भारत की वास्तुकला संसार के लिए आज भी कौतूहल का विषय है

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वास्तु ! भारत की अद्भुत देन
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देश ही नहीं, अब दुनिया में भी एक आवश्यकता हो गया है भारतीय वास्तु शास्त्र। मिस्र, मारिशस, कम्बोडिया आदि के साथ रूस में भारतीय वास्तु शास्त्र के पठन पाठन और अभ्यास की खास चेतना जागी है।

फेंगशुई के चक्र को निराधार समझ कर भारतीय ज्ञान विरासत पर वैश्विक समुदाय के विश्वास का यह एक बड़ा उदाहरण है। चीन इस मोर्चे पर अविश्वनीय… हो भी क्यों नहीं? भारत के पास इस तकनीकी और जनोपयोगी विषय की लगभग 100 किताबें हैं…

यह मेरे लिए प्रसन्नता का विषय है कि कल तक जो शिल्प और स्थापत्य के ग्रंथ केवल शिल्पियों के व्यवहार तक सीमित और केन्द्रित थे, उन पर आज अनेक संस्थानों से लेकर कई विश्व विद्यालयों तक ज्ञान सत्र आयोजित होने लगे हैं, सेमिनार, राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियां, वेबीनार आदि होने लगे हैं। अनेक विद्वानों की भागीदारी होने लगी हैं। शिल्प के ये विषय पाठ्यक्रम के विषय होकर रोजगार और व्यवहार के विषय हुए हैं।
शिल्‍प और स्‍थापत्‍य के प्रवर्तक के रूप में भगवान् विश्‍वकर्मा का संदर्भ बहुत पुराने समय से भारतीय उपमहाद्वीप में ज्ञेय और प्रेय-ध्‍येय रहा है। विश्‍वकर्मा को ग्रंथकर्ता मानकर अनेकानेक शिल्‍पकारों ने समय-समय पर अनेक ग्रंथों को लिखा और स्‍वयं कोई श्रेय नहीं लिया। सारा ही श्रेय सृष्टि के सौंदर्य और उपयोगी स्‍वरूप के र‍चयिता विश्‍वकर्मा को दिया।

उत्तरबौद्धकाल से ही शिल्‍पकारों के लिए वर्धकी या वढ़्ढी संज्ञा का प्रयोग होता आया है। ‘मिलिन्‍दपन्‍हो’ में वर्णित शिल्‍पों में वढ़ढकी के योगदान और कामकाज की सुंदर चर्चा आई है जो नक्‍शा बनाकर नगर नियोजन का कार्य करते थे। यह बहुत प्रामाणिक संदर्भ है, इसी के आसपास सौंदरानंद, हरिवंश आदि में भी अष्‍टाष्‍टपद यानी चौंसठपद वास्‍तु पूर्वक कपिलवस्‍तु और द्वारका के न्‍यास का संदर्भ आया है। हरिवंश में वास्‍तु के देवता के रूप में विश्‍वकर्मा का स्‍मरण किया गया है…।

प्रभास के देववर्धकी विश्‍वकर्मा यानी सोमनाथ के शिल्पिकारों का संदर्भ मत्‍स्‍य, विष्‍ण्‍ाु आदि पुराणों में आया है जिनके महत्‍वपूर्ण योगदान के लिए उनकी परंपरा का स्‍मरण किया गया किंतु शिल्‍पग्रंथों में विश्‍वकर्मा को कभी शिव तो कभी विधाता का अंशीभूत कहा गया है। कहीं-कहीं समस्‍त सृष्टिरचना को ही विश्‍वकर्मीय कहा गया।

विश्‍वकर्मावतार, विश्‍वकर्मशास्‍त्र, विश्‍वकर्मसंहिता, विश्‍वकर्माप्रकाश, विश्‍वकर्मवास्‍तुशास्‍त्र, विश्‍वकर्म शिल्‍पशास्‍त्रम्, विश्‍वकर्मीयम् … आदि कई ग्रंथ है जिनमें विश्‍वकर्मीय परंपरा के शि‍ल्‍पों और शिल्पियों के लिए आवश्‍यक सूत्रों का गणितीय रूप में सम्‍यक परिपाक हुआ है। इनमें कुछ का प्रकाशन हुआ है। समरांगण सूत्रधार, अपराजितपृच्‍छा आदि ग्रंथों के प्रवक्‍ता विश्‍वकर्मा ही हैं। ये ग्रंथ भारतीय आवश्‍यकता के अनुसार ही रचे गए हैं।

इन ग्रंथों का परिमाण और विस्‍तार इतना अधिक है कि यदि उनके पठन-पाठन की परंपरा शुरू की जाए तो बरस हो जाए। अनेक पाठ्यक्रम लागू किए जा सकते हैं। इसके बाद हमें पाश्‍चात्‍य पाठ्यक्रम के पढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़े। यह ज्ञातव्‍य है कि यदि यह सामान्‍य विषय होता तो भारत के पास सैकड़ों की संख्‍या में शिल्‍प ग्रंथ नहीं होते। तंत्रों, यामलों व आगमों में सर्वाधिक विषय ही स्‍थापत्‍य शास्‍त्र के रूप में मिलता है। इस तरह से लाखों श्‍लोक मिलते हैं। मगर, उनको पढ़ा कितना गया। भवन की बढ़ती आवश्‍यकता के चलते कुकुरमुत्ते की तरह वास्‍तु के नाम पर किताबें बाजार में उतार दी गईं मगर मूल ग्रंथों की ओर ध्‍यान ही नहीं गया…। इस पर लगभग सौ ग्रंथों का संपादन और अनुवाद मैंने किया है और कर रहा हूं।

भारत में गृह निर्माण के बारे में जितना नहीं
लिखा, उससे कहीं ज्यादा देवालयों के निर्माण के
विधान और नियमों के बारे में लिखा गया… वराहमिहिर (587 ई.) ने अपने स्तर पर देवालयों के भेदों का नामकरण किया और फिर… हजारों रूप, स्वरूप, भेद, उपभेद, शैली, उपशैली में मन्दिर बने… इस कला का बहुत तेजी से विस्तार क्यों और कैसे हुआ?

अनेक ग्रंथ लिखे गए… अखंड भारत ही नहीं, तिब्बत, चीन, बर्मा, सिलोन, थाईलैण्ड, कंबोडिया, बाली… तक ग्रंथ और उनके प्रयोगकर्ता सूत्रधार पहुंचे और धरातल से ऊपर अथवा धरातल से नीचे भी देवालय बनाए…
मंदिरों के निर्माण का अपना वैशिष्‍ट्य रहा है। युगानुसार भी और क्षेत्रानुसार भी उनका निर्माण होता रहा है। वे तल या अधिष्‍ठान से लेकर शिखर या स्‍तूपी तक अपना आकार मानव के शरीर के रचना की तरह ही अपना स्‍वरूप रखते हैं। उनकी सज्‍जा या अलंकरण का अपना खास विधान रहा है और इसके लिए शिल्पियों ने अपने कौशल को दिखाने में प्रतिस्‍पर्द्धा सी की है।

प्रासादों के स्‍वरूप के निर्णय के लिए हमें हमारे शिल्‍प ग्रंथों को जरूर देखना चाहिए जिनमें उनके रचनाकाल से पूर्व की परंपराओं काे लिखा गया है। मयमतं हो या मानसार या फिर शैवागम अथवा वैष्‍णवागम हों, उनमें प्रासादों की रचना के लिए पर्याप्‍त विवरण मिलता है। दक्षिण के नारायण नंबूदिरीपात ने ‘देवालय चंद्रिका’ में प्रासादों के शिल्‍प के लिए निर्देश किए हैं तो सूत्रधार मंडन ने ‘प्रासादमण्‍डनम्’ में प्रासादों के संबंध में समग्र योजना और कार्यविधि को लिखा है। संयोग से इन दोनों ही ग्रंथों के संपादन का मुझे सौभाग्‍य मिला है।

जिन दिनों शिल्‍परत्‍नम पर काम कर था, तब इस बारे।में खूब सोचा। इस ग्रंथ की रचना 16वीं सदी की हैं। इसमें कहा गया है 1. नागर, 2. द्राविड और 3. वेसर शैलियों के मंदिर भारत में बनते आए हैं, मगर सबका अपना अपना स्‍वरूप रहा है। लाख प्रयासों के बावजूद शिल्पियों ने अपने ढंग से ही मंदिरों की रचना की है।

मानव की तरह ही उनके रूप रंग में कुछ न कुछ भेद मिलता ही है। यही कारण है कि समरांगण सूत्रधार में मंदिरों के संबंध में जो विवरण है, उनको यदि नमूने के तौर पर भी बनाया जाए तो एक भारत कम पड़ जाए…। ऐसा ही विस्‍तृत विवरण ईशान शिवगुरुदेव पद्धति में मिलता है जिसके उत्‍तरार्ध का क्रियापाद अधिकांशत: देवालयों से संबंध रखता है।

शिल्‍परत्‍नकार श्रीकुमार का मत है कि हिमालय से लेकर विंध्‍याचल तक सात्विक गुणों के नागर, विंध्‍याचल से लेकर कृष्‍णा तक राजस गुणों के द्राविड और कृष्‍णा से लेकर कन्‍यान्‍त तक तामस गुणों वाले वेसर शैली के प्रासादों के निर्माण की परंपरा रही है –
नागरं सात्विके देशे राजसे द्राविडं भवेत्।
वेसरं तामसे देशे क्रमेण परिर्की‍तिता:।। इसी प्रकार की मान्‍यताएं 8वीं सदी के ग्रंथ ‘लक्षण सार समुच्‍चय’ में आई हैं…।
आज इतना ही, कभी फिर।
✍🏻पद्मश्री डॉ0 श्रीकृष्ण जुगनू जी की पोस्टों से संग्रहित

मिश्र के पिरामिडों के समान है असमिया मैदाम परंपरा
लेखिका :- डॉ. राजश्री देवी

असम के इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखते हुए आहोम राजवंश ने मैदाम नामक एक अलग तरह की स्पापत्थशैली इस प्रदेश को दी। यह अपने ही तरह की एक अनोखी कलाकृति है। जिसप्रकार मिश्र में पिरामिड हैं, उसी प्रकार असम में मैदाम हैं। आहोम स्वर्गदेउ यानी राजा तथा राज परिवार के लोगों की मृत्यु के बाद उनके शवों को रखने के लिए पहाड़ों की तरह मिट्टी से बनी समाधि को मैदाम कहा जाता है। इसमें उन शवों के साथ यथेष्ठ पैसा, सोना आदि भी रखा जाता था। मैदाम में मृतक का शरीर बहुत ही सावधानीपूर्वक रखा जाता था। लोगों में विश्वास है कि मृतक की आत्मा ही इन धन संपत्तियों की रखवाली करती है। इसे लेने की कोशिश करने वाले की मृत्यु निश्चित मानी जाती थी। इस तरह के प्रवादों ने जिस तरह मैदामों को सुरक्षित रखा। मैदामों में जिस तरह से शवों के संस्कार किये जाते थे, वह प्रचलित सनातन परंपरा में प्रचलित संस्कार पद्धति से भिन्न है। परंतु वह इस्लाम अथवा क्रिश्चियनों की शवों को दफनाने की प्रक्रिया से भी भिन्न है।

मैदाम बनाने के नियमानुसार पहले समाधि के लिये एक छोटा सा परंतु सुंदर घर बनाया जाता है और फिर उसके अंदर मृतक द्वारा प्रयोग किये जाने वाले साजों समान,धन संपत्ति आदि के साथ शव को स्थापित कर घर का दरवाजा बंद कर दिया जाता है। उसके बाद उस घर के ऊपर मिट्टी डालकर टीले की तरह की आकृति बनायी जाती है। व्यक्ति के पद के अनुसार ही धन-संपत्ति दिया जाता था और टीले का आकार भी उसी अनुसार छोटा बड़ा होता था। चाहे मैदाम जितना भी छोटा हो, फिर भी हर मैदाम इतना ऊंचा तो होता ही था कि आसानी से और दूर से उस पर लोगों की नजर पड़ सके। मैदाम की प्रत्येक आकृति जैसे उन राजाओं का जीवित स्वरूप है, इसीलिये आज भी लोग मैदामों के सामने अपना सिर झुकाते हैं।

इन मैदामों के लेकर लोगों के बीच अनेक अलौकिक कथायें भी प्रचलित है। लोग मानते है कि इसके साथ आत्माओं का संबंध है। मृतक की आत्मा यहां विचरती रहती है। भरी दोपहरी के समय वहां बूढ़ा डांगरिया (एक तरह की अलौकिक आत्मा जो इंसानों की तरह रूप धरता है। धोती कृर्ता पगड्डी पहनकर घूमता फिरता है और दिव्य पुरुष की तरह दिखता है जो किसी किसी को ही दिखता है) के निकलने की बात भी प्राय: लोगों से सुनी जाती है। लोग यह भी कहते है कि उन्होंने राज:अधिकारियों का इकट्टे मंत्रणा करते हुए भी देखा है। मैदाम में यक्षों का नाचना, अतृप्त आत्माओं द्वारा लोगों को हाथ हिलाकर बुलाना अचानक आग जल उठना, राज के अंधेरे में चारों ओर जंगलों में से आत्माओं की शोर सुनायी देना, वहां समाधिस्थ धन लूटने की कोशिश करने वालों को आत्माओं द्वारा पीछा करना या प्रतिशोध लेना मैदाम के अंदर घुसने की कोशिश करने पर किसी के द्वारा गला दबा देना आदि आदि अनेक कथा कहानियां विश्वास के रूप में लोगों के बीच प्रचलित है। इसमें और एक बात यह भी है कि इस तरह की बातें लोगों के मुंह में पड़कर अति हो जाती है इस तरह की किंवदंतियों ने जिस प्रकार लोगों के मन में मैदामों के प्रति भय व भक्ति का भाव जगाया ठीक वैसे ही इससे दूर भी रखा। कुल मिलाकर मैदामों को लेकर लोगों में अनेक जनश्रुतियां आज तक वर्तमान है।

मैदाम आहोम संप्रदाय से जुड़ें लोगों के शव रखने वाली एक समाधि है। इसके साथ इस संप्रदाय की भावनाएं जुड़ी हुई थीं। किंतु कई सौ वर्ष बीत जाने के बाद अब यह पूरी असमिया जाति की भावनाओं से जुड़ गई है। किंतु उचित देख-रेख के अभाव में इसकी अब तक अनेक क्षति हो चुकी है। इनमें रखी संपत्तियों को पाने के लोभ से लोगों ने इन्हें ढहाने की कोशिशें भी कीं। मौसम की मार के कारण इसकी आकृति में भी परिवर्तन आ चुका है। मैदाम शब्द मय और हाम इन दोनों शब्दों के योग से बना है। इसका अर्थ है मृतक का घर। श्री आइम्याखेंग योहाजि के अनुसार मै शब्द के साथ डाम शब्द के योग से मैदाम शब्द बना है। इसी प्रसंग में उल्लेख किया गया है कि मैं काउ सिर की हड्डी और मैं +डमि सिर = के देवता। स्वर्गदेउ लोगों को चाउ-लू कहकर संबोधित किया जाता था। इसीलिये राजा या स्वर्गदेउ देवतुल्य है। इन स्वर्गदेउ लोगों के सिर को जहां समाधिस्थ किया जाता है वही मैदाम है। यहां मैदाम शब्द का अर्थ केवल राजाओं के लिये ही प्रयोग हुआ है, जबकि राज परिवार व राजा के दरबार के अन्य उच्च अधिकारियों के लिये भी मैदान बनाने का नियम था। राजाओं के लिये बनाये गये सारे मौदान तब की आहोम राजधानी चराइदेउ में बनाये गये थे। बाकी लोगों के मैदाम पूर्वी असम के विभिन्न स्थानों में हैं। पहले राजाओं के लिये ही बनाये जाने के कारण संभवत: इस शब्द का अर्थ भी केवल राजाओं को ही दर्शाता है। अन्य एक व्याख्या में कहा गया है कि आहोम वंशावली के प्रथम पुरुष चाउलुंग चुकाफा से ही इस समाधि का नाम मैदान पड़ा। ‘फि-डाम’ अथवा मुख्य देवता चुकाफा को यहां समाधिस्थ किया गया था और इनका पवित्र सिर अथवा ‘मै’ को ‘डाम’ अथवा देवताओं की तरह पूर्ण मर्यादा के साथ मिट्टी से टीले की तरह आकृति बनाकर प्रतिष्ठा की गयी थी। इसीलिये इसका नाम मैदाम पड़ा। आहोमों की पुरानी परंपरा अनुसार किसी की मृत्यु के बाद मृतक के शरीर को साफ-सफाई करके प्रेमपूर्वक वस्त्र-आभूषण आदि देकर उसकी डाम पूजा की जाती थी। इसके बाद उसे समाधि में रखा जाता था। समझा जाता है कि इस डाम की दाम हो गया है।
मैदाम के आकार प्रकार तथा स्थापत्य विज्ञान आदि के बारे में बताने वाली कोई विशेष साहित्य तो उपलब्ध नहीं है लेकिन चराइदेउ इतिवृत (पुरानी आहोम राजधानी चराइदेउ ही थी, जहां राजाओं या स्वर्गदेउओं के मैदाम स्थित हैं) नामक निबंध में श्री विश्वमहल फुकनजी ने लिखा है कि आहोमों के मैदाम की पद्धति यह है कि पहले उत्तर-पश्चिम दिशा में छह हाथ लंबे और चार हाथ चौड़े सीने तक की गहराईवाला एक गड्डा खोदा जाता है। शव को दुगयुंग जोकि एक तरह का कॉफिन जैसा बक्सा होता है, में डालकर उसके ऊपर काठ डालकर अच्छे से बंद कर गड्डे में डाला जाता है। वह शव अगर राजा अथवा किसी राज अधिकारी का हुआ तो उसके चारों ओर आठ कोणयुक्त परिधि में एक घर बनाया जाता है। मैदाम ऊपर की तरफ नोक की तरह हो, इसपर विशेष ध्यान दिया जाता है। प्रक्रिया के समाप्त होने पर वहां जाने वाले सभी लोग मैदाम को प्रणाम करते हैं और पंडित द्वारा अभिमंत्रित तेल सभी को स्पर्श करने के लिये दिया जाता है। इसके बाद सब अपने घर को लौटते हैं।

इसके अलावा असम के पहले अखबार अरूणोदय तथा प्रबुद्ध सहित्यिक लीला गोगोई की लेखनियों में छिटपुट रूप वर्णन मिलता है, उसमें इसके नियमों में थोड़ा अंतर मिलता है। परंतु मुख्य बातें समान ही हैं। बाद के समय में यद्यपि आहोमों ने सनातन परंपरा के विभिन्न संस्कारों को अपना लिया था किंतु फिर भी स्वर्गदेउ तथा राज—अधिकारियों ने मैदाम बनाने की परंपरा को छोड़ा नहीं था। स्वर्गदेउ रुद्रसिंह के शासन काल में शव को दाह करने की बात को लेकर विवाद होने की कथा भी जनश्रुतियों में प्रचलित है।

अगर हम मैदाम की स्थापत्य शैली की बात करें तो इसका बाह्य आकार बौद्धस्तूपों के समान दिखता है। किंतु साथ ही अंदर के हिस्से का गह्वरविशिष्ट नागर शैली के हिंदू मंदिरों के समान होता है। यह मैदाम ईंट-पत्थरों से बनी अपनी ही तरह की एक अनोखी रचना है। मैदामों के अध्ययन से यह पता चला है कि इसे बनाने के लिये एक छोटे से पहाड़ के ऊपर के हिस्से को समतल कर उसके बीच एक लंबे चौड़े और आयताकार गहरा गडढ़ा बनाकर ईंट और पत्थरों से एक मजबूत गुफा तैयार की जाती थी। इन गुफाओं के कठिन दीवारों के ऊपर के अंश में दीवार खड़ी कर मंदिरों के शिखर जैसी आकृति बनायी जाती थी। इसीलिये यह ईंट पत्थर से निर्मित गह्वरयुक्त हिंदू मंदिर की तरह बन पड़ता था। इस घर में शव को रखने के बाद पत्थरों के द्वारा आने जाने का रास्ता बंद कर दिया जाता था। इसके बाद ही उस पर मिट्टी से टीले के जैसी आकृति बनायी जाती थी।

जहां तक मैदामों के विविध रूपों की बात है मैदाम निर्माण में व्यवहृत सामग्रियों के आधार पर से स्थायी और अस्थायी दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। दोनों ही मृतक के पद मर्यादा के आधार पर छोटे बड़े हो सकते हैं। स्वर्गदेउ रूद्र सिंह (1696—1714) के शासन के पूर्व के समय में मैदामों के अंदर का घर काठ से बना हुआ होता था। यह काठ का घर एक अथवा कई कमरों का होता था। मेटेका स्थित मैदाम के खनन के तीन कमरों का उद्धार हुआ था।

नये राजा के निर्देश से ही मृत राजा के सत्कार की व्यवस्था की जाती थी। शवयात्रा में भी कुछ विशेष लोग ही भाग ले सकते थे। इस यात्रा का इंतजाम कुछ इस तरह से किया जाता था जैसे कि वह किसी जीवित राजा की यात्रा हो। पानवाला पीकदान पकडऩेवाला, हुक्का पकडऩेवाला, तलवार लेने वाला, मालिश करने वाला तथा अन्य दास दासियां आदि साथ चलते थे और अपना कर्तव्य करते जाते थे। ये सभी लोग मृतक को लेकर जब चल रहे होते थे तो प्रजा पूर्व की भांति ही अपनी फरियाद लेकर आ सकती थी और राजा के सेवक ही उस पर विचार कर राजा के नाम पर निर्णय सुनाते थे।

शव मैदाम क्षेत्र पहुंचने तक भी यदि उसे बनाने को काम संपूर्ण नहीं होता तो संपूर्ण होने तक शव को गोगोठा नगरे में रखा जाता था। मैदाम बनाने समय जिनता कम लगे उतनी ही अच्छी सिथति में शव की समाधि दी जा सकती थी। अधिकतम ग्यारह दिन तक समय लगने की बात का भी उल्लेख है। किंवदंति है कि मैदाम बनने तक मृतदेह को कई दिनों तक अक्षत अवस्था में रखना पड़ता था। इसीलिय विशेष औषधि का प्रयोग किया जाता था। विशेष रस में डूबाकर रखने अथवा शरीर में शहद लगाने की बात भी कही जाती है। जहां तक मैदाम निर्माण के विकासक्रम की बात है, यह चुकाफा के द्वारा असम में आहोम शासन के प्रारंभ के समय से ही चला आ रहा था।

चराइदेउ स्थित मैदाम के अलावा शेष सभी मैदाम काठ से ही बनाये गये थे। विभिन्न प्राकृतिक कारणों से ढह चुके अथवा किसी दुष्ट व्यक्ति के खोदने के कारण जो मैदाम अंदर की ओर से खुल गये हैं, वहां कई बार असंख्य काठों का उद्धार हुआ है। एक से छह कमरे वाले घर मैदामों के अंदर पाये गये है। काठ के बने इस तरह के मैदामों को अस्थायी मैदाम की श्रेणी में रखा जाता है। ईंट पत्थर से बनने वालों को स्थायी मैदाम की श्रेणी में रखा जाता है। स्थायी मैदामों में गदाघर सिंह का मैदाम ही सबसे पुराना है और उनकी मृत्यु 1696 में हुई थी। इस हिसाब से सत्रहवीं शताब्दी के अंत तक ही इस तरह के मैदाम बने थे। इसमें विभिन्न प्रकार के पत्थर ईंट, गुड़, एक विशेष प्रकार के दाल, चूना, तेल आदि का प्रयोग पत्थरों को जोडऩे के लिए होता था। मिट्टी के बने टीले की आकृति के बाह्य भाग में भी धीरे-धीरे ईंटों का प्रयोग होने लगा था। सामने की ओर भी आकर्षक ढांचे जुडऩे लगे थे।

मैदामों के साथ जड़ी एक आश्चर्यजनक और उल्लेखनीय बात यह भी है कि जीवित इंसान और अन्य प्राणियों को समाधिस्थ करने का उल्लेख भी विभिन्न स्थानों में किया गया है। मैदामों में राजा के साथ हाथी तक को समाधि देने की बात इतिहासकारों ने कहा है। प्रथम असमिया अखबार अरूणोदय, मुगल इतिहासकार सहाबुद्दिन तलिस, इतिहासकार एडवार्ड गैट ने भी इसका समर्थन किया है। अंत तक आहोमों ने सनातन परंपरा के अनुसार दाहसंस्कार करना प्रारंभ कर दिया। इसलिये मैदाम परंपरा भी कमजोर होने लगी। परंतु मृतक सत्कार में दाह संस्कार को अपनाया गया तो चिता के भस्म को ही मैदाम में स्थापित किया गया। फलस्वरूप जीवित प्राणी को राजा के साथ समाधि देने का नियम लुप्त हुआ और मैदाम का आकार भी छोटा हो गया।

मैदामों के संरक्षण के लिये आहोम प्रशासन की ओर से विशेष व्यवस्था की जाती थी। इसके देख-रेख के लिये मैदाम फुकन नामक एक अधिकारी हुआ करता था। मैदाम फुकन पहरे की व्यवस्था, चारों ओर के जंगलों को काटकर साफ सफाई की व्यवस्था, मैदाम के साथ जुड़ी पूजा आदि की व्यवस्था का ध्यान रखते थे। इसके साथ जुड़े अन्य एक अधिकारी था – मेचाई फुकन। ये मैदाम में फूलों के बगीचे के साथ साथ पूजा आदि धार्मिक चीजों पर विशेष ध्यान देते थे। मैदाम निर्माण के दौरान सभी देख रेख तथा बन जाने के बाद धूप-बारिश के समय इसके मरम्मत के सभी दायित्वों का ये निर्वाह करते थे। आसपास के ग्रामीण तथा नागरिक भी नैतिक दायित्व के तहत इस पर ध्यान देते थे। जहां तक मैदाम में समाधिस्थ धन संपत्तियों के संरक्षण की बात है, स्थानीय लोगों से अधिक विदेशी आक्रमणकारियों ने इसकी हानि पहुंचायी । वर्ष 1662 में जब मुगल सेनापति मीर जुमला ने राजधानी गडग़ांव पर अधिकार कर लिया कुछ स्थानीय लोगों की मदद से इस गुप्तधन को पाने के लिये उसने इस मैदाम खोद डाला। उसी जमाने में उन्हें नब्बे हजार रुपये भी मिले। उल्लेख है कि एक राजकुमारी के मैदाम में पान रखने का एक सोने का डब्बा भी मिला था। इस तरह हासिल करने वाली लूट की साम्रयां इतनी अधिक थीं कि मुगल सेना के नाविक ग्लेनियस ने असम छोड़ते समय लिख था कि उन्हें असम से अधिक सोने चांदी की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि मैदाम खोदकर जितने मिले थे उतना काफी था। जिन दस मैदामों की उनलोगों ने खुदाई की थी, उनमें से छह राजाओं के थे। उन छह राजाओं के नाम हैं – चुहुंगमुंग अथवा दिहिंगीया राजा, चुक्लेंगमुंग अथवा गडग़ञा राजा, चुखांगफा अथवा खोराराजा, चुचेंगफा अथवा बूढ़ाराजा प्रतापसिंह, चुरामफा अथवा भगराजा और च्युतिनफा अथवा नरिया राजा।

जहां तक अब असम में प्राचीन धरोहर के रूप में मैदामों के महत्व संरक्षण आदि की बात है काफी समय तक इस पर अच्छे से ध्यान ही नहीं दिया गया। बड़े आकार के अधिकतर मैदाम पहले ही इसमें छिपे संपत्तियों के लालच में स्थानीय तथा विदेशी आक्रमणकारियों के द्वारा नष्ट किये जा चुके हैं। सोना, चांदी, इससे बने पात्र मोहर आदि को लूट ही लिया गया। इसके अलावा बहुमूल्य काठ के बने सामान और मुगा के कीमती धागे से बने कपड़े तथा इस तरह के अन्य सामानों, जिन्हें कम मूल्य का होने के कारण लूटेरों ने छोड़ दिये थे, वे भी भग्नप्राय मैदामों में धूप-बारिश की मार झेलकर सड़ते रहे। देख देख का अभाव तो था ही। इस उपेक्षा ने मैदामों की बहुत नुकसान पहुंचाया। पर्यटन स्थल बनने की बजाय ये वीरान स्थान बन गये। पेड़-पौधे उगकर जंगल बन गये। बड़े पेड़ों के जड़ों ने मैदामों के अंदर तक घर कर लिया और ढांचे फट गये। पठारों के बीच खुली जगहों में बने मैदामों को भी लोगों ने धीरे धीरे काटकर ढहाने की कोशिश की। लोगों ने घर बनाया, खेत के लिये जमीन निकाली। जयसागर इलाके में स्थित सभी मैदाम अब लुप्त हो गये हैं। गुवाहाटी शहर के बीचोंबीच स्थित एक मैदाम पर रेलवे कॉलोनी ने कब्जा कर लिया। इस तरह असम का धरोहर यह मैदाम अब लुप्तप्राय अवस्था में है।

पिछले कुछ वर्षों से सरकार की ओर से इसके संरक्षण व उन्नयन के लिये थोड़े बहुत कदम उठाये गये हैं, पर ये यथेष्ट नहीं है। इसकी मरम्मत कर, घास उगाकर मिट्टी को ढहने को रोककर, इसके परिसर में बगीचा आदि बनाकर लोगों के ध्यानाकर्षण की कोशिश की जा रही है। असम के बाहर इसके बारे में अभी तक अधिक प्रचार प्रसार भी नहीं हुआ है, जबकि ये मिश्र के पिरामिडों की भांति ऐतिहासिक धरोहर हो सकते हैं। मैदामों के द्वारा मानव सभ्यता की एक रीति और परंपरा जुड़ी हुई है। इस तरह के मृतक सत्कार की पंरपरा विश्व के विभिन्न देशों में विभिन्न जातियों में विभिन्न सभ्यताओं में प्रचलित थी। मैदाम की परंपरा भी उसी कड़ी में आती है। इसीलिए केवल प्रादेशिक ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इस पर उचित अध्ययन, विश्लेषण और शोध की आवश्यकता है।
✍🏻साभार – भारतीय धरोहर पत्रिका

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