श्रीश देवपुजारी
समाज में एक भ्रम फैलाया गया है कि संस्कृत पढऩे से छात्र अर्थार्जन नहीं कर सकता। उसे केवल शिक्षक बनना पड़ता है या पुरोहित। इस प्रकार की धारणा रखनेवालों से मेरा प्रश्न है कि जो संस्कृतेतर छात्र बीए, बीकॉम और बीएससी होते है उनके लिए कौन-सी नौकरी बाट जोह रही है?
हमारे देश में स्नातक उपाधि को आधारभूत उपाधि माना जाता है। उसकी प्राप्ति के पश्चात् आप प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण कर नौकरी पा सकते है। जो संस्कृत विषय लेकर स्नातक बनते है उनके लिए किस प्रतियोगी परीक्षा का द्वार बंद है? उत्तर आयेगा किसी का नहीं। स्नातक बनने के पश्चात् अधिकतर छात्र प्रबन्धन शास्त्र (एमबीए) पढ़ते हैं। क्या संस्कृत से स्नातक प्रबन्धन शास्त्र नहीं पढ़ सकते? संस्कृत के छात्र यूपीएससी परीक्षा उत्तीर्ण करते है। चोटीपुरा गुरुकुल की कन्या यूपीएससी परीक्षा में तृतीय स्थान पर आयी। लखनऊ के संस्कृत परिवार का युवक इसी वर्ष आईएएस हुआ। बहुत से छात्र यूपीएससी परीक्षा के लिए संस्कृत विषय लेते है, यह मेरा निजी अनुभव है। आईआईटी या अन्य अभियन्त्रण शास्त्र पढ़े छात्र भी पाठ्यक्रम के विषायों को छोड़ कर आईएएस बनने के लिए संस्कृत विषय चुनते है और संभाषण सीखने के लिए संस्कृत भारती के पास आते है। आश्चर्य तब हुआ, जब बीटेक की हुई एक मुसलमान छात्रा संस्कृत सीखने संस्कृत भारती की ओर से संचालित संवादशाला में पहुँची। वहाँ 14 दिन का आवासीय शिविर होता है। वह यूपीएससी की परीक्षा देनेवाली थी।
विश्वभर में योग का प्रचलन बढ़ रहा है, यह सर्वविदित है। किन्तु अधिकतम लोगों को केवल आसन और प्राणायाम का कुछ हिस्सा ज्ञात है। अष्टांग योग की ओर अब कुछ लोग (विशेषकर विदेशी) उन्मुख होने लगे है। उन्हें पढ़ायेगा कौन? जो योग दर्शन का ज्ञाता है वही न? क्या विश्व की जिज्ञासा शांत करने के लिए हमारे पास योगदर्शन के पर्याप्त शिक्षक है? इस वर्ष भारत सरकार के विदेश मन्त्रालय द्वारा पहला प्रयास किया गया। योग दिन के निमित्त भारत से कुछ योग दर्शन जाननेवाले विद्वानों को विदेशो में भेजा गया। यह मांग बढऩे वाली है। विश्व के कुछ ही देश अंग्रेजी भाषा समझते है। शेष सब अपनी-अपनी भाषा में पढ़ते है, जैसे – जर्मन, फ्रेंच, रशियन, जापानी, चीनी, हिब्रू इत्यादि। इसलिए इन देशों मे योग दर्शन पढ़ाना है तो पहले संस्कृत पढ़ानी होगी, कारण अंग्रेजी भाषा से काम नही चलेगा। विश्व की सभी भाषाए दार्शनिक पढ़े यह तो संभव नहीं है। वैसे भी योग शास्त्र, भाष्य ग्रन्थ, टीका ग्रन्थ इत्यादि पढऩे के लिए संस्कृत आना अनिवार्य है।
यही हाल आयुर्वेद का है। विदेशों मे आयुर्वेद के औषाधियों की मांग लगातार बढ़ रही है। कुछ समय पश्चात् आयुर्वेद पढने के लिए विदेशी छात्र प्रवृत्त होंगे। तब आयुर्वेद के ग्रंथों को पढऩे के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक हो जाएगा। जैसी विदेशियों की जिज्ञासु प्रवृत्ति है वे अवश्य संस्कृत पढ़ेंगे। तब पढ़ाने वाले शिक्षकों की वैश्विक मांग होगी। क्या भारत के शिक्षक इसके लिए तैयार है?
यह हमारा दुर्भाग्य है कि भारतीय अपनी विद्या सीखने के लिए तत्पर नहीं हैं। नहीं तो जैसे आयुर्वेद के पाठ्यक्रम में संस्कृत सीखना अनिवार्य है वैसा सभी व्यावसायिक महाविद्यालयों में होता। वर्तमान केंद्र सरकार ने योजनापूर्वक व्यावसायिक महाविद्यालयों में ऐच्छिक विषय के रूप में संस्कृत लाने का प्रयास प्रारम्भ किया है। लगभग दो सौ महाविद्यालायों में जहाँ संस्कृत विषय पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं है वहाँ केंद्र सरकार ने अपनी ओर से वेतन की व्यवस्था कर प्राध्यापक को भेजा है। इच्छुक छात्र एवं प्राध्यापक संस्कृत की कक्षाओं मे बैठते है।
जहाँ तक विद्यालयीन शिक्षा का संबन्ध है सर्वाधिक शिक्षक अंग्रेजी भाषा के हैं। तत्पश्चात् संस्कृत का ही क्रम आता है। उच्च शिक्षा में तो संस्कृत प्राध्यापकों की संख्या सर्वाधिक है। कारण सामान्य महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में संस्कृत की शिक्षा दी जाती है। इस कारण प्राध्यापक भी नियुक्त होते हैं। इसके अलावा 15 की संख्या में संस्कृत के विश्वविद्यालय है। इतनी संख्या में तो किसी विषय के विश्वविद्यालय नहीं हैं। प्रत्येक संस्कृत विश्वविद्यालय में कम से कम साहित्य, व्याकरण, दर्शन, वेद, ज्योतिष एवं शिक्षाशास्त्र ये विभाग तो होते ही हैं। अत: प्रत्येक विभाग में आचार्य, सह आचार्य, सहायक आचार्य ये पद सृजित किये ही जाते है। इस कारण महाविद्यालयीन प्राध्यापकों की संख्या बढ़ जाती है।
सामान्यत: भारतीय भाषा के पत्रकार लिखते या बोलते समय अशुद्ध भाषा का प्रयोग करते है। अत: यदि संस्कृत भाषा आत्मसात किया हुआ स्तंभलेखक या संवाददाता बन जाता है तो वार्ता लेखन या कथन में शुद्धता आयेगी। तभी समाज भी शुद्ध भाषा का प्रयोग सीखेगा। अत: निवेदन है कि संस्कृत के अध्ययन से अर्थार्जन कैसे होगा यह चिन्ता त्यागे और अधिक मात्रा में संस्कृत सीखे।
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