अब भी जंगल और प्रकृति की गोद में ही गुजरता है आदिवासियों का जीवन
दिलीप लाल
ओडिशा में भुवनेश्वर पुरी के जगन्नाथ मंदिर को लेकर साल भर भक्ति और आनंद में डूबा रहता है क्योंकि पर्यटकों का आना-जाना लगा रहता है। यही भुवनेश्वर शहर जनवरी-फरवरी में सांस्कृतिक गतिविधियों को लेकर खास तौर पर सजता है। इस बार भी 14-16 जनवरी तक यहां मुक्तेश्वर डांस फेस्टिवल चला जिसमें देश भर के कलाकारों ने हिस्सा लिया और तीन दिनों तक मेले सा माहौल रहा। फिर 26 जनवरी से यहां के आदिवासी एग्जिबिशन ग्राउंड में ‘आदिवासी मेला’ शुरू हो गया है।
हर साल यहां 26 जनवरी से पखवाड़े भर का विश्वस्तरीय आदिवासी मेला लगता है। वैसे तो यह ओडिशा के आदिवासियों का जीवन दिखाने वाला राज्य महोत्सव है, लेकिन यहां देश-विदेश के आदिवासियों की जीवनशैली पर आधारित प्रदर्शनी लगाई जाती है। मेले में आदिवासियों के जीवन से जुड़े संघर्ष और उनसे निकली कलाएं दिखाई जाती हैं। वर्ष 1951 से हर साल लगने वाले इस मेले का मुख्य उद्देश्य दुनिया को आदिवासियों के रहन-सहन से रूबरू कराना है। हालांकि इस बार कोरोना के कारण मेले की रौनक कुछ फीकी रही। इस बार सिर्फ स्थानीय आदिवासी ही मेले में पहुंचे। पिछले साल 180 स्टॉल लगाए गए थे, लेकिन इस साल 90 स्टॉल ही लगाए गए। स्वाभाविक रूप से इस बार मेले में भीड़ और झुंड में नाचते-गाते आदिवासी महिला-पुरुषों का उत्साह पहले के वर्षों की तरह देखने को नहीं मिल रहा है। हालांकि ओडिशा आने वाले पर्यटकों ने भुवनेश्वर के इस ग्राउंड का रुख जरूर किया।
समय के साथ बहुत कुछ बदल गया है, पर आदिवासियों का जीवन अब भी जंगल और प्रकृति की गोद में ही गुजरता है। अब भी ये बनावटी चीजों से दूर हैं। यही वजह है कि मेले में इनके हाथों से बनाई खजूर के पत्तों की टोकरियां, जंगली लकड़ियों से बने आभूषण, कद्दू के तुंबे के घरेलू सामान दिखते हैं। शहर में कीमती ब्रैंडेड सामान खरीदने वालों का भी मन इन चीजों पर ललच जाता है। मेले में कांदू खीरी, मुड़ी मांसो जैसी लोकल डिशेज भी मिलती हैं। कांदू खीरी सूप की तरह होती है। भुने हुए मड़ुआ (रागी) के आटे और मांड़ (चावल के पानी) को मिलाकर यह डिश बनाई जाती है। मूड़ी मांसो नॉनवेज डिश है। बकरे के सिर से आदिवासी इसे अपने अंदाज में तैयार करते हैं।
मेले में आदिवासियों के रहन-सहन के मॉडल तैयार किए गए हैं- घास-फूस से बने घरों के बाहर ओसारे पर टंगी पत्तों की थालियां, आसपास घूमती मुर्गियां, छप्पर पर बैठे कबूतरों का झुंड, चौका-बर्तन करती महिलाएं, मिट्टी के चूल्हे, घर के बाहर बंधी बकरियां। सारे मॉडल आदिवासी कलाकारों ने तैयार किए हैं। ये मॉडल आदिवासियों के रहन-सहन के तौर-तरीके बताते हैं। कुछ स्टॉलों पर लकड़ी से जीवनोपयोगी सामान बनाते आदिवासी पुरुष दिख जाएंगे। जंगली पेड़ शाल की गोंद से धान को जोड़कर आभूषण बनाती महिलाएं भी दिख जाएंगी। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि साधन के अभाव में भी इनका काम बड़े शान से चलता है। इनकी कला यही कहानी बताती है।
बांह कटी बनियान, कंधे पर सफेद गमछा और गले से लटका मांदल, झुंड में ताल देते युवक और बांहों में बांहें डालकर नाचती आदिवासी युवतियां भी मेले का आकर्षण बढ़ाती हैं। धुरवा, सिंगारी, थैंगड़ी इनके नृत्य हैं। धुरवा और सिंगारी की तरह थैंगड़ी भी समूह में किया जाने वाला नृत्य है। सिंगारी में युवतियों में से एक कृष्ण बनती है और बाकी सभी गोपियों की भूमिका में होती हैं। देश के दूसरे क्षेत्रों के आदिवासियों की तरह ही इनके नृत्य-गीत हैं, लेकिन नाम बदल जाते हैं। ढुलकी, सारंग इनके वाद्य यंत्र हैं। ढुलकी ताल बाजा है, जबकि सारंग में तार लगे होते हैं। मेले में आदिवासियों का जीवंत जीवन देखने को मिलता है। यही कारण है कि पूरे ओडिशा वासियों को इस मेले का साल भर इंतजार रहता है।
इसी मेला ग्राउंड में नैशनल लेवल का म्यूजियम है, जहां आदिवासियों के जीवन में सदियों से इस्तेमाल होने वाली दुर्लभ चीजों का कलेक्शन है। मेले में आने का एक आकर्षण यह भी है। लेकिन जंगलों में जाने के हक से बेदखल होकर आदिवासी अपने हुनर और रोजगार जरूर गंवा रहे हैं।