गाय की रीढ़ की हड्डी में सूर्यकेतु नाड़ी होती है। यह नाड़ी गाय के रक्त में स्वर्णक्षार बनाती है। यही स्वर्णक्षार पीले पीले सुनहरे रंग में हमें गाय के दूध घी आदि में स्पष्ट दीखता है। यही कारण है कि गौदुग्ध का सेवन करने वाले व्यक्ति के रंग से स्वर्णिम आभा झलकने लगती है। भारत में पुराने समय में लोग गौमूत्र का सेवन करके भी स्वयं को स्वस्थ रखा करते थे। ग्वाले लोग तपती ज्येष्ठ मास की गर्मी में भी गौमूत्र के सहारे भीषण गरमी को सहज ढंग से सहन कर लिया करते थे। क्योंकि सूर्यकेतु नाड़ी के प्रभाव से गौमूत्र गरमी शोधक बन जाता है। यही कारण है कि गाय को मई जून के माह में
आज के वैज्ञानिकों की मान्यता है कि गौ मूत्र में नाईट्रोजन, सल्फर, अमोनिया गैस, ताम्बा, लौह, यूरिया, यूरिक एसिड, फास्फेड, सोडियम, पौटेशियम, मैगनीज, कार्बालिक एसिड, कैल्शियम, नमक और विटामिन ए, बी, सी, डी, ई आदि तत्व पाये जाते हैं। जिनसे मनुष्य पूरी तरह स्वास्थ्य लाभ करता है। गाय के दूध की दही को अथवा तक्र में मिले गेंहूं के दलिया के सेवन से गरमी के दिनों में भी मनुष्यों को प्यास नही सताती। व्यक्ति बड़े सहज ढंग से भरी गरमी में कार्य कर सकता है। उसकी रोग निरोधक क्षमता सुदृढ़ होती है। शरीर में कीटाणुओं का नाश होता है। हृदय स्वस्थ रहकर अपना कार्य करता है। किसी प्रकार की चिड़चिड़ाहट या घबराहट नही होती है। यहां तक कि सिर के बाल भी काले बने रहते हैं। गौ मूत्र के सेवन में बुढ़ापा आक्रमण नही करता।
कब्ज, खाज, कोढ़, खुजली, एग्जिमा, पथरी, दीर्घ ज्वर, पीलिया, सूजन, खांसी, जुकाम, दमा, पाण्डुरोग, बच्चों की सूखी खांसी, बांझपन, उदर वकार, नेत्र विकार, तपेदिक, बाल झडऩा, रक्तचाप, कैंसर, जलोदर, कान दर्द, नारियों के मासिक धर्म की अनियमितता, रक्त प्रदर, श्वेत प्रदर, कमर दर्द, सिर दर्द, हाथ पांव फूलना, जी घबराना, चक्कर आना, गैस ट्रबल, हाथ पांव की जलन, दिमागी दुर्बलता, दिमागी गर्मी, नींद न आना, मुख मण्डल पर छोटी छोटी फुंसियों का हो जाना, चोट लगना, कटना, मोच आना, आदि में विशेष प्रकार से गौ मूत्र लेने से आशातीत लाभ होता है।
गौ मूत्र की धूम आज न केवल भारत वर्ष में अपितु अमेरिका तक में मच रही है। लोग बड़ी उत्सुकता से इस अद्भुत रसायन की ओर आकर्षित हो रहे हैं। किंतु फिर भी यह दुख और दुर्भाग्य का विषय है कि भारत वर्ष में ही आज सृष्टि का यह बेजोड़ प्राणी, जिसे प्रत्येक मनुष्यमात्र की माता कहा जाना भी अतिशयोक्ति नही होगी, अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। एक सर्वेक्षण के अनुसार लगभग सवा की भारत की जनसंख्या के लिए सारे दुधारू पशुओं की संख्या लगभग पांच करोड़ ही रह गयी है। इससे हमारे भविष्य की भयावह तस्वीर उभरकर सामने आती है। मिलावटी दूध आज भी बड़ी मात्रा में बिक रहा है। जिससे मनुष्य की रोग निरोधक क्षमता पर कुप्रभाव पड़ रहा है। नये नये प्राणलेवा रोग दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। युवावर्ग का कांतिहीन चेहरा आने वाले दुर्बल युवा भारत की ओर संकेत कर रहा है। कहा जाता है कि सतयुग में भारत की जनसंख्या मात्र छह करोड़ थी। जिसके लिए 96 करोड़ गाएं थीं। आज यह व्यवस्था शीर्षासन कर गई है। सवा अरब जनसंख्या के लिए पांच करोड दुधारू पशु हैं।
आशा की जाती थी कि स्वतंत्र भारत में गाय माता के वध को रोकने के समुचित और व्यापक प्रबंध किये जाएंगे। किंतु यहां स्वतंत्र भारत में जिस प्रकार बूचड़खाने खुले हैं और गाय के प्रति स्वयं हिंदू समाज के दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है वह बहुत ही निराशा जनक है। अपनी संस्कृति अपने धर्म और अपने इतिहास से जिस देश के युवा को काट दिया जाता है उसकी स्थिति इसी प्रकार की हुआ करती है। इसलिए आज गाय माता के वंश को बचाने के लिए सारे हिंदू समाज से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने युवा वर्ग केा अपनी संस्कृति धर्म और इतिहास का भली प्रकार बोध कराये। इसके लिए आवश्यक है कि हमारी संस्कृति धर्म और इतिहास की संरक्षिका संस्थाएं अथवा सभाएं युवा वर्ग को आंदोलित करने के लिए व्यापक स्तर पर जनजागरण अभियान चलाएं। सरकारों की जहां तक बात है, तो उनकी बात करना तो निरर्थक है। क्योंकि उन्हें धर्मनिरपेक्षता का मानसिक पक्षाघात हो चुका है। इसलिए वह अपना मानव धर्म (सब प्राणियों की रक्षा) और राष्ट्रधर्म (गौ माता की वंश वृद्घि के समुचित उपाय करने और गौवंश के रक्षोपाय) दोनों को ही भूल चुकी है। इसलिए समय रहते हिंदू संगठनों को इस ओर कदम बढ़ाना होगा। हमारे संत समाज में ऐसे महापुरूष विद्यमान है कि जो हमारे समुचित मार्गदर्शन कर सकते हैं। गाय हमारी माता है, यदि माता का अस्तित्व संकट में हो तो पुत्रों का कत्र्तव्य बनता है, माता के प्राणों की रक्षा करना। गाय माता के संदर्भ में आज हमारा यह कत्र्तव्यबोध ही हमारा राष्ट्रधर्म है।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।