कैसे हो भारत में देवतुल्य गौ और गोवंश की सुरक्षा-भाग-1
(पिछले दिनों 29 दिसंबर को राजस्थान के नागौर जिले के कुचामन सिटी में गौ रक्षा अधिवेशन का आयोजन गौ-पुत्र सेना के तत्वावधान में किया गया। जिसमें लेखक को मुख्य वक्ता के रूप में बोलने के लिए आमंत्रित किया गया। प्रस्तुत लेख उसी अधिवेशन में दिये गये भाषण और चिंतन पर आधारित है, इसका पहला भाग हम इस अंक में दे रहे हैं-संपादक)
गौ सभी चौपायों में श्रेष्ठ प्राणी है। इसकी सर्वश्रेष्ठता के विषय में भारत का प्राचीन साहित्य रंगा पड़ा है। इसके दिव्य गुणों के दृष्टिगत विद्वानों ने इस अदभुत प्राणी को गौ माता कहा है। पर आज गाय के प्राण संकट में हैं। गोवंश के अस्तित्व के लिए भारी संकट है। आइए, हम कुछ उन प्रयासों पर विचार करें, जिन्हें अपनाकर देव पशु गौमाता के वंश की रक्षा की जानी संभव हो सकती है।
ब्रजमण्डलों की स्थापना की जाये
संस्कृत का व्रज शब्द गौओं के बाड़े का समानार्थक है। इस व्रज से ही ब्रजमण्डल शब्द उदभूत हुआ है। व्रज से ही वर्जित, वर्जन, वर्जनीय बरज, बरजना शब्द बने हैं। ये सारे शब्द निषेधात्मक अर्थों की उत्पत्ति करते हैं। बाड़ा व बाड़ भी हमें ऐसे ही अर्थ देते हैं। बाड़ा और बाड़ व्रज शब्द से ही बने हैं जो रोकने के या निषिद्घ करने के अर्थों में ही प्रयुक्त होते हैं।
प्राचीन काल में गौओं के लिए विशाल भूक्षेत्र चरने के लिए छोड़ा जाता था। जिसे ‘व्रजमण्डल’ कहा जाता था। मथुरा के पास ब्रजक्षेत्र कभी ऐसा ही एक ब्रजमण्डल हुआ करता था। इस ब्रजमण्डल में खेती करना या आवासीय गतिविधियां करना पूर्णत: निषिद्घ था। केवल गायों के लिए ही उपयोग की जाती थी। कालांतर में राजस्व अभिलेखों में अंकित गोचर या चरवाहा की प्रविष्टि वाली भूमि कभी के ब्रजमण्डल की समानार्थक बन गयी। विशाल व्रजमण्डलों के कई लाभ होते थे, यथा व्रजमण्डलों में चरने वाली गायों का दूध अत्यंत उत्तम कोटि का होता था। वह एक प्रकार की औषधि का ही रूप होता था। क्योंकि विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों को खा-खाकर उनके रसतत्व से निर्मित जिस दूध को हम गाय से लेते थे वह हमारे रोगों को शांत करता था और हममें बल, ओज एवं तेज की वृद्घि करता था।
ब्रजमण्डलों में विचरण करने वाली गायों के गोमय के सूखने पर बनने वाली आरूणियों से हमें ईंधन प्राप्त होता था, उस ईंधन से हमें पका हुआ भोजन प्राप्त होता था। आज के वैज्ञानिकों ने सिद्घ कर दिया है कि हमें गैस चूल्हों से मिलने वाले भोजन की अपेक्षा प्राकृतिक ईंधन गोमय तथा लकडिय़ों आदि से बनने वाला भोजन स्वास्थ्य की दृष्टि से कहीं अधिक उत्तम होता है। आजकल गैस चूल्हों पर रोटियों को भी गृहिणियां सामान्यत: गैस पर ही सेंकती हैं, जिससे गैस की दुर्गंध रोटियों में घुस जाती है और वह हमारे पेट में जाकर रोगोत्पत्ति का कारण बनती है। जबकि गोमय के उपलों की अग्नि से पका भोजन नितांत शुद्घ और पवित्र होता था।
ब्रजमण्डलों में घूम घूमकर गायें स्वयं भी स्वस्थ रहती थीं। उनके वत्सादि (बछड़े आदि) उन व्रजमण्डलों में स्वतंत्र विचरण करते थे। जिससे वह स्वस्थ रहते थे।
ब्रजमण्डलों से उन गृहस्थियों के दुग्धादि की आपूर्ति सुनिश्चित की जाती थी जो या तो स्वयं दुर्बल थे अथवा किसी भी कारण से गौ पालन के महत्वपूर्ण दायित्व के निर्वाह को निभा नही पाते थे।
सामाजिक समरसता की संरचना में सहायक गायें
गायों से सामाजिक समरसता उत्पन्न होती है। बड़े-बड़े ब्रजमण्डलों में रहने वाली गायों के दुग्ध, दधि, छाछ-लस्सी आदि को निर्बल वर्गीय लोगों में नि:शुल्क वितरित कर दिया जाता था। आज भी भारत के ग्रामीण आंचलों में छाछ, लस्सी गोदुग्ध से बनने वाली खीर को नि:शुल्क वितरित करने की परंपरा है। भारत के ग्रामीण अंचलों में आज भी अमावस्या के दिन खीर अवश्य बनायी जाती है, और ऐसे घरों में खीर अवश्य पहुंचायी जाती है, जिनमें किसी भी कारण से खीर बन नही पायी हो। यह भावना सामाजिक समरसता को उत्पन्न करती है, जिससे समाज में सहचर्य और सदभाव में वृद्घि होती है।
कैसे हों ब्रजमण्डल
आज हमें पुन: विशाल व्रजमण्डलों की स्थापना करनी चाहिए। इन ब्रजमण्डलों में उत्तम नस्ल की गायों को रखने तथा उनके चरने एवं टहलने की उचित व्यवस्था होनी चाहिए। इन ब्रजमण्डलों में देशी उत्तम प्रजाति की गायों को संरक्षण मिले। उनकी चिकित्सा आदि की भी उचित व्यवस्था हो। ब्रजमण्डलों में ही गोमूत्र को एकत्र करने तथा उसे शोधित कर मानव के लिए औषधि रूप में संरक्षित करने की व्यवस्था हो। इससे बहुत से लोगों को रोजगार तो मिलेगा ही गौसंरक्षण को भी प्रोत्साहित किया जा सकेगा, साथ ही हम स्वस्थ भारत के अपने सपने को भी साकार रूप दे सकेंगे।
गौ-शालाओं की दयनीय स्थिति
आजकल देश में यूं तो बहुत सी गौशालाएं कार्यरत हैं, परंतु वे सभी गौशालाएं बहुत ही छोटे छोटे क्षेत्रों में चल रही हैं। गौशालाओं में भीतर ही भीतर गोचर भूमि तो संभवत: कहीं भी किसी के भी पास उपलब्ध नही होगी। छोटी छोटी गौशालाओं में भेड़ बकरियों की भांति गायें ठूस रखी हैं। जिससे वे बेचारी, नारकीय जीवन जी रही हैं। अधिकांश गौशालाओं में रहने वाली गायें दुर्बल और अशक्त सी दीखती हैं। कारण कि उन्हें खुलापन नही मिल पाता। जबकि गायें खुलापन चाहती हैं। यूं तो हर प्राणी जन्मना खुलापन का समर्थक है, परंतु चौपायों में गाय और दोपायों में मनुष्य खुलेपन के कुछ अधिक ही समर्थक हैं। क्योंकि ये दोनों ही बुद्घिमान होते हैं, मनुष्य ने अपनी बुद्घि का कुछ अधिक विस्तार किया है। इसलिए गाय और मनुष्य दोनों ही ‘स्वराज्य’ के पोषक हैं। इनके स्वराज्य को प्रतिबंधित करते ही इनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसीलिए गायें वर्तमान गौशालाओं में प्रतिबंधित जीवन जी रही है। उनके जीवन से स्वराज्य और स्वतंत्रता दोनों ही नष्ट हो गयी है। हां, गौशालाओं से कुछ लोगों के आर्थिक हित अवश्य पूर्ण हो रहे हैं। सरकारों से मिलने वाले लाभों को अवश्य ये लोग ले रहे हैं। साथ ही लोगों की आस्था और गौभक्ति को भी भुनाकर अपने ऐश्वर्य पर व्यय कर रहे हैं। सरकार की ऐसी बहुत सी योजनाएं हैं जिन्हें वह जनहित के नाम पर चलाती है और उनके लिए धन भी आवंटित करती है, परंतु वह धन सही रूप में कहीं व्यय भी हो रहा है या नही ये देखने का किसी के पास समय नही है। इसलिए सरकार के मध्यस्थ अधिकारी और फर्जी गौशालायें चलाने वाले लोग ऐसे धन को चट कर जाते हैं।
बहुत कुछ सुधार की आवश्यकता है
हम गायों के लिए आधुनिक गौशालाओं को अनुपयुक्त मानते हैं। ये गौशालाएं उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही हैं। हम प्रकृति का उद्यान बने ब्रजमण्डलों की स्थापना के समर्थक हैं। ऐसे ब्रजमण्डल जिनमें हरियाली भी हो, पेड़ पौधे भी हों, विभिन्न वनस्पतियां भी हों, पक्षियों की चहचाहट भी हो। हमारा हरियाली से यहां अभिप्राय गौओं के चरने के लिए उत्पन्न की जाने वाली घास से है। क्योंकि विभिन्न वनस्पतियों को चरने से ही गाय का दूध घृतादि उन वनस्पतियों के रस से अमृत तुल्य बन जाते हैं। एक ही स्थान पर बंधी गाय को भूसा और चोकर खिलाते रहने से उसका दूध उतना उपयोगी नही होता, जितना चरने वाली गाय का होता है। हमारे पूर्वजों ने इसीलिए गायों को चराने की खोज की थी। जो लोग गायों को चराने का उद्यम करते थे या करते हैं वो आज हमारे लिए चाहे कितने ही उपेक्षित क्यों न हो गये हों, परंतु उनके विषय में ये सत्य है कि वो ग्वाले पूरे समाज की स्वास्थ्य सेवा के लिए जीवन होम करने वाले सेवा भावी ‘मिशनरी’ लोग हुआ करते थे। उन स्वैच्छिक स्वास्थ्य मिशनरियों की सेवा भावना को हमारे कुछ प्रगतिशील लोगों ने आधुनिकता के नाम पर उपेक्षित कर दिया है। वैसे भी ये समय वो है जिसमें देशी भोजन, देशी भूषा, देशी भाषा, देशी भाव और देशी लोगों को उपेक्षित किया जाना ही अच्छा माना जाता है। कभी वो भी समय था जब इस देश में ग्वालों को अपने घर में भोजन कराना पुण्य कार्य माना जाया करता था। वह हमारे लिए करते थे और हम उनके लिए।
‘ग्वाला-संस्कृति’ पुन: विकसित हो
यदि हमारे यहां पुन: ‘ग्वाला-संस्कृति’ विकसित कर ली जाये तो बहुत सी स्वास्थ्य समस्याओं का तथा सामाजिक विसंगतियों का समाधान खोजा जा सकता है। गायों के ब्रजमण्डलों में पंचगव्य उत्पादन का कार्य एक उद्योग के रूप में स्थापित कर आरंभ किया जाए। देश के कुछ स्थानों को चिन्हित कर पहले यह कार्य परीक्षण के रूप में आरंभ किया जा सकता है। कालांतर में इसके अच्छे परिणाम आने पर इसे विस्तार दिया जा सकता है। यह सर्वमान्य सत्य है कि एलोपैथिक चिकित्सा प्रणाली देश के लोगों के लिए घातक सिद्घ हो चुकी है और देश के अधिकांश लेाग इस चिकित्सा प्रणाली से मुक्ति भी चाहते हैं, तब देश के लोगों के स्वास्थ्य की गारंटी के रूप में पंचगव्य के प्रति लोगों की श्रद्घा उत्पन्न की जानी आवश्यक है।
गाय को खुला छोडऩे के पीछे का तर्क
कई लोगों की मान्यता है कि गाय हमारी माता है तो उसे बाजारों में दुर्गंधित पदार्थ खाने के लिए क्यों खुला छोड़ा जाता है? निश्चित रूप से इस मान्यता में बल है। परंतु जो लोग गाय को खुला छोड़ते हैं, उनकी मानसिकता और सामाजिक परिवेश पर भी चिंतन किया जाना उपेक्षित है। गाय को खुला छोड़ा जाता है इसलिए कि भारतीय समाज अभी भी अपने इस पुराने संस्कार से उबर नही पाया है कि गाय को चरने के लिए खुला छोड़ा जाना आवश्यक है। यह अलग बात है कि गाय को चरने के लिए खुला छोडऩे वाले लोग ये भूल गये कि उसे खुला क्यों छोड़ा जाता है, और खुला छोडऩे के लिए उपयुक्त स्थान क्या है? रूढि़ के पीछे एक सदपरंपरा खड़ी है उसे पहचानने की आवश्यकता है, और उसी के प्रति लोगों में जागरण किया जाना अपेक्षित है।
विज्ञापन युग में गाय
दूसरी बात ये है कि आज बाजारों में हमारे स्वास्थ्य के लिए नये नये टॉनिक आ रहे हैं। यद्यपि ये दवायें या टॉनिक हमारे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं, परंतु इसके उपरांत भी लोगों में और विशेषत: युवाओं में उनके प्रति विशेष आकर्षण है। कारण कि आजकल विज्ञापनों का युग है और कहा जाता है कि जो दिखता है वही बिकता है। इसलिए कंपनियां अपने-अपने उत्पादों को बार-बार टी.वी. चैनलों पर दिखा-दिखाकर युवा वर्ग को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हो जाती हैं। फलस्वरूप युवा मन उधर को बहक जाता है। अब गाय क्योंकि टी.वी. चैनलों पर दीखती नही है, इसलिए उसके प्रति श्रद्घाभाव उत्पन्न नही होता। अत: उसे विदेशी कंपनियों ने भारतीय युवा वर्ग में केवल एक पशु मानने का भाव स्थापित कर दिया है। इसी मानसिकता और सामाजिक परिवेश में गाय उपेक्षित है।
गाय से महत्वपूर्ण कुत्ता
आज कुत्तों को पाला जा सकता है परंतु गाय को नही। यह प्रवृत्ति बहुत ही घातक है। हमारे शयन कक्षों में कुत्ता सोता है, वह दुर्गंधित मल-मूत्र करता है, उसकी लार हमारे लिये प्राणघातक होती है, इसके उपरांत भी हम कुत्तों से प्यार करते हैं और गाय के प्रति उपेक्षा का प्रदर्शन करते हैं। प्रगतिवादी होने के नाम पर ऐसा प्रदर्शन उचित नही कहा जा सकता। कुत्ता और गाय दोनों की प्रवृत्ति, प्रकृति एवं उपयोगिता में भारी अंतर है। अच्छा हो कि राष्ट्रवादी चिंतनधारा को प्रवाहित करने वाले टी.वी. चैनल गौमाता के द्वारा प्रदत्त पंचगव्य के महत्व पर विशेष प्रकाश डालें और विदेशी कंपनियों के कुचक्रों से देश के युवा वर्ग को सावधान करें। यह देश देव संस्कृति का देश है जो दैवीय गुणों से संपन्न गाय को नमन करता है। इसका कुत्ता संस्कृति सेे कोई संबंध नही रहा, कु त्ता संस्कृति के प्रति हमें लालायित किया जा रहा है जिससे हम अपनी दैवीय संस्कृति को भुलायें, और विदेशियों को यहां अपने उत्पादों को बेचने का अवसर मिले। सचमुच घातक षडय़ंत्र को समझना होगा।
गोधन विकास मंत्रालय की आवश्यकता है
इसके लिए देश में पशुधन विकास मंत्रालय की नही अपितु गोधन विकास मंत्रालय को स्थापित करने की आवश्यकता है। ‘पशुधन विकास मंत्रालय’ तो धर्मनिरपेक्षता की छद्म नीतियों ने देश को बहुत क्षति पहुंचाई है। अच्छा यही होगा कि हम ‘गोधन विकास मंत्रालय’ की स्थापना करायें। ‘गोधन विकास मंत्रालय’ टी.वी. चैनलों पर तथा समाचार पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से लोगों में गाय के प्रति श्रद्घा भाव उत्पन्न करें। लोगों को समझाया जाए कि गाय हमारे लिए कितनी उपयोगी है? इसके साथ सहचर्य स्थापित करने की आवश्यकता है, ना कि इसके वंश को समाप्त करने की। परिणाम बहुत ही उत्साहवर्धक आएंगे।
ब्रजमण्डल देंगे रोजगार
ब्रजमण्डल रोजगार के साधनों के रूप में विकसित किये जा सकते हैं। इनके माध्यम से करोड़ों लोगों को रोजगार मिल सकता है। आज की शिक्षा प्रणाली ने भारत के परंपरागत रोजगारों को उजाड़ा है और इतना ही नही अपितु पढ़े लिखों को भी बेरोजगार बना दिया है।
बी.ए., एम. ए. आदि किये हुए लड़के लड़कियां सड़कों पर धक्के खाते घूम रहे हैं। यदि शिक्षा ही रोजी-रोटी का एकमात्र माध्यम होती तो इन लड़के लड़कियों की ये स्थिति ना होती। ब्रजमण्डलों में गायों की सेवा सूश्रषा के लिए अधिक पढ़े लिखे लोगों की आवश्यकता नही होगी। उन्हें प्रशिक्षण भी नौकरी का नही अपितु सेवा भावना का, लोकोपकार का दिया जाएगा। उनकी सेवा भावना के बदले में उनकी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति समाज अथवा सरकार स्वयं करे। ब्रजमण्डलों में कार्यरत लोगोंं को श्रमिक नही अपितु ‘समाजसेवी’ जैसा सम्मान सूचक संबोधन दिया जाएड्ड। श्रमिक शब्द ने तो व्यक्ति की गरिमा को अपमानित करने का ही काम किया है।
देश में गोदुग्ध क्रांति के लिए व्यापक कार्ययोजना तैयार की जाए। प्रति पांच व्यक्तियों के लिए पीछे दुग्धादि की पूर्ति के लिए एक गाय की व्यवस्था की जाए। यदि ऐसी योजना बनती है तो देश में 25 करोड़ गायों की आवश्यकता 125 करोड़ की जनसंख्या के लिए पड़ेगी और यह पडऩी भी चाहिए। जबकि देश में इस समय ढाई तीन करोड़ गायें भी नही हैं। मांसाहार के बढ़ते प्रचलन ने कितने लोगों का रोजगार छीन लिया है और हमारे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक गौमाता के अस्तित्व के लिए कितना भारी संकट इस समय है? तनिक गंभीरता से विचारने पर आत्मा मारे पीड़ा के कराह उठती है। 25 करोड़ गायों की सेवा सुश्रूषा के लिए यदि प्रति पांच गाय पर एक समाजसेवी नियुक्त किया जाए तो 5 करोड़ समाजसेवियों (वो भी अशिक्षित) की आवश्यकता पड़ेगी। इन पांच करोड़ समाजसेवियों के परिवारों में औसतन पांच व्यक्ति भी माने जाएं तो लगभग 25 करोड़ लोगों को ही अपनी आजीविका का या पेट पालने का अवसर उपलब्ध हो जाएगा। इसके अतिरिक्त विशाल ब्रजमण्डलों में पंचगव्य से निर्मित खाद्य पदार्थों को बनाने और कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए जैविक खाद बनाने वाले समाजसेवी अलग से नियुक्त किये जाएंगे इनकी शिक्षा अधिक से अधिक 10वीं भी होगी तो भी काम चल जाएगा।
इनकी संख्या भी लगभग पांच करोड़ ही हो सकती है। जिनसे 25 करोड़ की जनसंख्या लाभान्वित होगी। इसके साथ ही ब्रजमण्डलों से निकलने वाले बछड़ों से पुन: खेती का कार्य यदि आरंभ कर दिया जाए तो देश के लगभग 5 करोड़ किसान परिवारों को उनसे रोजगार मिल जाएगा। जिससे 25 करोड़ की जनसंख्या को पुन: लाभ होगा। बैलों से ही हम बाजारों में सामान को इधर उधर ले जाने का कार्य कर सकते हैं। उससे लाभ लेने वाले लोग अलग होंगे, साथ ही इतनी गायें के लिए चिकित्सकों की आवश्यकता भी लाखों में होगी और गौवंश को सुधारने व उत्तम खेती के उपाय जैविक खादों के माध्यम से बताने वाले वैज्ञानिकों की आवश्यकता भी होगी, वह सब अलग है। इसलिए गोधन विकास मंत्रालय मानव संसाधन विकास मंत्रालय से भी भारी होगा। जिसकी ओर देशकी आधी से अधिक जनसंख्या बड़े ध्यान से देख रही होगी।
बैलगाड़ी को जहां उपयुक्त हो सकता है, वहां प्रचलन में लाया जाना चाहिए। हम सड़कों पर बैलगाडिय़ों के प्रयोग के लिए एक अलग पंक्ति या गलियारा बना सकते हैं, या बड़े-बड़े शहरों में कुछ विशेष गलियों को उनके आने जाने के लिए निश्चित कर सकते हैं।
गाय सबको रोजगार देती है
जैसे एक जे.सी.बी. सैकड़ों लोगों का रोजगार छीन लेती हैं वैसे ही बड़ी-बड़ी कंपनियां सैकड़ों लोगों को रोजगार देकर भी हजारों को बेरोजगार कर देती हैं। जबकि गाय सभी के लिए रोजगार देती है, सम्मान देती है और जीवन को उच्च बनाने की प्रेरणा देती हैं। आवश्यकता कार्य योजना को मूत्र्तरूप देने की है। सर्वप्रथम तो ढाई से 25 करोड़ गाय कैसे तैयार की जायें-प्राथमिकता यही होनी चाहिए।
देश में श्वेत क्रांति के माध्यम से देश का मानचित्र बदल देने की आवश्यकता है। उसके लिए गाय हमारे लिए सबसे अधिक सहायक है।
देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ गाय को बना दो- हर जगह गाय दिखाई देने लगे-सारा देश और सारा परिवेश गऊमय हो जाए, तो उस परिवेश से जो संगीत निकलेगा वास्तव में तो वही हमारा ‘राष्ट्रगान’ होगा। परंतु वह राष्ट्रगान हमसे बहुत बड़े पुरूषार्थ और उद्यम की अपेक्षा करता है।
वस्तुत: वही होगा हमारे सपनों का – ‘उगता भारत’।
मुख्य संपादक, उगता भारत