चुनौती से बचकर नही भिड़कर चलने वाला:सम्राट पृथ्वीराज चौहान
पृथ्वीराज चौहान से पराजित होकर मौहम्मद गौरी रह-रहकर अपने दुर्भाग्य को कोस रहा था। गौरी स्वयं को बहुत ही अपमानित अनुभव कर रहा था। यह उसका सौभाग्य रहा और राजपूतों का प्रमाद कि जब वह युद्घक्षेत्र में घायल पड़ा, अपने जीवन की अंतिम घडिय़ां गिन रहा था, तब उसे अपनी ‘सद्गुण विकृति’ से ग्रस्त राजपूतों ने अपनी नंगी तलवारों की भेंट नही चढ़ाया और वे विजयोत्सव में मग्न हो गये। जिससे गौरी को अपने सैनिकों के कंधों पर सवार होकर अपने देश जाने का अवसर मिल गया।
अपने देश में अपमान और पीड़ा के उन क्षणों को स्मरण कर गौरी की आत्मा सिहर उठती थी, जो उसने गोविंदराय के हाथों युद्घ क्षेत्र में सहे थे। उसकी आत्मा उसे धिक्कारती थी और भारत की ओर कभी भविष्य में पुन: न जाने के लिए उससे बार-बार सौगंध उठवाती थी। अपने अंत:करण के न्यायालय में वह स्वयं ही मुजरिम था और स्वयं ही मुंसिफ भी। निर्णय बार-बार उसके विरूद्घ आता था और मारे भय के वह बुदबुदा उठता था… नही जाऊंगा…., नही जाऊंगा….फिर हिंदुस्तान की ओर। गौरी ये समझ नही पा रहा था कि वह कैसे उस पीड़ा और अपमान के जीवन से बाहर निकले, क्योंकि वह जितना ही अधिक उससे निकलना चाहता था…आत्मा पर भय का साम्राज्य उतना ही गहरा होता जाता था। किसी राजदरबारी का साहस भी नही हो रहा था कि गोरी को इस समय किसी प्रकार से ढांढस बंधायें या उसका मनोबल बढ़ायें। यद्यपि कुछ छद्मी इतिहास लेखकों ने यहां गौरी को कुछ इस प्रकार का दिखाने का प्रयास किया है कि वह हार मानने वाला नही था और पृथ्वीराज चौहान से हारने के पश्चात भी उसका मनोबल क्षीण नही हुआ। वह हिंदुस्तान पर पुन: चढ़ाई करने की योजना बनाने लगा और एक वर्ष के अथक प्रयासों के उपरांत वह अगले ही वर्ष पुन: तराइन के युद्घ क्षेत्र में आ धमका।
ऐसे इतिहासकारों ने इतिहास के तथ्यों को झुठलाने का राष्ट्रघाती अपराध किया है। यदि मौहम्मद गौरी पृथ्वीराज चौहान से मिली अब तक की पराजयों से भयभीत नही था तो उसे भारत के किसी ‘जयचंद’ के आने की प्रतीक्षा ना करनी पड़ती और वह स्वयं ही भारत की ओर युद्घ करने के लिए चल पड़ता।
भयमुक्त किया ‘जयचंदों’ ने
वास्तव में तथ्य ये है कि भयभीत गौरी को भयमुक्त किया भारत के उन ‘जयचंदों’ ने जो किसी भी कारण से भारत के सम्राट पृथ्वीराज चौहान से शत्रुता रखते थे और उसे अपमानित एवं पराजित कराने के लिए विदेशी आक्रांता शत्रु तक से हाथ मिलाने के लिए उद्यत बैठे थे। गौरी भारत के राजपूतों की एकता और पृथ्वीराज चौहान की वीरता से इतना भयभीत था कि वह चौहान को अपराजेय योद्घा मान चुका था। उसे अपने गुप्तचर विभाग से भी जो सूचनाएं मिल रही थीं वो उसका मनोबल तोडऩे वाली तो थीं, परंतु किसी भी प्रकार से उसका प्रोत्साहन नही कर पा रही थीं। इसलिए यदि कोई उससे उस समय हिंदुस्तान चलने की बात भी कहता तो वह पागलों की भांति चीख पड़ता था….नही जाऊंगा….नही जाऊंगा.. अब हिंदुस्तान।
यह थी हमारे क्षत्रिय धर्म की धाक। जिसके समक्ष शत्रु भी अपनी चतुराई भूल बैठता था। यद्यपि पृथ्वीराज चौहान ‘सदगुण विकृति’ का शिकार होकर पराजित शत्रु शासक को युद्घ क्षेत्र में पूर्णत: नष्ट करने के क्षात्रधर्म की उपेक्षा कर चुका था। आचार्य शुक्र ने कहा है कि विजयी राजा को शत्रु राजा के प्रेम व्यवहार अथवा विश्वास आदि कराने का कभी विश्वास नही करना चाहिए। वह समय आने पर पुन: धोखा दे सकता है। घातक प्रहार कर सकता है। अत: राजा को ऐसे शत्रु राजा के स्थान पर अकेले अथवा थोड़े से सैनिकों के साथ कभी नही जाना चाहिए।
जयचंद चला राष्ट्रघात के लिए
सचमुच पृथ्वीराज चौहान चूक कर गये। जिसका परिणाम ये हआ कि जयचंद को गौरी से मिलने का अवसर उचित प्रतीत होने लगा। जयचंद कुटिल स्वभाव का शासक था और वह कई कारणों से पृथ्वीराज चौहान से घृणा करता था। इसलिए वह अब पृथ्वीराज चौहान के विनाश के लिए विदेशी शासकों तक से हाथ मिलाने की योजना बनाने लगा था। उसके भीतर षडय़ंत्रों के विचारों की आंधी तेजी से उमडऩे लगी, जिससे उसके भीतर एक अप्रत्याशित और विनाशकारी तूफान अपनी विनाश लीला करने लगा। उसकी राष्ट्रभक्ति और क्षात्रशक्ति दोनों ही इस विनाशकारी तूफान की विनाश लीला की भेंट चढ़ गयीं। यह सर्वमान्य सत्य है कि जब किसी शासक के भीतर से राष्ट्रभक्ति और क्षात्रशक्ति का पतन हो जाता है तो वह पतन के भी निम्नतम स्तर तक चला जाता है। इसलिए जयचंद भी अपने वैचारिक पतन का परिचय देते हुए गौरी को भारत पर पुन: आक्रमण करने के लिए आमंत्रण देने के लिए स्वयं चल दिया। उसे भारत माता ने रोका, उसकी अंतरात्मा ने रोका, उसके धर्म ने रोका उसकी संस्कृति ने रोका, परंतु वह इन सबकी उपेक्षा करते हुए और इन सब बाधाओं को गिराते हुए या पार करते हुए…पतन के रास्ते पर चल दिया। आज उसके पास अपनी भारत माता को, अपनी अंतरात्मा को अपने धर्म को, अपनी संस्कृति को शांत करने हेतु तर्क तो नही था परंतु कुतर्क अवश्य था.. चौहान ने मुझे अमुक स्थान पर यूं अपमानित किया अमुक स्थान पर यूं अपमानित किया…अत: अब मैं उसे नष्ट कराके ही चैन लूंगा।
उसके अंतर्मन में भारत माता, अंतरात्मा, धर्म और संस्कृति के जितने बड़े प्रश्नवाचक चिन्ह बनकर उभरते थे वह अपने तर्क-तलवार से उन्हें निर्ममता से काट देता था। जयचंद आत्मघाती बनकर राष्ट्रघाती बनने चल दिया था। इससे पूर्व ऐसी पापपूर्ण मनोवृत्ति कभी किसी शासक की अपने भारत माता के प्रति नही देखी गयी थी। कदाचित इसीलिए उसे भारत की ‘जयचंदी परंपरा’ का अग्रदूत कहा जाता है। अब से पूर्व में यदि कहीं ऐसी घटना घटित भी हुई तो वह भारत माता के लिए इतनी घातक सिद्घ नही हुई जितनी ‘जयचंदी परंपरा’ सिद्घ होने जा रही थी।
अपने भीतर के सभी अंतद्र्वन्द्वों को चीरता हुआ और अपने कई राजदरबारियों के सत्परामर्श की अवहेलना करता हुआ जयचंद गौरी के द्वार पर जा पहुंचा। वास्तव में यह जयचंद नही अपितु भारत का दुर्भाग्य था, जिसने शत्रु के दरवाजे को अपने ही घर का भेद बताने के लिए जाकर खट-खटाया था। अपने दुर्भाग्य को कोसने वाले गौरी ने समय को पहचान लिया और बस यहीं से उसका दुर्भाग्य सौभाग्य में परिवर्तित होने के लिए अंगड़ाई लेने लगा।
इतिहास के विलक्षण क्षण
इतिहास के ये विलक्षण क्षण थे-जब एक अभागे का भाग्य करवट ले रहा था और एक भाग्यशाली का दुर्भाग्य उसका हाथ पकड़ रहा था। अभागे को ‘खजाना’ मिलने जा रहा था तो भाग्यशाली का ‘खजाना’ लुटने जा रहा था। इतिहास ने दोनों को अपना-अपना खेल खेलने के लिए खुला छोड़ दिया। दोनों ने मिल बैठकर योजना बनाई कि पृथ्वीराज चौहान को कैसे परास्त किया जाए और यह भी कि ‘जयचंद’ को अपने इस राष्ट्रघाती ‘कर्म’ का पुरस्कार क्या मिलेगा? जयचंद ने पहली वात्र्ता में ही गौरी के राजमहल के एकांत में बैठकर अपने राष्ट्र के प्रति अपनी ‘गद्दारी’ का पुरस्कार निश्चिंत करना चाहा। उसे नही पता था कि आज वह भारतमाता की अस्मिता को, उसकी युगों पुरानी वीर परंपरा को और गौरवमयी विरासत को नीलाम करने कहां आ गया है? इतिहास उसे घृणा की दृष्टि से निहार रहा था और वह था कि पहली बार में ही मां को और मां के सम्मान को दांव पर रख गया।
जयचंद ने गौरी से साहस करके पूछ ही लिया कि हमें हमारे सहयोग के बदले क्या दिया जाएगा?
….और ‘पुरस्कार’ सुनिश्चित हो गया
गौरी ने बड़ी चालाकी से स्वयं को संभालते हुए तथा जयचंद को समझते हुए बड़ा चातुर्य पूर्ण उत्तर दिया कि जयचंद हम हिंदुस्तान को फतह कर वहां रहना नही चाहेंगे, हमारे हृदय का शूल केवल पृथ्वीराज चौहान है। हम उसे हर स्थिति में पराजित कर देना चाहते हैं, उसके पश्चात हिंदुस्तान के बादशाह आप होंगे। जयचंद ने सोचा कि काम बन गया। पूरे हिंदुस्तान का बादशाह बनाने का आश्वासन गौरी से मिलने पर उसका दिल बल्लियों उछलने लगा। उसने आत्मिक प्रसन्नता का अनुभव किया, और गौरी को पृथ्वीराज चौहान की तथा अन्य देशी राजपूत नरेशों की दुर्बलता से अवगत कराने लगा।
अमृतपुत्र बना विषपुत्र
गौरी ज्यों-ज्यों भारत की अंतर्दशा को जान रहा था त्यों-त्यों उसके मन का मुर्झाया कमल खिलता जा रहा था। वह भीतर से तो प्रसन्न था, परंतु बाहर से स्वयं को सामान्य दिखाने का सफल प्रयास कर रहा था। क्योंकि वह जानता था कि सामने जो व्यक्ति जयचंद के रूप में बैठा है, यद्यपि वह इस भूल में है कि वह हमें खरीदने आया है, परंतु हमें उसकी इस भ्रांति को बनाये रखकर उसे ही खरीदना है, और अपने स्वार्थ की पूर्ति करनी है। अत: गौरी बड़ी सावधानी से अपने पासे फेंक रहा था। राजनीति के इन पासों को कभी उसी के देश के रहने वाले ‘शकुनि’ ने हस्तिनापुर के राजभवन में फेंका था और ‘महाभारत’ का साज सजवा दिया था। तब भी भारत की अपार हानि हुई थी। आज फिर एक जुआ खेला जा रहा था, और आज ये कार्य हस्तिनापुर के राजभवनों में न होकर गौरी के राजभवनों में संपन्न हो रहा था। जहां भारत की पटरानी द्रोपदी को नही, अपितु ‘भारत माता’ को ही दांव पर रखा जा रहा था। शोक और महाशोक!! दांव पर मां को रखने वाला एक कृतघ्न पुत्र तनिक भी दुखी नही था। आर्य पुत्र और ‘अमृत पुत्र’ के नाम से पुकारे जाने वाले भारतीय क्षत्रिय धर्म के लिए ये कलंकित करने वाले क्षण थे-जब एक ‘आर्यपुत्र’ और ‘अमृत पुत्र’ के गौरवप्रद संबोधन से संबोधित किया जाने वाला व्यक्ति मां के लिए ‘अनार्य पुत्र’ और ‘विष पुत्र’ बन चुका था।
भारत माता चीत्कार कर उठी
वीर-प्रस्विनी भारत माता अपने कायर पुत्र के हाथों अपना सौदा होते देखकर चीत्कार कर उठी। उधर गौरी के राजभवनों में एक बार पुन: प्रसन्नता छा गयी। दु:ख, प्रायश्चित, अपमान और लज्जा की तपिश से झुलसी पड़ी मौहम्मद गौरी के हृदय की फसल जयचंद की कृतघ्नता से उसी प्रकार लहलहा उठी जैसे आषाढ़ के माह में सूर्य की गर्मी से रेगिस्तान में झुलसी फसल पहली बारिश से लहलहा उठती है। उसके निराश, हताश और उदास जीवन में जयचंद एक बसंत बनकर आया और वह फिर से आशावान हो उठा।
गौरी ने इस बार पूर्ण शक्ति से भारत पर हमला करने की योजना बनानी आरंभ की। उसने भारत से मिलने वाली अकूत संपदा का लालच अपने सैनिकों को दिया और इस्लाम की सेवा के लिए उन्हें एक बार पुन: भारत की ओर बढऩे का निर्देश दिया।
भारत का शेर क्या कर रहा था?
उधर हमारे देश की अस्मिता और सम्मान का प्रतीक बन चुका पृथ्वीराज चौहान जयचंद और गौरी की योजना से पूर्णत: अनभिज्ञ था। वह शत्रु को चोटिल करके ‘मुक्त’ करने की चूक कर चुका था, और जैसा कि होता है कि ऐसी चूक के पश्चात व्यक्ति सावधान होने के स्थान पर प्रमादी और आलसी बन जाया करता है। अत: पृथ्वीराज चौहान को भी इन दुर्बलताओं ने घेर लिया था। उसके कई रणबांकुरों ने अभी तक के युद्घों में अलग अलग वीरगति प्राप्त कर ली थी। जिससे पृथ्वीराज चौहान की शक्ति तो क्षीण हुई थी परंतु पृथ्वीराज चौहान इसे मानने को तत्पर नही था। वह निरंतर इस भ्रांति में जी रहा था कि चाहे सब साथ छोड़ जायें और चाहे जो हो जाए, मैं अपने हर शत्रु के लिए अकेला ही पर्याप्त हूं। इसलिए पृथ्वीराज चौहान का साथ उसके मित्र भी छोड़ रहे थे। अत: पहले के युद्घों में जितने देशी नरेशों ने उसका साथ दिया था अब उनमें से कई पीछे हटने लगे थे। कूटनीति का तकाजा तो यही था कि पृथ्वीराज चौहान अपने संघ और संगठन को सुदृढ़ता प्रदान करता और किसी भी ‘जयचंद’ को विदेशी शत्रु से मिलने से रोकने का प्रयास करता। परंतु दुर्भाग्यवश उसने भी अपने साथियों को ‘जयचंद’ बनने दिया। पृथ्वीराज चौहान के इस स्वभाव को सामान्यत: हर इतिहासकार ने उसके अहंकार के रूप में उल्लेखित किया है। सचमुच पृथ्वीराज चौहान का ये अहंकारी स्वभाव उसका सबसे बड़ा दुर्गुण था। इस प्रकार भारत मां के लिए गोरी का चोटिल होकर छूट जाने से उपजा शत्रुभाव, जयचंद की कृतघ्नता और पृथ्वीराज चौहान का अहंकारी स्वभाव किसी अपशकुन का प्रतीक बन रहे थे। इसके उपरांत भी इस काल में भारत मां का शेर होने का सम्मान केवल पृथ्वीराज चौहान को ही मिल सकता है।
गौरी की युद्घ की तैयारी
गौरी ने 1,20,000 सैनिकों की नई सेना बनायी और अपने सैनिकों को भारत पर चढ़ाई करने के लिए उत्साहवर्धक शब्दों में संबोधित किया। उसके सैनिकों ने भारत की ओर प्रस्थान किया। बहुत से इतिहासकारों ने गौरी के इस प्रस्थान को इस्लाम की सेवा के लिए किया जाने वाला सर्वोत्कृष्ट कार्य कहकर महिमांडित किया है। परंतु वास्तव में सच ये है कि इस्लाम को इन आक्रामकों ने अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग किया है, और इस्लाम को मानने वालों के जीवनों को अपनी किसी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए प्रयुक्त किया है। इसीलिए कुछ मुस्लिम विद्वानों का भी ये मानना रहा है कि वास्तविक इस्लाम का अपहरण कर कुछ सुल्तानों, बादशाहों या राजनीतिज्ञों ने उसका लाभ उठाया और अंत में उसका चेहरा ही परिवर्तित कर दिया। अस्तु।
कुछ भी हो, इस्लाम की सेवा के लिए या इस्लाम की ओट में निजी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए मौहम्मद गौरी की सेना अब भारत में प्रवेश कर चुकी थी। यह 1192 ई. की घटना है। गौरी की सेना ने लाहौर की ओर से भारत की सीमाओं में प्रवेश किया।
गौरी का छद्मी युद्घ
गौरी ने पृथ्वीराज चौहान के पास एक अपना छद्मी दूत बनाकर भेजा, जिसका नाम किवाम-उल-मुल्क था। इसे भेजने के पीछे गौरी की चाल बड़ी गहरी थी। उसकी योजना थी कि किवाम-उल-मुल्क उसे गौरी की ओर से दिये गये एक झूठे जागीरदारी पट्टे को पृथ्वीराज चौहान को दिखायेगा और चौहान को अपना दुख सुनाएगा कि उसे गौरी के राज में किस प्रकार तंग किया जा रहा है? तब बहुत संभव है कि पृथ्वीराज चौहान उसे सेना सहित दिल्ली में प्रवेश की अनुमति दे देगा। यदि एक बार किवाम-उल-मुल्क की सेना इस योजना के अनुसार दिल्ली में प्रविष्ट हो गयी तो बस, फिर दिल्ली को परास्त करने में देर नही लगेगी।
गौरी की इस योजना को पृथ्वीराज चौहान के योग्य सलाहकारों ने समझ लिया कि किवाम-उल-मुल्क की बातों में चालाकी है। इतना ही नही कलह और कटुता के उस युग में भी जितने हिंदू राजा पृथ्वीराज चौहान के साथ थे उन सबको भी सूचित एवं सचेत कर दिया गया कि किवाम-उल-मुल्क की बातों में न आकर उससे सभी सावधान रहें। चौहान के परामर्शदाता सचेत हो गये और उन्होंने आने वाली आपत्ति को भी समझ लिया। अत: सहयोगी हिंदू राजाओं के पास युद्घ के लिए उद्यत रहने का संदेश भी भेज दिया गया।
बनने लगी राष्ट्रीय सेना
कलह और कटुता के उस परिवेश भी लगभग दर्जन भर हिंदू राजा सम्राट पृथ्वीराज चौहान के नेतृत्व में युद्घ करने के लिए भगवा ध्वज के नीचे एकत्र होने लगे। उन सबको भगवा ध्वज अपने प्राणों से भी प्रिय था और मां भारती की सेवा भी उनका सबसे बड़ा जीवन व्रत था। प्राण भले ही चले जायें पर मां की आन न जाने पाए, उनकी मुख्य चिंता यही थी। पृथ्वीराज चौहान अपनी राष्ट्रीय सेना को लेकर आगे बढ़ा। यद्यपि उसके कई पुराने साथी इस युद्घ में उसके साथ नही थे और देशी राजाओं में से भी कई शक्तियां आज युद्घ में उसके साथ नही थीं, परंतु उसका साहस उसके साथ था, उसका उत्साह उसके साथ था और उसका राष्ट्रप्रेम उसके साथ था। बस, इनहीं उत्कृष्ट भावों को हृदय में समाहित कर पृथ्वीराज चौहान युद्घक्षेत्र की ओर आगे बढ़ा। शत्रु पक्ष का विशाल सैन्य दल भी उस महान हिंदू सम्राट के साहस को हिला नही सका, वह अपने पराक्रम को दिखाने के लिए तराइन की युद्घभूमि में एक बार पुन: जीत का सेहरा अपने सिर बंधवाने के लिए आ डटा। अपनी सारी दुर्बलताओं को धता बता देना और केवल जीतने के उत्साह के साथ युद्घ करना भी श्रेष्ठ वीरों का ही कार्य होता है और पृथ्वीराज चौहान इस कार्य में पीछे रहने वाला नही था। वह अहंकारी था, यह तथ्य तो उसके जीवन की समीक्षा का एक सार है, जिसे कोई समीक्षक या इतिहासकार ही समझता है, यह पृथ्वीराज चौहान की दुर्बलता भी हो सकती है। परंतु अब समय दुर्बलताओं को नकारने या स्वीकारने का नही था-शत्रु युद्घक्षेत्र में आ चुका था, इसलिए युद्घ की चुनौती को स्वीकारना ही राष्ट्र धर्म था, जिसे उसने स्वीकारा और इसीलिए उसे इतिहास ने सम्माननीय पद प्रदान किया। कदाचित इसीलिए पृथ्वीराज चौहान आज तक भारत में लोगों के लिए सम्मान के पात्र हैं कि उसने चुनौतियों से कभी मुंह नही फेरा।
चुनौती सामने हो और पृथ्वीराज चौहान उससे बचकर निकलें यह असंभव था। इसीलिए प्रमादी और असावधान होकर भी उसने युद्घ की चुनौती को स्वीकार किया। उसके व्यक्तित्व के इस विलक्षण गुण के कारण ही वह सभी भारतीयों का ‘इतिहास नायक’ माना जाता है।
मुख्य संपादक, उगता भारत