भारत को अगर जानना है तो यूरोपियन चश्मा उतारना ही होगा
जवाहर लाल कौल
भारत को कैसे समझें, यह प्रश्न प्रायः पूछा जाता है। लेकिन इस विषय पर अनंत बहस चलने के बावजूद कोई सार्थक उत्तर नहीं मिल पाता। वास्तव में इस प्रश्न की आवश्यकता ही नहीं होती यदि हम यह जानने का प्रयास करते कि हम अब तक किन मापदण्डों से स्वयं को और अपनी संस्कृति को मापते-तौलते आ रहे हैं। यह पता चलेगा तो हमें यह भी ज्ञात होगा कि हमें क्या नहीं करना चाहिए, कि जिन पैमानों से इसे माप रहे हैं, वे इतने छोटे हैं कि जितना उनमें समाता है, उससे कई गुना बाहर छलक जाता है। हमारा इतिहास लिखने वालों, हमें हमारे शास्त्रा समझाने वालों और हमें आधुनिकता का पाठ पढ़ाने वालों की शर्तों से मुक्त हो जाएं तो अपने आप को समझना इतना ही आसान होगा, जितना आईने में अपना चेहरा देखना। हम अज्ञान और अविद्या के मारे हैं। जो ज्ञान हमने पिछले दो सौ वर्षों से प्राप्त किया, जो विद्या हमें सिखाई गई, वही हमारी भ्रांति का कारण रही है। उसकी पकड़ इतनी शक्तिशाली रही है कि हम चाह कर भी उससे मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। क्योंकि वह ऐसी भ्रामक माया है जिसके मोह को तोड़ना असंभव तो नहीं परंतु अत्यंत कठिन अवश्य है।
पहला प्रश्न यह है कि हम कोई राष्ट्र हैं कि नहीं? हम एक राष्ट्र हैं कि बहुत सारे राष्ट्रों का समूह हैं? अगर बहुत से राष्ट्रों का समूह हैं तो संस्कृतियां भी अनेक ही होंगी। बहुसांस्कृतिक देश है भारत। इस व्याख्या से तो उन लोगों को दोष नहीं दे सकते जो कहते हैं कि भारत बहुराष्ट्रीय देश है और यहां की राष्ट्रीयताओं के बीच कोई समता नहीं हो सकती है। और आवश्यकता पड़े तो इस भारत खण्ड को कई देशों में बंाटा जा सकता है। वे राष्ट्रभक्ति को व्यर्थ का बकवास मानते हैं। भाषा के आधार पर राष्ट्र, नस्ल के आधार पर राष्ट्र, मत के आधार पर राष्ट्र, क्षेत्रा के आधार पर राष्ट्र हो सकते हैं। इसकी परिणति को समझते ही हम घबरा जाते हैं, इससे तो भारत साठ-सत्तर राष्ट्रों में बंट सकता है। भारत को टुकड़े करने का नारा देने वालों के दिवास्वप्न को क्या कोसना, उन्हें तो अपना टुकड़ा पाने की आशा जग जाती है। आशंकित तो होते हैं हम लेकिन लीक से हट कर सोचने का प्रयास नहीं करते।
नेशन को हमने राष्ट्र मान लिया तो यह होना ही था। कनाडा में वहां के मूल निवासियों को समुद्र में रास्ता भटक गए कोलम्बस ने रेड इंडियन कहा। वह बेचारा भारत यानी इंडिया आना चाहता था, महासागर में खो गया और लहरों ने जहां पहुंचा दिया उसको ही भारत समझ बैठा। वह पहंुचा था अमेरिका। पिछली कई सदियों में गोरी जाति ने वहां के मूल निवासियों को मार मार कर लगभग नगण्य ही बना डाला। अब लोकतंत्रा के पहरेदार बने पश्चिम को अपराधबोध होने लगा तो उन्होंने रेड इंडियन का नाम बदल डाला और फर्स्ट नेशन्स यानी प्रथम राष्ट्र कर दिया। अब वे नेशन हो गए है। कई दर्जन आदिवासी जातियां अलग अलग नेशन हो गईं। पता नहीं कि सदियों से घाव खाते खाते उन मूलवासियों को इससे मरहम पट्टी का एहसास हुआ कि जले पर नमक छिड़के जाने जैसी पीड़ा हुई, लेकिन इतना तो पता चला ही कि पश्चिम की नजर में नेशन कितना बड़ा होता है। जब यूरोप ने नेशन स्टेट यानी राष्ट्र-राज्य की धारणा पेश की, तब भी नेशन वह नहीं थे जो हम मानते थे। हमारे यहां नेशन स्टेट तो थे ही नहीं। हम एक सभ्यता में पले लोगों को, उसमें रहने वाली अनेक जातियो के और अनेक बोलियंा बोलने वालों को ही राष्ट्र मानते रहे हैं। यह सच है कि भारत तो पहले कभी वैसा राष्ट्र था ही नहीं जैसा अंगेजो के आने के बाद बना। उन्होंने नेशन का अपना माडल हम पर थोप दिया और हम एक दूसरे को परराष्ट्रीय मानने लग गए।
हम राष्ट्र को संस्कृति से जोड़ कर देखते हैं तो फिर संस्कृति की व्याख्या भी नेशन के अनुरूप ही करनी होगी। जो देश अमेरिका या कनाडा की तरह बहुराष्ट्रीय हैं उनकी एक ही संस्कृति कैसे हो सकती है? वे बहुसांस्कृतिक देश हैं। स्पष्ट है कि वहां संस्कृति कुछ हजार लोगों के वर्गों या कुछ सैंकड़ा वर्ग मील के दायरे में ही नापी जाती होगी। धर्म हमारी संस्कृति का अंग है। लेकिन हमने यहां भी धर्म के अर्थ का ही नाश कर दिया है। हमने उसे रिलीजियन मान लिया। उन के पास धर्म के लिए अंग्रेजी में कोई सही शब्द नहीं था तो उन्होने रिलीजियन से काम चलाया और हमने उसे ही लपक लिया। यह समझने का कोई प्रयत्न नहीं किया कि रिलीजियन एकांगी धारणा है जबकि धर्म बहुआयामी मार्ग है। हमारे एक ही परिवार में अलग अलग सदस्यों के अलग अलग समय और परिस्थिति में अलग-अलग धर्म हो सकते हैं। पुत्राधर्म, पितृधर्म, पत्नीधर्म, पतिधर्म, समाज के प्रति धर्म या देश के प्रति या फिर पूरी मानव जाति के प्रति धर्म अलग अलग हो सकते हैं। राजधर्म और युगधर्म अलग अलग हो सकते हैं। हमारी धारणा में धर्म मनुष्य का स्वभाव है, जो उसे भिन्न भिन्न परिसिथतियों में भिन्न भिन्न प्रकार से व्यवहार करने को प्रेरित करता है। हम तो मनुष्यों का ही धर्म नहीं मानते, वस्तुओं, युगों और भौतिक पदार्थों का भी धर्म मानते हैं। इसमें रिलीजियन समा सकता है लेकिन रिलीजियन में धर्म कैसे समा सकता है? धर्म किसी भी सभ्य समाज को अपनी मर्यादा में बनाए रखने का कर्तव्यबोध है।
पश्चिम के दार्शनिक दावा करते हैं कि हमारे यहां कोई दर्शन है ही नहीं, क्योंकि जहां भी हम विचार और विवेचना की बात करते हैं उसे धर्म से जोड़ देते हैं, केवल मनुष्य के लिए कोई विवेचन है ही नहीं। यह गलत आक्षेप नहीं है, लेकिन गल्तफहमी में किया गया आक्षेप है। जब वे हमारे धर्म को रिलीजियन यानी मत या पूजा-पद्धति मान लेते हैं तो उसी से जुड़ा कोई विचार या दार्शनिक विमर्श एकांगी ही होगा, सार्वजनिक नहीं हो सकता है। लेकिन जब यह समझने की कोशिश करेंगे कि धर्म तो सर्वव्यापी धारणा है जिसमें पूरा मानव समाज तो क्या, सम्पूर्ण जीव-जंतु जगत भी आ सकता हैं तो उसकी परिधि पश्चिम की फिलासफी से बहुत व्यापक हो जाती है। इसमें ईश्वर या मानवेतर विश्व की चर्चा इसलिए होना स्वाभाविक है कि इस सृष्टि के कर्ता की बहस मानव समाज में अनंत काल से चली आ रही है और आज तक चल रही है। हमारा विमर्श उस काल से आरम्भ होता है जिसमें झांकने का साहस पश्चिम नहीं कर सकता है, जिसे वहां के दार्शनिक अनछुआ रहने देते हैं।
उन्होंने अपनी सीमित दृष्टि और अपने सीमित उद्देश्यों के कारण हमारा इतिहास लिखा। भारतीय इतिहास लेखन का उद्देश्य बताते हुए विलियम जोन्स ने ब्रिटिश सरकार को बताया था कि भारत के इतिहास को जानने समझने से ही उन पर शासन करने कीे समझ पैदा होगी। इस बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए अंग्रेज नौकरशाह मैकाले ने कहा था कि केवल ज्ञान के लिए भारतीय ग्रंथो पर शोध करने और उनका अनुवाद करने में कुछ भी नहीं रखा है, उनमें तो इतना भी ज्ञान नहीं जितना लंदन मे पढ़ाई जाने वाली स्कूली पुस्तकों में भरा पड़ा है। हां, अगर भारतीय इतिहास के अनुसंधान से हमें उनकी कमजोरियां पता चले और उन्हीं का इतिहास उन के विरुद्ध प्रयोग में लाया जा सके तो लाभ होगा।
ऐसे उद्देश्यों से लिखा गया इतिहास हमारा तो नहीं हो सकता है। उस इतिहास के लेखन का एक ही मापदण्ड है कि तथ्य वही है जिसकी पुष्टि किसी यूरोपीय लेखक ने की हो, भले ही वह नौकरशाह हो, सैनिक हो या यूं ही घूमने आया कोई सैलानी। किसी गैरभारतीय, गैरहिंदू लेखक की पुष्टि ही किसी ऐतिहासिक घटना को तथ्य में बदल सकती है। यूरोपवासियों के भारत के बारे जानकारी पाने से पहले तो भारत का कोई इतिहास हो ही नहीं सकता। बाइबिल की सृष्टि सम्बंधी धारणाओं के विपरीत किसी भारतीय मान्यता को सिरे से ही खारिज कर देना चाहिए। सिकंदर के आने के पहले भारत के इतिहास को दंतकथाएं मान लिया जाए। अगर किसी विवशता के कारण किसी बड़ी घटना को मानना ही पड़े तो उसकी तिथियां मनमाने ढंग से तय कर ली जाएं। बुद्ध और महावीर की जन्म तिथियां और ंिसंधु घाटी सभ्यता के काल निधारण में यही किया गया।
हम परकीय मान्यताओं को सच मानने की भ्रांति में फंस गए हैं, एक मोह में पड़ गए हैं जिससे निकलना आवश्यक है। इन सब बंधनों में रह कर हम भारत और उसकी सभ्यता और संस्कृति को कैसे समझ सकते हैं? कैसे उसकी व्याख्या कर सकते हैं? इसके लिए पहले उन धारणाओं को उतार फेंकना होगा जिनको हमारे ऊपर थोप दिया गया है। हम पहले अपने आप को समझने का प्रयास करें तो अपनी सभ्यता संस्कृति को समझना सहज होगा।