धर्म व्यर्थ है दया बिन, यही शास्त्र का सार
जिस प्रकार कुत्ता अपनों को अर्थात कुत्ते को देखकर द्वेष करता है, गुर्राता है, गैरों को देखकर दुम हिलाता है। ठीक इसी प्रकार की प्रवृत्ति दुष्ट
जैसे तिलों में तेल है,
और लकड़ी में आग।
हृदय में सांई बसै,
जाग सके तो जाग ।। 488।।
ज्ञान व्यर्थ है कर्म बिन,
बिना पति के नार।
धर्म व्यर्थ है दया बिन,
यही शास्त्र का सार ।। 489।।
बुढ़ापे में पत्नी गई,
धन लें बंधु छीन।
भोजन आश्रित अन्य पै,
महादुख हंै तीन ।। 490।।
बिन श्रद्घा भक्ति नही,
भय बिन होय न प्रीत।
रिश्ते में गर रस नही,
तो काहे का मीत।। 491।।
यहां रस से अभिप्राय-प्रेम से है।
दया के जैसा धर्म ना,
तृष्णा जैसा रोग।
शांति जैसा तप नही,
समझें ज्ञानी लोग ।। 492।।
तृष्णा वैतरणी नदी,
कामधेनु है ज्ञान।
नंदन वन संतोष है,
क्रोध है काल समान ।। 493।।
ज्ञान अर्थात – विद्या
कुल की शोभा शील से,
धन का सदुपयोग।
रूप की शोभा गुणों से,
कठिन मिले संयोग ।। 494।।
शील से अभिप्राय अच्छे आचरण से है।
मांस का भक्षण करें,
और करें सुरापान।
ये दो पाये पशु हैं,
पृथ्वी पै भार समान ।। 495।।
क्रमश: