा तथा परदेश में न विचरने वाले ब्राह्मण (संन्यासी) को ग्रस लेती है। नरेश्वर ! मनुष्य का जन्म से कोई शत्रु नहीं होता, जिसके साथ एक सी जीविका होती है, अर्थात जो लोग एक ही वृत्ति से जीवन निर्वाह करते हैं, वे ही (ईर्ष्या के कारण) आपस में एक दूसरे के शत्रु होते हैं, दूसरे नहीं।”
दिखने में तो यह सारे शब्द बहुत अच्छे लगते हैं, परंतु इनमें इतनी गहरी अनीति समाई हुई है कि जब यह फलीभूत हुई तो महाभारत का विनाशकारी युद्ध संसार को देखना पड़ा। राहुल गांधी की भाषा भी आज दिखने में अच्छी लग सकती है या उसे ऐसा कहा जा सकता है कि वह विपक्ष की रचनात्मक राजनीति कर रहे हैं ,परंतु सच यह है कि उनकी इस राजनीति में महाविनाशकारी अराजकता अब दिखाई देने लगी है।
राहुल गांधी धर्म विहीन अनैतिक राजनीति की संतान हैं। उसी का परिणाम है कि वह संसद की दीवारों पर लिखे उन श्लोकों की ओर संभवत: आज तक नहीं देख पाए हों जिनमें धर्म और नीति के संबंध को स्पष्ट किया गया है। उन्हें अज्ञात होना चाहिए कि धर्म को राजनीति ने भी स्वीकार किया है तभी तो संसद भवन की लिफ्ट संख्या 1 के निकटवर्ती गुम्बद पर महाभारत का यह श्लोक अंकित है:-
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा,
वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
धर्म स नो यत्र न सत्यमस्ति,
सत्यं न तद्यच्छलमभ्युपैति।(महाभारत 5/35/58)

इस श्लोक का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-

“वह सभा नहीं है जिसमें वृद्ध न हों,
वे वृद्ध नहीं है जो धर्मानुसार न बोलें,
जहां सत्य न हो वह धर्म नहीं है,
जिसमें छल हो वह सत्य नहीं है।”

यदि राहुल गांधी इस बात पर विचार करते और संविधान निर्माताओं की उस भावना का सम्मान करते जिसके अंतर्गत उन्होंने संसद की मर्यादा को बनाए रखने के लिए लोकसभाध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति का आसन स्थापित किया था तो वह सभा, सभापति, लोकसभाध्यक्ष और बड़े बुजुर्गों का अर्थात संसदीय पदों का सम्मान करना सीखते। आज कई लोग ऐसे हैं जो राहुल गांधी के इस असंसदीय और मर्यादाहीन आचरण पर तालियां बजा रहे हैं। उन्हें नहीं पता कि मर्यादाओं के टूटने से जब अराजकता सिर पर चढ़कर बोलती है तो सारे राष्ट्र को उसके परिणाम भुगतने पड़ते हैं।
राहुल गांधी को यह समझ लेना चाहिए कि इस देश की जनता भली प्रकार यह जानती है कि देश की वर्तमान दुर्दशा में राहुल गांधी की पार्टी और खासतौर से उनके परिवार का विशेष योगदान रहा है। जिसे वह शोर-शराबे में गुम करने का प्रयास कर रहे हैं। देश का शासन चलाने के लिए आत्मज्ञ और ब्रह्मज्ञ शासकों की आवश्यकता होती है ।1947 में मिली आजादी के बाद हमें ऐसे ही शासकों का निर्माण करना था, परंतु यह राहुल गांधी का ही परिवार था जिसने इस देश के शासकों में आत्मज्ञता और ब्रह्मज्ञता का गुण विकसित नहीं होने दिया। नेहरू एंड कंपनी हमें हाँककर उस ओर ले गई जिस ओर हमें जाना ही नहीं चाहिए था। आज हम दिशाहीन, मतिहीन और गतिहीन होकर दूर जंगल में खड़े हैं। उसी जंगल में जब कुछ ‘गधे’ अपना राग अलापते हैं तो उनके अलोकतांत्रिक सुरों को देखकर बहुत दर्द होता है।
शतपथ ब्राह्मण काण्ड 10 अध्याय 6 ब्राह्मण 1 कण्डिका 1-11 में अश्वपति तथा अरुण-आपवेशि आदि 6 विद्वानों में वैश्वानर के स्वरूप विषयक जो संवाद हुआ, उसी संवाद का वर्णन, कतिपय परिवर्तनों सहित, छान्दोग्य उपनिषद, अध्याय 5, खण्ड 11 से 18 तक में भी हुआ है। प्राचीनशाल औपमन्यव, सत्ययज्ञ पौलुषि, इन्द्र-द्युम्न भाल्लवेय, जन शाकराक्ष्य, बुडिल आश्वतराश्वि तथा उद्दालक आरुणि, ये 6 विद्वान, ‘‘आत्मा और ब्रह्म का क्या स्वरुप है” इसे जानने के लिये केकय के राजा अश्वपति के पास आए। प्रातःकाल जाग कर अश्वपति ने उनके प्रति कहा किः-
न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपो।
नानाहिताग्निर्नाविद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुतः।।      (खण्ड 11 कण्डिका 5)
तथा साथ यह भी कहा कि हे भाग्यशालियों ! मैं यज्ञ करूंगा, जितना-जितना धन मैं प्रत्येक ऋत्विज् को दूंगा उतना-उतना आप सबको भी दूंगा, तब तक आप प्रतीक्षा कीजिये और यहां निवास कीजिये।
उपर्युक्त श्लोक का अर्थ निम्नलिखित हैः-
“न मेरे जनपद अर्थात् राज्य में कोई चोर है, न कंजूस स्वामी और वैश्य है,  न कोई शराब पीने वाला है न कोई यज्ञकर्मों से रहित है, न कोई अविद्वान् है। न कोई मर्यादा का उल्लंघन करके स्वेच्छाचारी है, स्वेच्छाचारिणी तो हो ही कैसे सकती है।”
इस श्लोक में कही गई बातों का अभिप्राय यह है कि आत्मज्ञ और ब्रह्मज्ञ शासक ही, प्रजाजनों को उत्तम शिक्षा देकर, उन्हें सामाजिक तथा धार्मिक भावनाओं से सम्पन्न कर सदाचारी बना सकते हैं।” हमारा अनुमान है कि आज पूरे विश्व में एक भी आत्मज्ञ एवं ब्रह्मज्ञ शासक नहीं है। यह उन्नति नहीं अपितु अवनति का प्रतीक है।
निश्चय ही इन प्रसंगों से राहुल गांधी जैसे नेताओं को बहुत कुछ सीखने को मिल सकता है। आज समय आ गया है जब लोकसभा में बोलने वाले लोगों को भी प्रशिक्षण देना अनिवार्य कर दिया जाए।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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