विवेक काटजू
प्रवासी भारतीय दिवस से जुड़े सम्मेलन में गत 9 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में भारतीय लोकतंत्र से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण वास्तविकताओं पर प्रकाश डाला। चूंकि कुछ दिन बाद ही देश अपने गणतंत्र की वर्षगांठ मनाने जा रहा है तो इन तथ्यों की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। मोदी ने स्वतंत्रता के समय वाले उन बयानों का भी उल्लेख किया, जब तमाम लोगों ने संदेह व्यक्त किया था कि इतने गरीब और अशिक्षित देश में लोकतंत्र का टिके रहना असंभव होगा। इसके उलट सत्य यही है कि भारत आज भी एकजुट है और अगर दुनिया में लोकतंत्र का सबसे सशक्त एवं जीवंत प्रमाण यदि कोई देश है तो वह भारत ही है। भारतीय नागरिक अपनी उस लोकतांत्रिक व्यवस्था पर उचित ही गर्व महसूस करते हैं, जो सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार पर आधारित है। इसमें अठारह वर्ष से अधिक के प्रत्येक भारतीय को मत देने का अधिकार प्राप्त है। स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव में भारतीय अपने प्रतिनिधियों का चुनाव सरकार बनाते हैं।
ऐसे में भारतीय राजव्यवस्था के इस खास पहलू की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर चर्चा आवश्यक है। यह दर्शाता है कि हमारे राष्ट्र के संस्थापकों ने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार और पूर्ण लोकतंत्र को देश के आधारभूत राजनीतिक सिद्धांत के रूप में अंगीकार करने का जोखिम उठाने का साहस दिखाया था। उस दौर के अधिकांश पश्चिमी राजनीतिशास्त्री और बड़ी संख्या में ब्रिटिश नेताओं ने यही आशंका व्यक्त की थी कि भारी तादाद में अशिक्षित और गरीब आबादी लोकतांत्रिक प्रणाली से ताल नहीं मिला पाएगी। उनकी आशंका खासतौर से इस तथ्य को लेकर और बलवती थी कि सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार वाले पूर्ण लोकतांत्रिक ढांचे को साकार करने में यूरोपीय देशों को सैकड़ों साल लग गए। वहां मताधिकार केवल पुरुषों को ही प्राप्त था और वह भी धन-संपदा और शिक्षा पर आधारित था। महिलाओं के पास तो मताधिकार था ही नहीं और उन्हें वह हासिल करने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा। ब्रिटिश महिलाओं को यह 1918 में जाकर हासिल हुआ तो फ्रांस में यह 1944 में मिला और स्विट्जरलैंड में तो केवल पचास साल पहले ही संभव हो सका।
भारतीय जनता ने दिखा दिया कि राजनीतिक परिपक्वता का साक्षरता से कोई संबंध नहीं। भारतीय नागरिक वर्ष 1952 में हुए पहले आम चुनाव से ही अपनी इच्छा और अपने हितों की समझ के हिसाब से राजनीतिक बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करते आए हैं। न केवल उन्होंने, बल्कि राजनीतिक वर्ग ने भी चुनावी नतीजों को हमेशा पूरी गरिमा के साथ स्वीकार किया। यही कारण है कि भारत में ऐसा कोई वाकया नहीं दिखा, जैसा विगत छह जनवरी को अमेरिकी संसद में तब देखने को मिला जब नए राष्ट्रपति जो बाइडन के निर्वाचन पर अंतिम औपचारिक मुहर लगाने की प्रक्रिया जारी थी। किसी भारतीय नेता ने चुनाव नतीजों को प्रभावित करने के लिए कभी अपने समर्थकों को इस प्रकार नहीं उकसाया। किसी ने विधायिका को अपमानित नहीं किया। यह दर्शाता है कि न केवल भारतीय लोकतंत्र सशक्त है, बल्कि निर्वाचन आयोग भी सभी चुनाव बेहतर तरीके संपन्न कराता है। यह भी अमेरिका से उलट है, जहां चुनावों को विश्वसनीय बनाने के लिए चुनाव प्रबंधन में सुधार अपरिहार्य हो गए हैं।
भारत में सत्ता हस्तांतरण में वैसे तेवर कभी नहीं देखे गए जैसे अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप ने 20 जनवरी को दिखाए, जो परंपरा के अनुसार नए राष्ट्रपति बाइडन के शपथ ग्र्रहण में शामिल नहीं हुए। उन्होंने परिपक्वता का परिचय नहीं दिया। भारत में कड़वाहट भरे तल्ख चुनावी अभियान के बावजूद राजनीतिक बिरादरी परंपराओं का पालन ही करती है। यहां किसी पार्टी ने चुनाव नतीजों को वैसे खारिज करने का प्रयास नहीं किया जैसा अमेरिका में देखने को मिला। सौभाग्य से अमेरिका में भी ऐसी कोशिशें फलीभूत नहीं हुईं।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि औपनिवेशिक दासता से आजादी पाना भारतीय इतिहास की सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि मानी जाती है। हालांकि इसकी अनदेखी की जाती है कि यह न केवल भारतीय इतिहास, बल्कि विश्व इतिहास के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है। ऐसा इसलिए, क्योंकि भारत की स्वतंत्रता ने एशिया और अफ्रीका के तमाम गुलाम देशों को आजादी की राह दिखाई। भारत ने न केवल औपनिवेशिक सूर्य को अस्त करने में अहम भूमिका निभाई, बल्कि वह नवस्वतंत्र देशों को लोकतंत्र अपनाने में प्रेरक भी बना। हालांकि उनमें से तमाम देश लोकतंत्र को अक्षुण्ण रखने में नाकाम रहे। पाकिस्तान इसकी बड़ी मिसाल है, जहां फौज लोकतंत्र पर हावी होती गई। ऐसे देशों के लोग भारतीय लोकतंत्र से अभी भी रश्क करते हैं। 1977 में मिस्र में तैनाती के दौरान मुझे इसका भी अनुभव हुआ। यह वह साल था जब आपातकाल के बाद हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा सरकार को सत्ता बाहर कर दिया गया था। मिस्र में तब सैन्य तानाशाही थी, लेकिन दिखावा लोकतंत्र का था। हालांकि मिस्र की जनता इसे भलीभांति समझती थी। निजी मुलाकात में वे अपनी भावनाएं व्यक्त करते थे। कई लोगों ने तो मुझसे भी साझा किया कि वे भारतीय लोकतंत्र के मुरीद हैं, जहां लोग अपनी मर्जी से मताधिकार का इस्तेमाल कर इंदिरा गांधी जैसी मजबूत नेता को सत्ता से बेदखल कर सकते हैं। तमाम लोग यह भी कहते थे कि भारत में भले ही साक्षरता बहुत अधिक न हो, लेकिन राजनीतिक परिपक्वता का स्तर काफी ऊंचा है।
स्वतंत्रता के उपरांत शुरुआती वर्षों में भारतीय कुलीन वर्ग के एक तबके, विशेषकर जिसने पश्चिमी देशों में शिक्षा प्राप्त की थी, को आशंका थी कि गरीब और अशिक्षित लोग चुनाव में अपनी पसंद निर्धारित करने में नकारात्मक पहलुओं से प्रभावित हो सकते हैं। वे भी गलत साबित हुए। तथ्य यही है कि चुनाव दर चुनाव गरीब और हाशिये पर मौजूद समूहों ने मतदान में अपनी सूझबूझ का भरपूर प्रदर्शन किया। उन्होंने अपने हितों के हिसाब से अपनी पसंद के प्रतिनिधि चुने और यह बुनियादी लोकतांत्रिक परंपरा के अनुरूप हुआ।
अपने संबोधन में मोदी ने यह भी स्मरण कराया कि ब्रिटेन में संकीर्ण सोच और भारत विरोधी तमाम वर्गों को यह भी अंदेशा था कि भारत अपनी एकता कायम नहीं रख पाएगा। वे भी गलत सिद्ध हुए। भारत ने लोकतांत्रिक परंपराओं और संवैधानिक मूल्यों को संरक्षित रखते हुए इन चुनौतियों को धता बताया। इससे सुनिश्चित हुआ कि भारत एक स्वतंत्र एवं समावेशी समाज बना रहेगा, जो अपने सभी नागरिकों की प्रगति के लिए प्रतिबद्ध होगा जिसमें सबसे कमजोर तबके को प्राथमिकता दी जाएगी। ऐसे में गणतंत्र दिवस के अवसर पर भारत को लोकतांत्रिक ढांचे के प्रति नए सिरे से अपनी प्रतिबद्धता दर्शानी चाहिए, ताकि वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अपनी सिर फख्र से ऊंचा बनाए रख सके।
(लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं।)