‘नीरो’ का बांसुरीवादन
अथर्ववेद (3/4/2) में आया है :-
ततो न उग्रो विभजा वसूनि।
यहां राजा से उसकी प्रजा कह रही है कि तू तेजस्वी होकर हमारे लिए धन का समुचित और यथोचित विभाग कर, अर्थात हमारे खान-पान, ज्ञान-विज्ञान, परिधान आदि के लिए जितना-जितना जिसके लिए आवश्यक है, उतना-उतना उसे दे।
वेद का यह मंत्र स्पष्ट कर रहा है कि राष्ट्र की संपत्ति पर राजा का अधिकार नही है, अपितु वह उस राष्ट्रीय संपत्ति का केवल न्यासी है, सारी प्रजा का विश्वासी है। उसकी योग्यता ही ये है कि वह राष्ट्रीय संपत्ति का न्यासी और प्रजा का विश्वासी है। लोकतंत्र जन और जननायक के मध्य स्थापित इसी संबंध पर आधारित सर्वोत्कृष्ट शासन प्रणाली है। परंतु वेद के लोकतंत्र और वर्तमान वैश्विक लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली में भारी अंतर है। वेद अपने राजा का तेजस्वी होना आवश्यक मानता है। वेद की मान्यता है कि राजा सूर्यसम तेजस्वी हो जिसके ताप से पापियों को वेदना हो और उस पुण्यात्मा के तेज ताप से सभी प्राणियों का कल्याण हो। उसका ताप, न्यासी और विश्वासी स्वरूप जनता के कष्टों का निवारक हो, पाप-संहारक हो और जनोद्वारक हो। जबकि आज के लोकतंत्र ने राजा का या प्रधानमंत्री अथवा जनप्रतिनिधियों का तेजस्वी होना आवश्यक नही माना है। बस, इसी मौलिक अंतर ने वर्तमान शासन प्रणाली को उपहास का पात्र बना दिया है, जबकि वैदिक राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्गत प्रदत्त लोकतांत्रिक व्यवस्था को आज के परिवेश के लिए सर्वथा अनुपयोगी और अनुचित बनाकर हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है। उत्तर प्रदेश लंबे समय से सपा और बसपा के ‘साईकिल और हाथी’ के खेल में फंसा हुआ है। लोकतंत्र के नाम पर यहां न्यासी का या विश्वासी का नही अपितु जनापेक्षाओं के साथ धोखा करने का नाटक लंबे समय से चल रहा है। राष्ट्रीय संपत्ति को सत्ता में आने वाला दल निजी संपत्ति के रूप में उपयोग करता है और उसका जितना दुरूपयोग हो सकता है, उतना वह करता है। विपक्ष में रहने वाला दल विपक्ष की भूमिका नही निभाता है, वह देखता रहता है कि सत्ता सुख भोगते समय मलाई कैसे खायी जाती है, और यह भी देखता है कि सत्तासीन पार्टी मलाई कहां कहां खा रही है? इसके उसे दो लाभ होते है एक तो उसे मलाई खाने की पता चल जाती है कि ये खाई कैसे जाती है, और दूसरे ये कि जब अपनी बारी आएगी तो आज के मलाई खाने वालों को चुप रखने के लिए यह जानकारी काम आएगी कि तुमने कहां-कहां मलाई खायी थी?
आज मायावती शांत विपक्ष की भूमिका निभा रही हैं। वह सपा की ‘सैफई-महोत्सव’ में खजाने की लूट पर कुछ नही बोल रही है, क्योंकि उन्हें पता है कि उन्होंने स्वयं ने सत्ता में रहते कितने पार्कों में ‘हाथी’ खड़े किये थे। यह मैच फिक्सिंग का गेम है, आज तुम लूटो, तो हम चुप हैं और कल को हम लुटेंगे तो तुम चुप रहना। इसलिए चुनाव हारते ही मायावती प्रदेश को छोड़कर दिल्ली चली गयीं। अब वह वहां रहकर 5 वर्ष का अज्ञातवास काट रही हैं। जनता ने 5 वर्ष पश्चात यदि उन्हें चुन लिया तो फिर वह प्रदेश में ‘हाथी पार्क’ बनाने के लिए दिल्ली से लखनऊ आ जाएंगी। मुजफ्फरगनर में दंगा पीडि़त कड़ाके की ठंड से परेशान हैं और अपने घर जाने को तैयार नही हैं, वह भूखे प्यासे और ठंड से कांपते हुए प्राण त्याग रहे हैं, तो प्रदेश का ‘नीरो’ सैफई में महोत्सव की ऊंचाई से खड़ा होकर मुजफ्फरगनर के रूह कंपाने वाले दृश्य को बांसुरी बजाते हुए बड़े आनंद के साथ देख रहा है। सचमुच यह राजधर्म नही है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की इस बात में सच्चाई हो सकती है कि मीडिया ने सैफई महोत्सव के खर्चों को बढ़ा चढ़ाकर दिखाया है, और वह खर्चा तीन सौ करोड़ का न होकर केवल एक करोड़ रूपये का है, परंतु वह एक समाजवादी पिता की संतान हैं इसलिए उनके समाजवाद की किसी भी परिभाषा में यह खर्चा उचित नही कहा जा सकता। शेषअपने दायित्व के प्रति किसी गंभीर शासक के लिए ऐसे समय महोत्सव किया जाना पाप है- जब प्रदेश की जनता अपनी ही समस्याओं और दुख तकलीफों के मारे चीख रही हो। लखनऊ से या सैफई से मुजफ्फरगनर दूर नही है कि जो वहां की दंगा प्रभावित जनता की चीख पुकार वहां तक न जा सके। परंतु बात संवेदनाओं की है, जब संवेदनाएं मर जाती हैं तो फिर चाहे आपके पड़ोस में क्यों न मौत का तांडव हो रहा हो आप पर कोई प्रभाव नही पड़ता। पर सवाल या ऐसे संवेदना शून्य किसी राक्षस समाज का नही है, यहां तो बात एक समाजवादी शासक की हो रही है। निश्चित रूप से उसे इतना संवेदनाशून्य नही होना चाहिए।
वस्तुत: राजनीतिज्ञों की संवेदनाशून्यता की इस दुखद स्थिति के दृष्टिगत ही जनता ने ‘आप’ जैसी पार्टी को हाथों हाथ लिया है। यद्यपि ‘आप’ की कोई नीति नही, राजनीति नही, कोई दर्शन नही, कोई चिंतन नही और यदि ये सब उसके पास हैं तो उसे अभी जनता द्वारा देखा जाना शेष है। परंतु जनता ने बिना देखे ही उस पर विश्वास कर लिया। यह ‘आप’ की सफलता नही है, अपितु जनता की उस खोज का परिणाम है, जिसे देश की जनता पिछले कई चुनावों से खोजती आ रही है। उसे विकल्प की तलाश है और उसने दिल्ली के लिए ‘आप’ को विकल्प मान लिया। यदि उत्तर प्रदेश के ‘हुक्मरान’ नहीं संभले तो जनता यहां भी उनका हिसाब पाक-साफ कर देगी और फिर चाहे सपा हो या बसपा सबको उठाकर समुद्र में फेंक देगी। देर केवल किसी केजरीवाल के जन्म लेने की हो रही है। जनता जाग रही है और समझ रही है कि ‘नीरो’ का बांसुरी बजाना कितना उचित या अनुचित है? वह आपराधिक तटस्थता दिखाने वालों को भी समझ रही है और उन्हें भी बताना चाहती है कि प्रदेश दिल्ली से नही चल सकता, वह तो लखनऊ से ही चलेगा। प्रदेश की जनता किसी ‘विकल्प’ को एक संकल्प के रूप में अपने मध्य खड़ा देखना चाहती है, क्योंकि सैफई महोत्सव का पुरस्कार वह ‘हार’ के रूप में अखिलेश के गले डालना चाहती है। मुख्यमंत्री समझें कि प्रदेश में ठुमके लगाने वाले नचकैये फिल्मी हीरो हीरोइनों के साथ एक समाजवादी पिता के समाजवादी बेटा के लिए कतई उचित नही कहा जा सकता।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।