विजय मनोहर तिवारी
अबू बक्र अल बगदादी ने अमेरिकी फौज से घिरकर मरने के पहले एक अंधेरी सुरंग में बचने की उम्मीद में पनाह ली थी। लेकिन फौज के साथ आए खूंखार कुत्तों ने उसका पीछा किया और तब वह बचने के लिए भागा। खूब चीखा-चिल्लाया। मुमकिन है रहम की भीख मांग रहा हो, लेकिन धमाकों के शोरगुल में उसकी आखिरी आवाज़ें उसके साथ मारे गए तीन बेकसूर बच्चों के सिवाय कोई नहीं सुन रहा था।
वे बच्चे भी शायद न समझें हों कि किस फसाद में अपनी उम्र पूरी करने के पहले बाप के साथ कुत्ते की मौत मारे जा रहे हैं। उन्हें शायद यह भी पता न हो कि इस्लामिक स्टेट क्या बला है और उसके बाप ने हैवानियत की कैसी मिसालें कायम की हैं। मुमकिन है उन तीनों में से कोई इतना समझदार हो कि उसे बखूबी पता हो कि उसका बाप किस रास्ते पर है और वह रास्ता आखिर में उन्हें कहाँ लेकर आया है!
बगदादी के परिचय में उसकी तालीम का जिक्र सबसे गौरतलब है। उसने एक इस्लामिक यूनिवर्सिटी से इस्लामिक स्टडी में मास्टर की डिग्री के बाद पीएचडी भी कर रखी थी। यानी वह तथाकथित मदरसा छाप पढ़ाई में इस्लाम की तालीम लेकर निकला कोई बंद दिमाग नौजवान नहीं था।
अगर वह इस्लाम के नाम पर सक्रिय आतंक में अपना करिअर न बनाता तो बहुत मुमकिन है कि किसी भी मुस्लिम देश की इस्लामिक यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हो गया होता या इस्लाम के नाम पर भारतीय कारोबारी उपदेशक जाकिर नाइक की तरह कोई इस्लामिक रिसर्च फाउंडेशन या सेंटर बनाकर करोड़ों डॉलर कूट रहा होता। जाकिर नाइक से लेकर ओसामा या बगदादी तक एक बात समान है और वह है- इस्लाम की उनकी अपनी व्याख्या।
दुनिया के करोड़ों शांतिप्रिय मुसलमानों को यह बात बहुत तकलीफदेह लगती है कि इस्लाम को बदनाम किया जाता है। इस्लाम के तथाकथित पैरोकार यह वहम फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ते कि इस्लाम को बदनाम करने की साजिश में पश्चिम के मालदार मुल्कों की मिलीभगत है। भारत में कुछ हद तक यह ठीकरा सांप्रदायिक कहे जाने वाले हिंदू संगठनों पर फोड़ा जाता रहा है।
जबकि हकीकत दुनिया के सामने अब आइने की तरह साफ है। ओसामा, बगदादी, जवाहिरी से लेकर हाफिज सईद, मसूद अजहर, लखवी जैसे हमारे समय के लोग इस्लाम को बदनाम करने के सबसे बड़े गुनहगार हैं। ये सब अपने विषैले विचारों और खूनी कारनामोंं से अच्छी तरह यह साबित कर चुके हैं कि इनमें से किसी के भी रहते 1,500 साल पुराने एक मजहब की शान में चार चांद लगने वाले नहीं हैं। ये ऐसे ही अपयश का कारण बने रहेंगे।
सोशल मीडिया पर बगदादी की मौत की खबर के बाद एक कटाक्ष वायरल हुआ- “बगदादी मारा गया पर किसी इस्लामिक मुल्क से आवाज़ नहीं आई कि हर घर से बगदादी निकलेगा। जबकि भारत की संसद पर हमले के गुनहगार अफज़ल की फांसी पर दिल्ली में ऐसी आवाज़ें सुनाई दी थीं।” कहीं से भी आएँ ये आवाज़ें ही इस्लाम के अपयश का मूल कारण हैं।
बगदादी ने खुद को खलीफा घोषित किया था। आखिरी बार उसे मोसुल की एक मस्जिद में काले लिबास में देखा गया था। उसके बाद एक लहर पैदा हुई थी और भारत में केरल से लेकर कश्मीर के अलावा पश्चिम के देशों के अच्छे-खासे पढ़े-लिखे युवा उसकी इस्लामिक स्टेट की तरफ खिंचे चले गए थे।
इस्लामिक स्टेट ने शरिया कानून के मुताबिक बहुत जोशीली शुरुआत की थी। सीरिया और इराक से जारी होने वाले उनकी बेरहमी के वीडियो देखकर दुनिया कांप गई थी। काफिरों को दंडित करने के लिए ऐसे तरीके इस्तेमाल किए गए थे, मध्य युग में जिनके नृशंस विवरण भरे पड़े हैं। इस्लाम के नाम पर फैलाए गए इस आतंक का भारत से बड़ा भुक्तभोगी दुनिया के इतिहास में कोई नहीं है।
जब आप गूगल पर अबू बक्र का नाम सर्च करेंगे तो कुछ लिंकें इस्लाम के पहले खलीफा के परिचय तक भी पहुँचाएँगी, जो पैगंबर के बाद दो साल तक खलीफा यानी उनके उत्तराधिकारी रहे थे। मुमकिन है कि इस्लाम की ऊँची पढ़ाई के दौरान अपने नाम को लेकर इस बगदादी नाम के अबू बक्र के जेहन में भी खलीफा बनने का ख्वाब चमका हो।
100 साल पहले आखिरी खलीफा को तुर्की से कमाल मुस्तफा पाशा ने बेदखल कर दिया था। तुर्की से खलीफा को भगाने के बाद पाशा ने अपने इस्लामिक मुल्क की तस्वीर ही बदल डाली थी। वह एक आधुनिक और साफ-सुथरी पहचान के साथ दुनिया के सामने आया।
पाशा ने अपने तेज़ रफ्तार सुधारों के तहत सब तरह की मजहबी पहचानों पर बंदिश लगाई। नई मस्जिदों के निर्माण पर रोक के साथ पुरानी मस्जिदों को म्युजियम में बदल दिया, जिनमें से ज्यादातर इस्लाम के आगमन के पहले चर्च हुआ करते थे। पाशा ने जुम्मे के साप्ताहिक अवकाश की जगह रविवार तय किया।
पाशा ने तुर्की भाषा का शुद्धिकरण करके 800 साल के अरबी मिश्रण को दाल में कंकर की तरह छाँटकर अलग करवाया। इसके लिए वह मूल तुर्की पढ़ाने के लिए खुद बच्चों के बीच ब्लैक बोर्ड और चॉक लेकर निकले। उसने कुरान तक का अनुवाद करवाया और अरबी की बजाए तुर्की में कुरान की तालीम की परंपरा शुरू की।
इस बदलाव पर अब तक के तमाम सुधारों को लेकर दुम दबाए बैठे मौलवियों का पारा सातवें आसमान पर जा पहुँचा था। कट्टरपंथियों ने कहा कि यह तो हद है। कुरान तो अरबी में ही पढ़ी जाएगी। पाशा की दलील थी- “वो कैसा अल्लाह है, जो वही बात अरबी में समझेगा और तुर्की में नहीं।”
पाशा ने अल्लाह शब्द का भी तजुर्मा किया। उसने कहा, “बेशक हम इस्लाम के अनुयायी हैं, लेकिन इस्लाम के पहले हम तुर्की हैं। हमारी एक प्राचीन भाषा है। इस्लाम से पुरानी तुर्की संस्कृति है। सामाजिक रीति-रिवाज़ हैं। हम उनसे अलग नहीं हो सकते और उन्हें अपनाते हुए भी हम इस्लाम से अलग नहीं हैं।” सिर्फ 15 सालों में पाशा ने तुर्की में इस्लाम का एक आधुनिक स्वरूप गढ़ दिया। 1,400 साल के दुनिया के इस्लामिक इतिहास में ऐसे साहसी आमूलचूल बदलाव का दूसरा उदाहरण नहीं है।
जब पाशा ने आखिरी सांस ली तो तुर्की के कृतज्ञ नागरिकों ने उन्हें अपना अतातुर्क कहा। अतातुर्क मतलब राष्ट्रपिता या फादर ऑफ नेशन। और जब तुर्की के अतातुर्क ने अपने यहाँ से खलीफा के रूढ़िवादी और कट्टर ढाँचे का खात्मा किया तो भारत में हमारे अतातुर्क महात्मा गांधी ने खिलाफत आंदाेलन चला दिया था।
आज के ज्यादातर कांग्रेसियों को भी खिलाफत आंदोलन की पृष्ठभूमि पता नहीं है और बापू के दूसरे आंदाेलनों की तरह उसे भी वे आज़ादी की लड़ाई का एक आंदोलन ही समझते हैं। बापू ने तुर्की में खलीफा का पद खत्म करने और तत्कालीन खलीफा को तुर्की से बेदखल करने के खिलाफ भारत में यह आंदोलन चलाया था। मतलब वे खुलकर खलीफा की पैरवी में खड़े हो गए थे।
दुनिया के किसी इस्लामिक देश में भी सड़कों पर ऐसा नज़ारा नहीं था, जैसा कांग्रेस के नेतृत्व में भारत में देखा गया। खलीफा की बेदखली ने कांग्रेस को इस आंदोलन के लिए प्रेरित किया था। कांग्रेस की वह निर्लज्ज कोशिश सिर्फ भारतीय मुसलमानों को खुश करने के लिए थी। बारिश इस्तांबुल में हुई थी और बापू ने छाते यहाँ तनवा दिए थे।
मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि हमारे अतातुर्क के पास भारतीय मुसलमानों की बेहतरी के लिए कोई और बड़ा विज़न क्यों नहीं था? यह कितना हास्यास्पद था कि दूर किसी मुल्क में खलीफा को रफा-दफा करने के निहायत ही अंदरुनी मामले में एक ऐसी पार्टी सड़कों पर उतरे, जो खुद आज़ादी की लड़ाई में उलझी थी।
जबकि भारतीय मुसलमानों को न तुर्की से कोई लेना-देना था, न खलीफा की हुकूमत से। वह खलीफा भारत के मुसलमानों की रोजमर्रा की जिंदगी में कहीं किसी भूमिका में था ही नहीं। उसका नाम तक किसी मुसलमान को पता नहीं था। आज भी कोई नहीं जानता।
लेकिन कांग्रेस के इस रुख ने एक बेहद गलत शुरुआत कर दी थी। आज़ादी के बाद अब मुस्लिम समाज की बेहतरी के लिए उसे कोई बड़ी सोच की ज़रूरत नहीं थी। समर्थन हासिल करने के लिए इतना ही काफी था कि उन्हें तात्कालिक तौर पर खुश करो, सत्ता में बने रहो। तुष्टिकरण के इसी घटिया फार्मूले पर कांग्रेस साठ साल तक देश पर काबिज रही।
कुछ राज्यों में खुश करने वाली इसी अल्पसंख्यक राजनीति ने दूसरी सेक्युलर पार्टियों को भी सत्ता का मजा लूटने में मदद की। कश्मीर के घाव भी इसीलिए अब तक हरे बने रहे, क्योंकि किसी के पास कुछ बड़ा कर दिखाने का न माद्दा था, न नीयत थी। चुनावी गणित में मामला फिट जैसे भी हो जाए।
परंपरागत सेक्युलरवादी सियासत में नेताओं को यह जोखिम भी लगता था कि मुस्लिम समाज को जैसा है, वैसा ही रहने दिया जाए। पीवी नरसिंहराव का वह बयान हाल ही में चर्चा में आया, जब उन्होंने शाहबानो केस के समय नाराज़ राजीव गांधी सरकार के एक दानिशमंद मुस्लिम मंत्री को कहा था “हम राजनेता हैं, समाज सुधारक नहीं। अगर कोई गर्त में पड़े रहना चाहता है तो हम क्या कर सकते हैं?”
वैसे राहुल गांधी चाहें तो बगदादी की मौत के बाद भारत में एक और खिलाफत आंदोलन की आज़माइश कर सकते हैं। हो सकता है अफज़ल के पक्ष में उठी आवाजें उनके ऊर्जावान नेतृत्व का इंतज़ार कर रही हों और बेजान हो चुके कम्युनिस्टों और दूसरी बेदम सेक्युलर क्षेत्रीय पार्टियों की मदद से यह आंदोलन एक बार फिर राख हो चुकी कांग्रेस को उसकी पुराने ढर्रे की राजनीति के फार्मूले पर ताकत दिलाने में कामयाब हो जाए-तुष्टिकरण की राजनीति, खुश करो और वोट लो।
अब भारतीय मुसलमानों को भी यह समझ में आया है कि वे जिन्हें अपना मानकर 60 साल से एक लकीर पर चल रहे थे वह आत्मघाती विश्वास ही था, जिसका वोटों की राजनीति में दोहन किया गया। वे बाकी समाज से अलग-थलग कर दिए गए। शिक्षा, स्वास्थ्य, राेजगार में वे लगातार हाशिए पर ही बने रहे।
सेक्युलर साजिश ने इससे भी बड़ा उनका नुकसान यह किया कि कट्टरपंथ और अलगाव को पनपाने में उसने भरपूर खाद-पानी दिया। इस मिलीभगत से चंद मुस्लिम नेताओं और अलगाववादियों के घराने तो फले-फूले लेकिन एक बड़ी आबादी दोयम दरजे के स्तर से ऊपर उठने ही नहीं दी गई। एक बेवजह बदनाम विरासत ही उसके दामन का दाग बनकर सामने आई।
ओसामा या बगदादी के उभार या उसकी माैत पर किसी जमात की तरफ से काेई आवाज़ नहीं आई कि वह इस्लाम की बदनामी के लिए ज़िम्मेदार एक गुनहगार था, जिसने यज़ीदी औरतों को सरेआम गुलाम बनाया, उनके साथ बलात्कार किए गए और बेकसूर लोगों को कैद करके उन्हें बुरी तरह यातनाएँ देकर मारा।
इतना ही नहीं, दुनिया के अमनपसंद लोगों को धमकाने के लिए इन वीभत्स कत्लेआम के वीडियो बनाकर जारी किए गए। बापू के खिलाफत आंदोलन की तरह कोई सड़कों पर यह कहने के लिए नहीं उतरा कि यह इस्लाम का चेहरा नहीं है।
बगदादी हमारा खलीफा हो ही नहीं सकता। वह गुनहगार है। कत्ल, लूट और बलात्कार से बड़ा गुनाह यह है कि वह यह सब इस्लाम के नाम पर कर रहा है। किसी जिलानी, गिलानी, औवेसी, आजम, आजमी ने अकेले या इकट्ठे होकर ऐसा नहीं कहा।
हाँ, कश्मीर में 370 या अयोध्या में राम जन्मभूमि पर वे हर मंच पर विष उगलने के लिए खूब वक्त निकाल पाए। इन सियासी जंतुओं से कोई उम्मीद ही व्यर्थ है। मजहब की भूमिका उनके लिए इतनी ही काफी है कि सियासी उल्लू सीधे होते रहें। कौम भाड़ में जाए।
सवाल यह है कि क्या इसके लिए सेक्युलर पार्टियाँ या कठमुल्ले ही कुसूरवार हैं? इस्लामी जगत के मशहूर विद्वान मौलाना वहीदुद्दीन ने मुस्लिम समाज के लिए लुभावनी सरकारी नीतियों पर एक बार कहा था कि सियासी पार्टियों के वादे या सरकारी मदद कुछ लोगों को तो फायदे दे सकती है लेकिन किसी कौम में बड़ा सुधार या बदलाव नहीं ला सकती।
किसी भी कौम को खुद को बदलने की शुरुआत खुद ही करनी होती है। उसे सब तरह की धूल झाड़कर खुद ही उठ खड़ा होने की ज़रूरत होती है। भारत के बहुसंख्यक अमनपसंद मुसलमानों को ज़रूर यह सोचने का समय है कि देश-दुनिया में इस्लाम की बदनामी के असल ज़िम्मेदार कौन हैं और उनसे कैसे छुटकारा पाया जाए?