मनुष्य मननशील प्राणी को कहते हैं। मनुष्य के पास परमात्मा प्रदत्त बुद्धि है जिसका सदुपयोग कर वह उचित व अनुचित तथा सत्य व असत्य का निर्णय कर सकता है। मनुष्य को अपनी बुद्धि की क्षमता बढ़ानी चाहिये। इसके लिये उसे उत्तम व ज्ञानी निष्पक्ष तथा देशभक्त गुरुओं की शरण में जाकर कृतज्ञता एवं श्रद्धापूर्वक शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये। शिक्षा में आचारण की शिक्षा ग्रहण करना व उन सब आचरणों को धारण करना मनुष्य का कर्तव्य व धर्म होता है। ऐसा करने पर ही वह प्रतिष्ठित होता है तथा ईश्वर भी उसके सहायक तथा उसकी शारीरिक, आत्मिक तथा सामाजिक उन्नति में सहयोगी होते हैं। यदि मनुष्य को वेदों के विद्वान शिक्षक न मिले तो मनुष्य का जीवन व उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं होता। मनुष्य अनेक प्रकार के गलत लोगों से जुड़ कर अकर्तव्यों का सेवन भी कर सकता है जिससे मनुष्य की उन्नति होने के स्थान पर उसकी अप्रतिष्ठा सहित जन्म जन्मान्तरों में भी भारी हानि होती है। यदि हम उन्नति करना चाहते हैं तो हमें एक सरल स्वभाव का सत्य का सेवन करने वाला मनुष्य बनना ही होगा। इस आवश्कता की पूर्ति ही वेद व वैदिक ग्रन्थों सहित वैदिक शिक्षा व हमारे आर्ष गुरुकुल करते हैं। हमारे महापुरुष राम, कृष्ण, चाणक्य तथा ऋषि दयानन्द आदि वेद के विद्वान गुरुओं की संगति में ही शिक्षित हुए थे और इन्होंने वेद के सभी गुणों को धारण किया था जिससे आज भी इनका यश विद्यमान है।
इन जैसे महापुरुष संसार के इतिहास में देखने को नहीं मिलते। इन महापुरुषों ने न केवल अपना जीवन श्रेष्ठ व उत्तम बनाया था अपितु देश व समाज की उन्नति व सुख-शान्ति में भी अपना योगदान दिया था। आज भी बाल्मीकि रामायण तथा वेदव्यास जी कृत महाभारत का अध्ययन करने पर हमें श्रेष्ठ जीवन बनाने व समाज व देश के प्रति कृतज्ञता का भाव रखने की प्रेरणा मिलती है।
वेदों की शिक्षा व ज्ञान से मनुष्य सभी सत्य विद्याओं से युक्त होते हैं। ईश्वर व जीवात्मा का सत्यस्वरूप, उसके गुण, कर्म व स्वभाव, मनुष्य के कर्तव्य तथा ईश्वर की उपासना आदि के लाभ हमें वेद एवं वेद के ऋषियों के साहित्य के अध्ययन करने पर ही ज्ञात होते हैं। वेद और वैदिक साहित्य से मनुष्य को जो आध्यात्मिक व सामाजिक ज्ञान मिलता है वह विश्व में विद्यमान इतर साहित्य से वैसा प्राप्त नहीं होता। वेद परमात्मा प्रदत्त ज्ञान है। वेद की सभी शिक्षायें परमात्मा द्वारा मनुष्यों के लिए निर्धारित हैं। परमात्मा ने ही इस संसार व सृष्टि को मनुष्यों वा जीवात्माओं के लिए बनाया है। सृष्टि केवल धन कमाने व सुख भोगने के लिये ही नहीं है अपितु जीवात्माओं के पूर्वजन्मों के कर्मों के सुख व दुःखी रूपी फलों का भोग करने सहित श्रेष्ठ कर्म करने के लिये है जिससे मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं। धर्म से विहीन मनुष्य पशु के समान होता है। मनुष्य के पास बुद्धि है जो मनुष्य को ज्ञान प्रदान कराती व करती है और जिसकी सहायता से मनुष्य उत्तम व श्रेष्ठ कर्मों व आचरणों को धारण करते हैं। ऐसा करके ही मनुष्य स्वयं को पशुओं से श्रेष्ठ व ज्येष्ठ सिद्ध करते हैं। हमें वेदों के आधार पर निर्धारित मनुष्य की परिभाषा पर भी ध्यान देना चाहिये जो ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत की है। वह लिखते हैं कि मनुष्य उसी को कहना चाहिये कि जो मननशील हो कर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्माओं कि चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यों न हों, उन की रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उस का नाश, अवनति ओर अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि ओर न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उसको (मनुष्य को) कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे (उसके) प्राण भी भले ही जावें परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक् कभी न होवे। मनुष्य किसे कहते हैं, इस बारे में वेदों के दृष्टिकोण को ऋषि दयानन्द ने प्रस्तुत किया है। आज तक किसी मनुष्य ने ऋषि दयानन्द के इन विचारों से असहमति व्यक्त नहीं की। इसका अर्थ है कि यह विचार सर्वसम्मत व सर्वस्वीकार्य हैं।
वेदों का अध्ययन करने पर मनुष्य को उसके धर्म का, जो कर्तव्यों के समुच्चय व उनके पालन करने का पर्याय शब्द है, ज्ञान होता है। मनुष्य का धर्म व कर्तव्य वही होते हैं जिससे मनुष्य के जीवन का सर्वांगीण विकास व उन्नति होती है। मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति स्वस्थ बलवान शरीर तथा यथासम्भव आवश्यक सम्पूर्ण ज्ञान को प्राप्त कर होती है। प्राचीन काल में इस स्थिति को प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य हुआ करता था। यह लक्ष्य वेदों के अध्ययन व आचरण से प्राप्त होता है। वेद मनुष्य को सत्य को जानने व उसका आचरण करने की प्रेरणा करते हैं। सत्य का ज्ञान व उसका धारण मनुष्य को विरक्त बनाते हैं। वह जानता है कि उसे आयु बीतने के कुछ समय बाद वृद्ध होना और मृत्यु को प्राप्त होना है। कोई भी मनुष्य अपनी मृत्यु को टाल नहीं सकता। मृत्यु के बाद की स्थिति का अनुमान भी वैदिक धर्म कराता है। इसके अनुसार मृत्यु के बाद अनादि, नित्य व अमर जीवात्मा का परमात्मा की व्यवस्था से मनुष्य के जीवन के कर्मों के आधार पर पुर्नजन्म होता है। यदि मनुष्य ने अच्छे व श्रेष्ठ कर्म किये होते हैं तो उसे मनुष्य जन्म मिलता है अन्यथा पशु, पक्षी आदि नाना प्रकार की नीच योनियों में जाना पड़ता है। ज्ञान व तर्क से विवेचन करने पर यही निष्कर्ष निकलता है। अतः किसी भी मनुष्य के लिये परजन्म में पशु बनना कदापि उचित नहीं होता। इस स्थिति से बचने के लिये ही मनुष्यों को श्रेष्ठ कर्म जिसमें वेदविहित कर्तव्य पालन तथा परोपकार सहित ईश्वर की उपासना, यज्ञ अग्निहोत्र, माता-पिता व आचार्यों आदि ज्ञान व आयु वृद्ध लोगों की सेवा तथा प्राणी मात्र के प्रति दया व करूणा का भाव रखना होता है, करने का विधान है। ऐसा करके हम परजन्म में मनुष्य जीवन प्राप्त करने के अधिकारी बन जाते हैं। अतः सभी मनुष्यों को अपने अपने जीवन में मनुष्य के कर्तव्यों का जो वेद व वैदिक साहित्य में निर्दिष्ट हैं, अवश्य ही पालन करना चाहिये। हमें यह भी जानना चाहिये कि जिस प्रकार देश के संविधान का पालन करना हमारा कर्तव्य एवं दायित्व है उसी प्रकार से हमें ईश्वर के संविधान वेद का भी पालन निष्पाप बनकर अपने पूरे मन, वचन व कर्म से करना चाहिये।
मनुष्य दुःखों से डरता है। वह नहीं चाहता कि उसे जीवन में कभी भी दुःखों को झेलना व सहन करना पड़े। इसके लिये उसे ज्ञान प्राप्ति कर श्रेष्ठ कर्म करना ही एकमात्र विकल्प विदित होता है। दुःखों की सर्वथा निवृत्ति के लिये मनुष्य को ईश्वर को जानकर उसकी उपासना करते हुए अपने सभी कर्म सत्य पर आधारित करने के साथ परोपकार व दान की भावना से किये गये उन सभी कर्मों को परमात्मा को समर्पित करना होता है। ईश्वर की उपासना करते हुए मनुष्य को ईश्वर में ध्यान लगाकर उससे एकाकार होना होता है। ऐसा करते हुए आत्मा के सभी दोष दूर होने पर मनुष्य ईश्वर का साक्षात्कार वा प्रत्यक्ष करता है। यही योग व समाधि का उद्देश्य होता है। ईश्वर के साक्षात्कार करने पर मनुष्य जीवन का लक्ष्य पूरा हो जाता है। वह जीवनमुक्त हो जाता है। उसके सभी क्लेश व दुःख नष्ट हो जाते हैं। मृत्यु के आने तक वह समाधि अवस्था का लाभ लेकर ईश्वर के सान्निध्य में आनन्द को प्राप्त होता रहता है। इस अवधि में वह कोई भी वेद निषिद्ध कर्म नहीं करता है। मृत्यु होने पर ऐसा जीवनमुक्त व्यक्ति जन्म व मरण के चक्र आवागमन से मुक्त होकर ईश्वर को प्राप्त होता है। ईश्वर के सान्निध्य में रहकर आनन्द का भेाग करता है और सुदीर्घकाल 31 नील से अधिक वर्षों तक मुक्त अवस्था का आनन्द भोक्ता है। यही अवस्था सभी जीवों के लिये प्राप्तव्य होती है। इसी के लिये हमारे देश के हमारे पूर्वज ऋषि, मुनि, योगी, ज्ञानी व विद्वान प्रयत्न किया करते थे। ऋषि दयानन्द भी एक ऐसे ही महामानव व मनुष्य थे जिन्होंने मुक्ति के सेवन के लिये वेदों का ज्ञान प्राप्त कर अपने सभी कर्म वेदाज्ञानुसार सम्पन्न किये थे।
वेद मनुष्यों को शिक्षा व पूर्ण विद्या को प्राप्त होकर मुख्यतः पंचमहायज्ञ करने का विधान करते हैं। यह पंचमहायज्ञ सन्ध्योपासना, देवयज्ञ अग्निहोत्र, पितृयज्ञ जिसमें माता-पिता की श्रद्धा भक्ति से सेवा करनी होती है, अतिथि यज्ञ जिसमें निष्पाप समाज हितकारी विद्वानों की श्रद्धा से सेवा करनी होती है तथा बलिवैश्वदेव यज्ञ जिसमें सभी मनुष्येतर प्राणियों को अपना मित्र समझ कर उनके साथ विद्वानों द्वारा निर्धारित सत्य से युक्त व्यवहार व उनके जीवनयापन में सहायक हुआ जाता है। ऐसा मनुष्य धर्म व संस्कृति का अनुगामी तथा पूर्ण देशभक्त होता है। यही गुण हम अपने सभी पूर्वजों में देखते हैं। आज की स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। आज वैदिक कर्तव्यों का पालन करने वाले नागरिकों का देश में सर्वत्र अभाव है। देश व विश्व में सुख शान्ति स्थापित करने के लिये संसार को वेदों की ओर लौटना ही होगा नहीं तो मनुष्य जन्म लेकर अपना यह जन्म व परजन्म बिगाड़ते रहेंगे, सुखों व आनन्द से वंचित रहेंगे तथा परजन्म में उनकी सद्गति न होकर दुर्गति होने की सम्भावना है। हम सच्चे ज्ञानी, स्वस्थ व बलवान मनुष्य बने। ऐसा करना सभी मनुष्यों का कर्तव्य है। इसके लिये हमें वेदमार्ग का अनुसरण भी करना चाहिये। वेदमार्ग ही मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष प्राप्त करा सकता है जो जीवन की सफलता की कसौटी कही जा सकती है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य