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सुख की इच्छा पर दार्शनिक विचार

सुख की इच्छा

(दार्शनिक विचार)

संसार में हर व्यक्ति सुख का अभिलाषी है। कोई भी व्यक्ति दुःखी नहीं होना चाहता एवं सदा सुख में वास करना चाहता है। दुःख त्रिविध आधिदैविक (मन, इन्द्रियों के विकार , अशुद्धि, चंचलता आदि से उत्पन्न दुःख), अधिभौतिक (अन्य व्यक्तियों द्वारा अथवा शीत, ताप,वर्षा, भूकम्प, बाढ़ आदि प्राकृतिक दैवी घटना रूपी दुःख) एवं आध्यात्मिक (शरीर के ताप आदि दुःख) है। सुख भी दो प्रकार के है। अभ्युदय एवं नि:श्रेस्य। अभ्युदय (सत्य विद्या की प्राप्ति से अभ्युदय अर्थात चक्रवर्ती राज्य, इष्ट मित्र, धन, पुत्र, स्त्री और शरीर से उत्तम सुख का होना) एवं नि:श्रेस्य (मोक्ष रूपी महान सुख) को कहते है। अभ्युदय सुख संसार में सर्वत्र है। प्राणी अपने परिश्रम से जीवन में उसका उपभोग करता है। कोई भी प्राणी इसका त्याग नहीं करना चाहता मगर एक न एक दिन इच्छा न होते हुए भी मनुष्य को इसका त्याग करना पड़ता है क्यूंकि यह अनिवार्य नियम है। इसी अभ्युदय से होकर नि:श्रेस्य का मार्ग जाता है। जो इस जड़ जगत के अंतिम परिणाम एवं देह आदि को नश्वर मानता है, देह को सजाने एवं वासना से निर्लिप्त होकर जन्म-मरण के चक्र से निकलने की सोचता है वही नि:श्रेस्य मार्ग का पथिक बनता है। जीवात्मा प्रकृति और परमात्मा के मध्य फँसा है। प्रकृति की और अल्पज्ञ होने के कारण उसका झुकाव अधिक रहता है।
आये मिलकर उन महान प्रभु कि उपासना करे जिनके महान प्रताप से इतना सुन्दर जीवन मिला और जीवन के लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने का लक्ष्य निर्धारित करे।

#डॉ_विवेक_आर्य

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