विश्वके ऐसे कितने ही देश हैं जिन्होंने दिन के प्रकाश में अपनी स्वतंत्रता को खो दिया और ऐसा खोया कि फिर कभी उसे प्राप्त न कर सके। ऐसी स्थिति उन्हीं लोगों की या देशों की हुआ करती है, जो अपनी जिजीविषा और जिज्ञासा को या तो शांत कर लेते हैं या उसे खो बैठते हैं। जब हम भारत के विषय में सोचते हैं तो ज्ञात होता है कि यहां जिजीविषा और जिज्ञासा की जीवनदायिनी जीवनी शक्ति कभी नष्ट नही हुई। इसे इस उदाहरण से और भी अच्छी प्रकार समझा जा सकता है।
कहते हैं एक जैन संत थे, जिनका नाम था नान इन। वह मनुष्य की मुक्ति के सहज उपाय बताने समझाने के लिए अपने समय में बड़ी ही ख्याति प्राप्त कर चुके थे। एक बार उन्होंने अपने ज्ञान प्राप्त करने का बड़ा ही रोचक संस्मरण अपने भक्तों को सुनाया। उन्होंने बताया कि एक दिन उन्हें अपने गुरू से शिक्षा लेते लेते अधिक रात हो गयी। उसने अपने गुरू से कहा कि अंधेरे के कारण रास्ता नही सूझ रहा। ऐसे में मंदिर की सीढिय़ां कैसे उतरूंगा? गुरू ने उसके हाथ पर एक दीपक रख दिया। परंतु जैसे ही नान इन मंदिर की सीढिय़ां उतरने लगा तो एक सीढ़ी उतरते ही गुरू ने दीपक को फूंक मारकर बुझा दिया। तब नान इन ने अपने गुरू से बड़ी ही विनम्रता से कहा-‘गुरूदेव मेरे साथ उपहास न करें। गहन अंधकार है। सीढिय़ां कैसे उतरूंगा?’ इस पर गुरू ने कहा-दूसरे के दीपक के सहारे जो प्रकाश मिलता है, उससे अपना अंधेरा उत्तम है। अंधेरे में ही रास्ता खोजो, ऐसा करते हुए तुम्हारे भीतर स्वयं ही एक नया दीपक जलेगा। अंधेरे में टकराओगे, गिरोगे तो भी चिंता की कोई बात नही। इस सारी असुविधा पूर्ण स्थिति के मध्य तुम्हारी आत्मा निर्मित होगी। मेरे दीपक के सहारे तुम गिरोगे तो नही, परंतु तुम्हारी आत्मा खो जाएगी। इसलिए मैंने तुम्हारे हाथ पर रखा अपना दीपक बुझा दिया है।’
उपनिषद के ऋषि ने भी कहा है कि जब प्रकाश के सारे माध्यम सूर्य, चंद्रमा, तारे, दिशायें शब्द इत्यादि छुप जाते हैं, या किसी भी कारण से उपलब्ध नही होते हैं, तब व्यक्ति आत्म प्रकाश के माध्यम से दिशा बोध करता है और अपना मार्ग स्वयं निर्धारित करता है। सचमुच यह अध्यात्म का विषय है। भौतिकता का इससे कोई संबंध नही है। यहां बात भी तो भारत की हो रही है, जो अध्यात्म के क्षेत्र में विश्व का गुरू रहा है। इसलिए भारत ने अपने पतन के उस काल में भी जिजीविषा और जिज्ञासा की संजीवनी बूटी का आश्रय नही छोड़ा जिस काल में उसके भटकने के और अपनी स्वतंत्रता को खो देने के पर्याप्त कारण उपलब्ध थे।
क्षात्र-शक्ति का भटकाव
पतन के उस काल में हमारी क्षात्र शक्ति के भटकाव का संकेत करना भी यहां आवश्यक और उचित प्रतीत होता है।
मौहम्मद गोरी के समय में भारत का प्रमुख शासक पृथ्वीराज चौहान था। पृथ्वीराज चौहान का जन्म 1167 ई. में अजमेर के शासक सोमेश्वर सिंह की रानी कर्पूरी देवी के गर्भ से हुआ था। 1178 ई. में महाराजा सोमेश्वर सिंह की मृत्यु हो गयी तो 11 वर्ष का अल्पव्यस्क पृथ्वीराज चौहान अजमेर का शासक बना। माता ने अल्पव्यस्क राजा की संरक्षिका की भूमिका का निर्वाह किया। लगभग 5 वर्ष तक रानी ने अपनी इस भूमिका का निर्वाह किया। सोलह वर्ष के पृथ्वीराज चौहान ने स्वतंत्रता पूर्वक शासन करना आरंभ कर दिया। पृथ्वीराज चौहान ने अगले ग्यारह वर्ष तक दिल्ली और अजमेर पर शासन किया। दिल्लीश्वर अनंगपाल तोमर के दो पुत्रियां ही थीं, जिनमें से एक अजमेर नरेश सोमेश्वर सिंह को ब्याही थी तो दूसरी कन्नौज नरेश विजयचंद्र (जयचंद के पिता) को ब्याही थी।
हर चौथे वर्ष एक विवाह
पृथ्वीराज चौहान ने अपने 27 वर्षीय जीवनकाल में लगभग हर चौथे वर्ष में एक विवाह किया। पृथ्वीराज चौहान आर्यावत्र्तीय राजाओं की परंपरा में प्रथम शासक है जिसने अपने शारीरिक सौंदर्य का और अपनी क्षात्र शक्ति का उपयोग केवल सुंदरियों को अपने राजप्रसादों में लाकर और उन्हें अपने उपभोग की वस्तु बनाकर किया। वह अपने जीवन में शारीरिक वासना की पूर्ति के लिए भटकता रहा और इसी भटकन में अपना जीवन पूर्ण कर गया। संयोगिता उसके लिए वह दीपक बन गयी जिस पर कोई ‘पागल परवाना’ आकर अपनी अज्ञानता से अपना जीवन होम कर देता है। सीमा पर मौहम्मद गोरी नाम का शत्रु भारी उत्पात कर रहा था और वह निरंतर हिंदुस्तान के हृदय की ओर बढ़ता आ रहा था, जबकि भारत का नरश्रेष्ठ कहा जाने वाला शासक पृथ्वीराज चौहान अपनी रानी संयोगिता के साथ अपने राजकाज को भी भूलकर वासना का खेल रहा था। जब शत्रु राजधानी में घुस आया तब राजा को किसी प्रकार से अपने राजधर्म का बोध हुआ। परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी? वासना ने भारत के हाथ के दीपक को बुझा दिया और धकेल दिया उसे गहन अंधकार की ओर।
स्वयं संयोगिता को भी अपनी गलती का अहसास हुआ। उसने पृथ्वीराज चौहान की बड़ी रानी से कहा था-‘सारा अनर्थ हमारे कारण हो गया है।’
एक अहंकारी शासक
पृथ्वीराज चौहान को अधिकांश इतिहासकारों ने अहंकारी माना है। सचमुच वह अहंकारी था भी। उसने अपने अहंकार के वशीभूत होकर देशी राजाओं से शत्रुता मोल ली और उस शत्रुता के पीछे राज्य विस्तार कर स्वयं को चक्रवर्ती सम्राट घोषित करना या स्थापित करना उसका उद्देश्य नही था, अपितु अधिकांशत: उसने कई राजाओं की कन्याओं के अपहरण या उनसे बलात विवाह करके यह शत्रुता मोल ली थी। यह स्थिति भारतीय संस्कृति के अनुकूल नही थी, अपितु क्षात्र शक्ति के लिए एक कलंक थी। जिससे भारतीय क्षात्रशक्ति का क्षय हुआ और विदेशी शक्तियों को भारत के हृदय पर पैर रखने का अवसर उपलब्ध हो गया।
पृथ्वीराज चौहान के अनेक विवाह
पृथ्वीराज चौहान ने अपना पहला विवाह माण्डोवर नरेश की पुत्री जम्भादेवी से 1175 ई. में मात्र 8 वर्ष की अवस्था में किया। जम्भादेवी के पिता नाहरराय एक बार पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर सिंह के राजकीय अतिथि के रूप में आये थे। तब उन्होंने बालक पृथ्वीराज चौहान को देखकर एक फूलों की माला उसके गले में डाल दी और उसके बड़े होने पर अपनी पुत्री का विवाह उससे करने की बात कही। परंतु किन्हीं कारणों से नाहरराय जब अपनी पुत्री का विवाह कहीं और करने लगे तो ये बात सोमेश्वर सिंह को अच्छी नही लगी। इसलिए उन्होंने बालक पृथ्वीराज चौहान को नाहरराय पर चढ़ाई करने का निर्देश दिया। बालक पृथ्वीराज अपने योग्य सेनापतियों के बल पर नाहरराय को परास्त करने में सफल हो गया। परास्त राजा ने पृथ्वीराज के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। राजा नाहर तो परास्त हो गया, परंतु भारत का भावी प्रमुख शासक पृथ्वीराज चौहान इससे उच्छ्रंखल और अहंकारी हो गया। बालक को राज्य शक्ति के दुरूपयोग के लिए प्रेरित कर राजा ने भी पिता के रूप में उचित कार्य नही किया था। पृथ्वीराज चौहान ने बालकपन से ही एक नाहरराय के रूप में कई राजाओं को खिन्न कर लिया।
अपना दूसरा विवाह पृथ्वीराज चौहान ने एक दो वर्ष पश्चात ही चंद्रावती के राजा सलख की रूपवती कन्या इच्छन कुमारी से किया। इच्छन कुमारी से गुजरात का प्रतापी शासक भीमदेव विवाह करना चाहता था। परंतु भीमदेव सहित कई राजाओं को अपमानित कर पृथ्वीराज चौहान ने चंद्रावती के राजा सलख की पुत्री इच्छन कुमारी से अपना विवाह कर लिया। राजा सलख भी युद्घ में मारा गया। युद्घ में भयानक रक्तपात हुआ था। यह रक्तपात भारत के पतन की कहानी लिख रहा था, क्योंकि यह उन विदेशी आक्रांताओं के विरूद्घ नही किया जा रहा था जो भारत की स्वतंत्रता के हन्ता थे, अपितु यह रक्तपात उन लोगों का हो रहा था जो स्वयं स्वतंत्रता के रक्षक थे। एक कामासक्त राजा भारत के पतन की कहानी लिख रहा था, जो निरंतर भयानक होती जा रही थी। तभी तो पृथ्वीराज चौहान के विषय में उसी के प्रिय दरबारी कवि चंद्रबरदाई ने लिखा है :-स्त्रियों के संबंध में पृथ्वीराज चौहान की इच्छाएं जैसे जैसे पूर्ण हो जाती थीं वैसे वैसे ही इसकी कामाग्नि और भड़कती जाती थी। मानो पृथ्वीराज चौहान के लिए एक के बाद दो और दो के तीन होते जा रहे विवाहों ने आग में घी का काम किया। अत: पृथ्वीराज चौहान ने अपना तीसरा विवाह अपने ही सामन्त चंदपुण्डीर की अत्यत रूपवती कन्या से करने का प्रस्ताव रख दिया जिसे उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया। इसी प्रकार चौथा विवाह उसने अपने अत्यंत विश्वसनीय मित्र कैमास की बहन के साथ किया। कैमास के पिता ने अपनी दूसरी पुत्री का विवाह भी पृथ्वीराज चौहान के साथ कर दिया।
जयचंद को बनाया घोर शत्रु
इसके पश्चात छठा विवाह पृथ्वीराज चौहान ने देवगिरि के राजा भानराय की कन्या शशिवृत्ता के साथ किया। राजा भानराय अपनी कन्या का विवाह जयचंद के भतीजे वीरचंद कमधज्ज के साथ करना चाहते थे, परंतु शशिवृत्ता पृथ्वीराज चौहान को चाहती थी। फलस्वरूप युद्घ हुआ और दोनों पक्षों के हजारों वीर योद्घा काम आये। अभी तक जयचंद कहीं न कहीं पृथ्वीराज चौहान का सहायक और शुभचिंतक भी था। कहते हैं कि एक युद्घ में उसने मौहम्मद गोरी के विरूद्घ पृथ्वीराज चौहान की सहायता भी की थी। मौहम्मद गोरी से नित्यप्रति युद्घों का संकट भारत पर मंडराता रहता था। अदूरदर्शी सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने जयचंद की मित्रता को घोर शत्रुता में परिवर्तित कर लिया। उसके लिए शशिवृत्ता को लेकर उचित यही होता कि उसे वह जयचंद के परिवार में जाने देता और अपने नाना अनंगपाल द्वारा दिल्ली का सिंहासन पृथ्वीराज चौहान को देने से खिन्न जयचंद की सहानुभूति लेने का प्रयास करता। परंतु पृथ्वीराज चौहान का अहंकार सिर चढ़कर बोल रहा था, इसलिए उसने शशिवृत्ता को लेकर भयंकर रक्तपात करा दिया। पृथ्वीराज चौहान के सामंतों ने भी शशिवृत्ता के लिए होने वाले युद्घ को उचित नही माना था।
कमधज्ज की दूरदर्शिता
कमधज्ज ने युद्घ में एक नारी के लिए निज बंधुओं का रक्त बहाना उचित नही समझा, इसलिए वह दोनों ओर के सैनिकों के बहते रक्त को देखकर युद्घ से विरक्त होकर चल दिया था, परंतु पृथ्वीराज चौहान ने उसकी दूरदर्शिता को भी उसकी दुर्बलता समझा और दुगुने वेग से उसकी सेना पर हमला बोल दिया। कमधज्ज की पराजय हुई और उसे भारी अपमान का सामना करना पड़ा। अपने अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए उसने देवगिरि के शासक पर हमला बोल दिया। देवगिरि के शासक ने अपनी सहायता के लिए पृथ्वीराज चौहान को बुला भेजा। अत: फिर एक अवांछित युद्घ हो गया। युद्घ की अवांछित और व्यर्थ विभीषिका को देखकर भारत की आत्मा कराह उठी थी। क्योंकि यह युद्घ ‘धर्म युद्घ’ नही था, अपितु एक दूसरे को नीचा दिखाने और अपमानित करने की भावना से किया जा रहा था। इससे जनहित सधने वाला नही था और ना ही किसी जनविरोधी शासक को सिंहासन से उतारकर उसके स्थान पर किसी जनप्रिय शासक को सिंहासनरूढ़ करना इसका लक्ष्य था। इसका लक्ष्य तो केवल निजविनाश करना था।
सचमुच ‘विनाशकाले विपरीत बुद्घि’ वाली कहावत इस समय चरितार्थ हो रही थी। जयचंद पुन: अपमानित होकर अपने भतीजे वीरचंद कमधज्ज और अपनी पराजित सेना के साथ कन्नौज लौटने पर विवश हो गया।
कर्नाटकी की वैश्या और पृथ्वीराज चौहान
पृथ्वीराज चौहान के पराक्रम ने दक्षिण भारत में प्रवेश किया। उसके वीरोचित गुणों ने कर्नाटक तक के दक्षिण भारतीय भू-भाग पर उसका नियंत्रण स्थापित करा दिया। तत्कालीन दक्षिण भारत के सभी राजाओं ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। यह एक अच्छा संकेत था, परंतु पृथ्वीराज चौहान का शासन चिरस्थायी नही रह सका था, इसलिए दक्षिण भारत का उसका यह सफल अभियान कोई स्थायी प्रभाव नही डाल पाया।
जब पृथ्वीराज चौहान कर्नाटक में था और जब दक्षिण भारत के राजाओं ने वहां उसकी अधीनता स्वीकार की थी तो उन राजाओं ने एक कर्नाटकी वैश्या उसे भेंट में दी। उस रूप लावण्या पर भी पृथ्वीराज चौहान आसक्त हो गया। वास्तव में यह आसक्ति उसके पराक्रम को पतन में परिवर्तित कर गयी। बहुत संभव था कि दक्षिण भारतीय राजाओं ने उसकी कामासक्ति का उपहास उड़ाने के लिए ही उसे एक सुंदर वैश्या ही भेंट में दे दी हो। परंतु वह कामान्ध शासक यह नहीं, समझ पाया कि एक वैश्या को दक्षिण भारतीय शासकों द्वारा उसे उपहार में देना उसका उपहास है, अथवा उसका सम्मान है? पृथ्वीराज चौहान ने इस वैश्या को भी अपने राजभवन में सम्मान के साथ रखने की आज्ञा दे दी। क्योंकि यह उसे दक्षिण भारत विजय के उपहार के रूप में मिली थी।
उज्जैन राजकुमारी इन्द्रावती से विवाह
उज्जैन के शासक भीमदेव ने पृथ्वीराज चौहान से मित्रता करने के लिए उसकी दुर्बलता को समझा और उसे अपनी कन्या इंद्रावती का हाथ देने का प्रस्ताव रख दिया। पृथ्वीराज चौहान के यहां भला क्या देरी थी? उसने विवाह प्रस्ताव तो स्वीकार कर लिया, परंतु उसी समय उसे अपने बहनोई चित्तौड़ नरेश समरसिंह की सहायता के लिए, चित्तौड़ जाना पड़ गया, क्योंकि चित्तौड़ पर गुजरात के शासक भोलाराय भीमदेव ने चढ़ाई कर दी थी। तत्कालीन परंपरा के अनुसार पृथ्वीराज चौहान ने अपने कवि चंद्रबरदाई और कई अन्य दरबारियों को भीमदेव की कन्या का विवाह अपनी खडग़ (तलवार) के साथ करके ले आने की आज्ञा देकर भेज दिया। इस पर भीमदेव चिढ़ गया। बात बढ़ गयी और पृथ्वीराज चौहान के सामंतों ने युद्घ की धमकी दे डाली। फलस्वरूप भीमदेव ने कलह और कटुता के बीच अपमान का घूंट पीकर अपनी कन्या का विवाह पृथ्वीराज चौहान की खडग़ के साथ कर दिया। इस प्रकार इंद्रावती का विवाह भी अमंगल ही कर गया।
इसके अतिरिक्त संयोगिता का विवाह या स्वयंवर तो हम सबने ही सुना है। उस युद्घ में भी भारत को अपने हजारों लाखों वीर योद्घाओं से हाथ धोना पड़ा था। एक अदूरदर्शी और अहंकारी उच्छ्रंखल राजकुमार ने राजा रहते रहते अपने 27 वर्षीय जीवन काल में ही भारत को पतन के गर्त में धकेल दिया। ऐसा लगने लगा कि जैसे नारीहरण ही भारत के राजाओं के लिए रूचिकर हो गया है, और उनके लिए जीना-मरना उनकी प्रतिष्ठा का प्रश्न हो गया है। वास्तव में इसी परिवेश ने ही भारत को गारत किया। राजनीति अपनी आभा गंवा बैठी और हमारा पराक्रम इतना ढीला पड़ गया कि एक विदेशी आक्रांता का एक दास भारत में शासक बनकर बैठ गया। यह अलग बात है कि भारत के हाथ का दीपक बुझने पर भी उसकी अंतरात्मा का दीपक तब भी प्रज्ज्वलित रहा और भारत की आत्मा में सदा स्वाधीनता की लौ जलती रही। अत: उसने हार नही मानी और अपनी स्वाधीनता के लिए संघर्ष करती रही। पृथ्वीराज चौहान का पराक्रम भी हमारे लिए वंदनीय है, जिसने मौहम्मद गोरी को कई बार परास्त किया था। जिसकी चर्चा हम अगले लेख में करेंगे। यह समय हमारे राष्ट्रीय पराक्रम के भटकाव का समय था, जिस पर प्रकाश डालना आवश्यक था जिससे कि सिक्के के दोनों पक्षों से हम परीचित हो सकें।
मुख्य संपादक, उगता भारत