#डॉ_विवेक_आर्य
स्वामी दयानन्द ने स्वमन्तव्य-अमन्तव्य प्रकाश में ‘आर्यावर्त्त’ की परिभाषा इस प्रकार से दी है।
‘आर्यावर्त्त’ देश इस भूमि का नाम इसलिए है कि जिस में आदि सृष्टि से पश्चात आर्य लोग निवास करते हैं परन्तु इस उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विंध्याचल, पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी है। इस चारों के बीच में जितना देश है उसी को ‘आर्यावर्त्त’ कहते और इस में सदा रहते हैं उन को भी आर्य कहते हैं।
सत्यार्थ प्रकाश अष्ठम समुल्लास में भी स्वामी दयानन्द मनुस्मृति 2/22 का सन्दर्भ देते हुए लिखते है कि-
आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।तयोरेवान्तरं गिर्योरार्य्यावर्त्तं विदुर्बुधाः।।१।।
सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम् ।तं देवनिर्मितं देशमार्यावर्त्तं प्रचक्षते।।२।। मनु०।
उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र।।१।। तथा सरस्वती पश्चिम में अटक नदी, पूर्व में दृषद्वती जो नेपाल के पूर्व भाग पहाड़ से निकल के बंगाल के आसाम के पूर्व और ब्रह्मा के पश्चिम ओर होकर दक्षिण के समुद्र में मिली है जिस को ब्रह्मपुत्र कहते हैं और जो उत्तर के पहाड़ों से निकल के दक्षिण के समुद्र की खाड़ी में अटक मिली है। हिमालय की मध्यरेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर और रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं उन सब को आर्यावर्त्त इसलिये कहते हैं कि यह आर्यावर्त्त देव अर्थात् विद्वानों ने बसाया और आर्यजनों के निवास करने से आर्यावर्त्त कहाया है।
यहाँ पर स्वामी जी ने रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल शब्दों का प्रयोग किया है। वर्तमान में विंध्याचल पर्वतमाला मध्य और पश्चिमी भारत में मिलने वाली पर्वतमाला को कहते हैं। ऐसे में यह भ्रान्ति हो जाती है कि क्या स्वामी दयानन्द केवल उत्तर और मध्य भारत को आर्यावर्त्त कहते हैं। दक्षिण को आर्यावर्त्त का भाग नहीं मानते। ऐसी भ्रान्ति प्रसिद्द लेखक रामधारी सिंह दिनकर को भी हुई थी। उन्होंने “संस्कृति के चार अध्याय” पुस्तक में आर्यसमाज विषय पर लिखते हुए इस विषय पर लिखा कि
“स्वामी दयानन्द ने तो संस्कृत की सभी सामग्रियों को छोड़कर केवल वेदों को पकड़ा और उनके सभी अनुयायी भी वेदों की दुहाई देने लगे। परिणाम इसका यह हुआ कि वेद और आर्य, भारत में ये दोनों सर्व प्रमुख हो उठे और इतिहासकारों में भी यह धारणा चल पड़ी कि भारत की सारी संस्कृति और सभ्यता वेद वालों अर्थात आर्यों की रचना है।”
“हिन्दू केवल उत्तर भारत में ही नहीं बस्ते और न यही कहने का कोई आधार था कि हिंदुत्व की रचना में दक्षिण भारत का कोई योगद्दान नहीं है। फिर भी स्वामीजी ने आर्यावर्त की जो सीमा बाँधी है, वह विंध्याचल पर समाप्त हो जाती है। आर्य-आर्य कहने, वेद-वेद चिल्लाने तथा द्रविड़ भाषाओं में सन्निहित हिंदुत्व के उपकरणों से अनभिज्ञ रहने का ही यह परिणाम है कि आज दक्षिण में आर्य-विरोधी आंदोलन उठ खड़ा हुआ है। ”
“इस सत्य पर यदि उत्तर के हिन्दू ध्यान देते तो दक्षिण के भाइयों को वह कदम उठाना नहीं पड़ता, जिसे वे आज उपेक्षा और क्षोभ से विचलित होकर उठा रहे है।”
दिनकर जी विषय को न सही से समझा न स्वामी जी की परिभाषा पर चिंतन किया। उल्टा स्वामी जी पर आक्षेप कर दिया जो उन्हें शोभा नहीं देता। असल में वो साहित्यकार थे। इतिहास तत्त्वेत्ता नहीं।
स्वामी जी की परिभाषा में रामेश्वर पर्यन्त विंध्याचल लिखा है जबकि दिनकर जी केवल मध्य भारत तक ही विंध्याचल समझ रहे है। जबकि वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा कांड में कई श्लोकों में विंध्य पर्वत का वर्णन मिलता है।
१. सुग्रीव बाली के भय से दक्षिण दिशा को जाते हुए कहते है- उस दिशा को छोड़कर मैं फिर दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थित हुआ जहाँ विंध्य पर्वत पर वृक्ष और चन्दन के वृक्ष शोभा बढ़ाते हैं। किष्किंधा कांड 46/1
२. सीता को खोजते हुए हनुमान जी इसी कांड में 48/2 एवं 52/31-32 श्लोक में विंध्य पर्वत, प्रस्रवण गिरी और सागर तीनों पास में होने का वर्णन करते हैं।
३. इसी कांड में 53/3 श्लोक में लिखा है कि सीता को न पाकर हनुमान आदि विंध्य पर्वत की तलहटी में बैठकर चिंता करने लगे।
४. इसी कांड में सम्पाती विंध्य की कन्दराओं से निकल कर हनुमान से वार्तालाप करता हैं। यह वर्णन श्लोक 56/3 में मिलता हैं।
ऐसे अनेक प्रमाण यह सिद्ध करते है कि रामायण काल में विंध्य पर्वत दक्षिण भारत में सागर के समीप पर्वत श्रंखला का नाम था। मेरे विचार से आज कल भारत के पश्चिमी तट पर स्थित पर्वत श्रृंखला को पश्चिमी घाट या सह्याद्रि कहते हैं। उसी का नाम विंध्य था। यह नामकरण कब और कैसे परिवर्तित हुआ। इस पर अनुसन्धान की आवश्यकता हैं। मगर रामायण की आत्मसाक्षी से यह सिद्ध होता है कि विंध्य पर्वतमाला दक्षिण भारत में ही थी। दिनकर जी की बात गलत सिद्ध होती हैं। उत्तर और दक्षिण भारत के मध्य विवाद का मुख्य कारण विदेशी लेखकों द्वारा आर्यों को विदेशी और दक्षिण भारतीय को मूलनिवासी बताने की कल्पना करना हैं। ऐसी भ्रांतियों का समूल निराकारण हो ताकि भारत देश के वासी एकता और अखंडता का वरण करें। स्वामी दयानन्द का उद्देश्य केवल समस्त मानव समाज का उपकार करना था।