सावरकर और हिन्दू महासभा
दिनेश चंद्र त्यागी
हिंदू महासभा के अखिल भारत संगठन की स्थापना सन 1915 में हरिद्वार में हुई। उस समय वीर सावरकर और भाई परमानंद दोनों ही अण्डमान की जेल में बंद थे। 1920 में भाई परमानंद को अण्डमान से मुक्ति मिली। कुछ ही समय बाद भाईजी अखिल भारत हिंदू महासभा में जुड़ गये। 1921 में स्वातंत्रयवीर सावरकर जी को भी अण्डमान की जेल से मुक्त कर दिया गा किंतु इधर लाकर भी रत्नागिरि जेल में उन्हें 1924 तक रखा गया। 1924 में जेल से बाहर आ गये किंतु रत्नागिरि जिले से कहीं बाहर जाने और साथ ही राजनीतिक गतिविधियों पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था। सावरकर जी पर 1924 से 1937 तक यह स्थानबद्घता बनी रही। 1937 में वे पूर्ण स्वतंत्र हो सके। सावरकर जी को अपना मार्ग निश्ति करना था। कांग्रेस की ओर से उन्हें आग्रह किया गया कि वे कांग्रेस का नेतृत्व संभालकर देश को दिशा दें। किंतु सावरकर किसी और ही मिट्टी के बने थे, वह किसी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए येन केन प्रकारेण अपने व्यक्तित्व की चमक दमक स्थापित करने वाले नेता नही थे अपितु किसी महान ध्येय की पूर्ति के लिए उनकाा व्यक्तित्व ढला था। भाई परमानंद 1920 में अण्डमान कारावास से मुक्ति के बा निरंतर हिंदू महासभा से जुड़े रहे। भाई जी 1924 से 1937 के मध्य सावरकर जी की स्थानबद्घता के दिनों में भी उनसे भेंट कर चुके थे। हिंदुत्व पथ के ये दोनों अनथक यात्री फिर भला पृथक मार्ग कैसे अपना सकते थे।
अत: सावरकर जी ने निर्णय किया कि हिंदू महासभा का कार्य अंगीकृत करना ही श्रेयस्कर है। गांधी और नेहरू के निमंत्रण को सावरकरजी ने ठुकरा दिया और भाई परमानंद के निमंत्रण को स्वीकार कर उन्होंने हिंदू महासभा को ही अपना जीवन कार्य मान लिया।
दिसंबर 1937 में आयोजित किये गये अहमदाबाद अधिवेशन में हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर स्वातंत्रयवीर विनायक दामोदर सावरकर जी प्रतिष्ठित किये गये। तदनंतर 1942 तक 6 वर्ष पर्यन्त में अध्क्ष पद को सुशोभित करते रहे।
1965 में एक पत्रकार द्वारा यह पूछे जाने पर कि आपने कांग्रेस में जाने का मार्ग क्यों नही चुना था? सावरकरजी का उत्तर था, मैं यदि कांग्रेस में चला जाता था तो जल बिन तड़पती मछली जैसी मेरी स्थिति को जाती। वहां चरखा और अहिंसा के नारे लगाते हुए आजादी प्राप्त करने के लिए बिल बिलाने वाले मेमनों के काफिलों में मुझे रह जाना पड़ता। जिस तरह सुभाषचंद बोस को कांग्रेस छोडऩी पड़ी, उसी तरह मैं भी कांग्रेस से अलग हो जाता। मुझे अपने विवेक को गिरवी रखना पड़ता। हिंदुत्व तथा हिंदू राष्ट्र की संकल्पना के साथ गद्दारी करनी पड़ती। आज मुझे कम से कम इतना तो संतोष है कि मैं देश के बंटवारे का सांझीदार नही हूं। संभवत: आगामी पीढिय़ों को विश्वास हो जाएगा कि मैंने देश और देशवासियों की सेवा श्रद्घापूर्वक की।
भारतीय जनसंघ और हिंदू महासभा
1942 में जब डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने हिंदू महासभा छोड़कर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सहयोग से भारतीय जनसंघ की स्थापना की तो वे सावरकर जी का आशीर्वाद लेने बंबई पहुंचे। उन्होंने डा मुखर्जी से भारतीय जनसंघ तो कांग्रेस ही दूसरा संस्करण है-भारतीय अर्थात इंडियन, जन अर्थात नेशन, संघ अर्थात कांग्रेस। इस प्रकार भारतीय जनसंघ का दूसरा शाब्दिक संस्करण बनेगा-भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस यदि आपको मुस्लिमों व ईसाइयों के लिए अपनी पार्टी के द्वार खोलने हैं तो फिर कांग्रेस में काम करना क्या बुरा है और यदि केवल हिंदुओं के लिए काम करना है तो फिर हिंदू महासभा ही क्यों नही? आज आपने नाम बदला है तो कल को काम भी बदल देंगे।
ऐसा था सावरकर जी का हिंदू महासभा के प्रति दृढ़ आग्रह।
राजर्षि पुरूषोत्तम दास टण्डन तथा सावरकर जी
पं. नेहरू ईष्र्याजन्य व्यवहार और गांधी जी द्वारा उसे ज्यों का त्यों स्वीकार करते रहने के कारण एक दिन ऐसा भी आया जब टंडन जी को कांग्रेस के अखिल भारतीय अध्यक्ष पद से त्याग पत्र देना पड़ा और उन्हें कांग्रेस में पूर्णत: निष्क्रिय बना दिया गया। टण्डन जी की इच्छा हुई कि कांग्रेस त्यागकर हिंदू महासभा का वरण करें। श्री बिशनचंद्र सेठ (बाद में हिंदू महासभा के टिकट से दो बार सांसद बने) के माध्यम से टण्डन जी ने बंबई जाकर सावरकर जी से उनके निवास पर भेंट की। तीन घंटे लंबी वार्ता चली। टंडन जी का कहना था कि मैं नेहरू के साथ कांग्रेस में कार्य नही कर सकता, आप के साथ प्रसन्नता से राष्ट्रीय स्तर पर कार्य करूंगा, परंतु महात्मा गांधी की हत्या के कारण हिंदू महासभा का नाम-छवि प्राय: नष्ट हो गयी है-अत: आप संस्था का नवीन नाम रख दें। इस पर सावरकर जी का स्पष्ट उत्तर था कि इस राजनैतिक संस्था का नाम ही तो उसकी सच्ची पहचान है। अत: नाम परिवर्तन का प्रश्न किसी प्रकार भी संभव नही बनता। इस मौलिक विरोध पर वार्ता समाप्त हो गयी।
हिंदू महासभा में मुस्लिमों व ईसाईयों के प्रवेश पर सावरकर जी के विचार
डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के मन में यह संकल्प उठा कि यदि हिंदू महासभा के द्वार अहिंदुओं के लिए भी खोल दिये जाएं तो कांग्रेस का विकल्प हिंदू महासभा को बनाया जा सकता है। उस समय राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ ने पूरा सहयोग डा. मुखर्जी को प्रदान किया। डा. मुखर्जी ने अपने विचार महासभा के वरिष्ठ नेताओं के सामने रखे। लंबी मंत्रणाएं हुई, कई बैठकें चलीं, किंतु हिंदू महासभा ने डा. मुखर्जी के विचार को अमान्य कर दिया। इसके पश्चात डा. मुखर्जी ने हिंदू महासभा से त्यागपत्र देकर संघ के सहयोग से नवीन राजनैतिक संस्था बनाने का निश्चय किया।
हिंदू महासभा एक मंदिर है-सावरकर
हिंदू महासभा को सावरकर जी ने मंदिर की संज्ञा दी है जहां केवल अपने राष्ट्रीय शिव की पूजा करने के लिए हिंदू ही प्रवेश कर सकते हैं। इस मंदिर को हमें मस्जिद या बाजार में परिवर्तित नही होने देना चाहिए।
अर्थात हिंदुओं का अपना एक संगठन होना ही चाहिए, जहां वे किसी अधिकार पूर्वक प्रवेश करने वाले अहिंदू की रोक-टोक के बिना मंत्रणा कर सकें, योजना बना सकें, हिंदू के रूप में अपनी स्थिति सुदृढ़ करते हुए कार्य कर सकें। अन्यथा किसी दिन कोई मुसलमान आकर हिंदू महासभा की भी अध्यक्षता कर बैठेगा। जब तक भारत में विशुद्घ मुस्लिम, ईसाई और पारसी संस्थाएं हैं, कम से कम तब तक हिंदुओं का केवल उनका विशुद्घ संगठन होना ही चाहिए। इसी भावना से हिंदू महासभा की स्थापना की गयी थी।