मौसम के कहर से बचाएं
आस-पास के प्राणियों को
– डॉ. दीपक आचार्य
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शीत का मौसम इन दिनों अपने भयावह दौर में पहुँचा हुआ है। शीतलहर और बर्फानी हवाओं के साथ ही हाड़ कँपा देने वाली सर्दी का प्रकोप सर्वत्र पूरे यौवन पर जारी है। इन विषम परिवेशीय हालातों में हमारा कत्र्तव्य सिर्फ अपने आपको बचाकर रखने तक ही सीमित नहीं होना चाहिए बल्कि हमारी नैतिक जिम्मेदारी है कि जो प्राणी हमारे आस-पास रहते हैं उन सभी को हम शीत के प्रभाव से बचाएँ।
ठण्ड से त्रस्त सभी लोगों को किसी भी प्रकार की दिक्कत न हो, उन्हें समय पर खाना-पानी मिले और रहने, ओढ़ने-बिछाने की माकूल व्यवस्था हो तथा उनमें से किसी को भी यह नहीं लगे कि शेष समुदाय उनके प्रति संवेदनहीन है।
बात चाहे सर्दी से प्रभावित इंसानों की हो अथवा पशु-पक्षियों की। सभी के प्रति हमारे फर्ज बनते हैं कि उनकी रक्षा करते हुए सुरक्षित व सहज जीवनयापन का प्रबन्ध हो। प्रत्येक व्यक्ति, समुदाय व क्षेत्र का यह सामयिक फर्ज है कि शीत से अपने क्षेत्र के लोगों और मवेशियों को बचाएं।
यह मानवीय संवेदनाओं से भरा कार्य तो है ही। ऎसे कार्य ही पुण्य और ईश्वर की प्राप्ति कराते हैं और सच्चा आत्मतोष इन्हीं परोपकारी प्रवृत्तियों से
यह सब सेवा कार्य किसी के प्रति दया या करुणा की भावना से नहीं होने चाहिएं बल्कि निष्काम सेवा की भावना से ही किए जाने की जरूरत है। हम ऎसा करके किसी के प्रति उपकार नहीं करते हैं बल्कि हमें यह मानना चाहिए कि हमारे फर्ज को पूरा करने का यह उपयुक्त मंच या माध्यम मिला हुआ है ताकि हम अपने इस सामाजिक ऋण से उऋण हो सकें।
हममें से कई लोगों की मानसिकता ही ऎसी हो गई है कि हम अपने ही दायरों में कछुओं की तरह कैद होकर रह गए हैं। हमारे आस-पास कौन किस हालत में रह रहा है, किसे क्या परेशानी है, क्या जरूरत है ? इस बारे में हम उपेक्षा या अनसुना भाव रखा करते हैं। यह आज के इंसान में मानवीय संवेदनाओं का महा-अकाल ही कहा जा सकता है।
हममें से ही खूब सारे लोग ऎसे हैं जो गाय-भैंसे, बकरियां और दूसरे जानवर पालते हैं मगर इन जानवरों के उत्पादों के दोहन तक ही हमारा ध्यान रहता है। कई लोग भीषण शीत के बावजूद इनकी कोई परवाह नहीं करते और अपने हाल में मस्त रहते हैं। इसी तरह अपने आस-पास के लोगों के प्रति भी हम बेफिक्र रहते आये हैं।
सामाजिक मानदण्डों के अवमूल्यन के मौजूदा दौर में हम आत्मशांति, शाश्वत आनंद और सुकून पाने के लिए चाहे कुछ कर गुजरें, कितने ही यज्ञ अनुष्ठान, भागवत और दूसरी कथाएं करा लें, धार्मिक होने के कितने ही आडम्बरों के साथ माईक से कानफोडू आवाज में घण्टों रमे रहें, मन्दिरों में चाहे कितनी ही बार घण्टे बजाते रहें, इन सबका कोई अर्थ नहीं यदि हममें इंसानियत और संवेदनशीलता न हो।
ईश्वर भी उसी हृदय को स्वीकार करता है जो पाखण्डों से दूर रहकर ‘नर सेवा-नारायण सेवा’ के मूल ध्येय में विश्वास रखता है। आज हमारी सुप्त पड़ चुकी संवेदनाओं पर से राख हटाने की जरूरत है। वर्तमान मौसम हमारे लिए सिर्फ चुनौती लेकर ही नहीं आया है बल्कि यह हमारी परीक्षा की घड़ी भी है कि हम किस तरह अपने बंधुओं, क्षेत्र के प्राणियों के लिए मददगार साबित हो सकते हैं। जो इस कसौटी पर खरा उतरेगा, वही इंसान के रूप में ईश्वर की निगाह में आ पाएगा। अन्यथा कितनी ही बड़ी हवेलियां, आलीशान महल, कई मंजिला मॉल्स और प्रतिष्ठानों से लेकर अरबों-करोड़ों रुपये की जायदाद, लोकप्रियता आदि का कोई महत्त्व नहीं है। एक दिन हम सभी को नंगे हाथों ही लौटना है। अब भी वक्त है, अपने आस-पास देखें और जो कुछ कर सकते हैं, करें। वर्तमान हम सभी से यही मांग रहा है।
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