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धर्म-अध्यात्म

ईश्वर विश्वास पाप से कैसे बचाता है ?

(दार्शनिक विचार)

#डॉ_विवेक_आर्य

शंका- एक नास्तिक ने प्रश्न किया की ईश्वर विश्वास पाप से कैसे बचाता है?
समाधान- ईश्वर विश्वासी व्यक्ति सर्वव्यापक अर्थात ईश्वर को जगत में हर स्थान पर स्थित होना मानता है। जो व्यक्ति ईश्वर को मानेगा तो वह ईश्वरीय कर्मफल व्यवस्था में भी विश्वास करेगा। कर्मफल सिद्धांत जो जैसा बोयेगा वो वैसा काटेगा का अटल नियम हैं। और कर्मफल सिद्धांत में विश्वास रखने वाला व्यक्ति ईश्वर में विश्वास रखने के कारण पाप करने से बचेगा। इसलिए ईश्वर में विश्वास से कोई भी व्यक्ति पाप कर्म से बचता है बशर्ते वह ईश्वर को सच्चिदानन्दस्वरूप , निराकार , सर्वशक्तिमान , न्यायकारी , दयालु , अजन्मा , अनन्त , निर्विकार , अनादि , अनुपम , सर्वाधार, सर्वेश्वर , सर्वव्यापक , सर्वान्तर्यामी , अजर , अभय , नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता मानता है।

एक उदाहरण से समझते है। एक चोर अपने पड़ोसी के खेत से गेहूँ चुराकर अपने घर लाता था। एक बार वह अपने लड़के को भी चोरी करते समय अपने साथ ले गया। पड़ोसी के खेत में जाकर वह चोर इधर उधर देख कर निश्चित होकर चोरी करने लगता है। तभी उसका लड़का कहता है पिताजी आपको कोई देख रहा है। सुनते ही पिता के चोरी करते हाथ उसी समय रुक जाते है और उस तपाक से अपने पुत्र से पूछता है की कौन देख रहा है और कहाँ देख रहा है। पुत्र ऊपर आकाश की हाथ कर कहता है कि ईश्वर ऊपर से आपको चोरी करते हुए देख रहे है। पिता का माथा ठनकता है और वह अपने पुत्र द्वारा कही गई बात से प्रभावित होकर चोरी करना छोड़ देता है।

इस प्रकार से ईश्वर सर्वव्यापक एवं सर्व देशीय सिद्ध हुआ। सर्वव्यापक वही सत्ता हो सकती है जो सत्ता निराकार हो और जो सत्ता निराकार होगी वही सर्वान्तर्यामी ,नित्य, अजन्मा, अमर और अजर होगी। जो सत्ता नित्य होगी वही सर्वशक्तिमान होगी। जो सत्ता सर्वशक्तिमान होगी वही सर्वाधार, सर्वेश्वर ,सृष्टिकर्ता एवं प्रलय कर्ता होगी और ऐसी सत्ता ही सर्व गुण सम्पन्न होने से सच्चिदानन्दस्वरूप, न्यायकारी एवं दयालु हो सकती है।
कुछ लोग अब यह प्रश्न करते है की फिर ईश्वर को मानने वाले लोग पाप क्यों करते है। उसका स्पष्ट कारण है कि वे ईश्वर के सच्चे स्वरूप को नहीं जानते।

पुराणों में भक्त अजामल की कथा मिलती है। अजामल ने जीवन भर अनेक पाप कर्म किये। अंत में जब यम के दूत मृत्यु के समय अजामल के प्राण हरण करने आये तो उसके मुख से उसके पुत्र नारायण का नाम निकला। उसने पुकारा ‘नारायण आओ! नारायण आओ! इतने में तेज रोशनी हुई एवं साक्षात नारायण उधर पधारे और नारायण को देखकर यम के दूत पीछे हट गए एवं नारायण के साथ अजामल सीधे स्वर्ग को चला गया।

इस कथा के माध्यम से पौराणिक लोग ईश्वर के नामस्मरण के महत्व का गुणगान करते है। मगर इस कथा में ईश्वर को अज्ञानी, अल्पज्ञ एवं न्याय विरुद्ध दिखाया गया है जो ईश्वर के गुण, कर्म और स्वाभाव के विपरीत है। क्या ईश्वर इतने अज्ञानी है कि वह यह नहीं जानते की जन्म-मृत्यु की व्यवस्था भी ईश्वरीय है एवं कर्मफल व्यवस्था भी ईश्वरीय है। फिर ईश्वरीय गुण, कर्म स्वभाव के विपरीत इस प्रकार की कथाओं से उत्पन्न हुई भ्रान्तियों के कारण ही मनुष्य आस्तिक अर्थात ईश्वर विश्वासी होने के बाद भी पाप कर्म करता है। इसलिए अगर पापों से बचना है तो ईश्वर के यथार्थ गुण-कर्म और स्वाभाव से भी परिचित होना आवश्यक है।

१.प्राणी जगत का रक्षक, प्रकृष्ट ज्ञान वाला प्रभु हमें पाप से छुडाये- अथर्ववेद ४/२३/१
२.हे सर्वव्यापक प्रभु जैसे मनुष्य नौका द्वारा नदी को पार कर जाते हैं, वैसे ही आप हमें द्वेष रूपी नदी से पार कीजिये। हमारा पाप हमसे पृथक होकर दग्ध हो जाये- अथर्ववेद ४/३३/७
३.हे ज्ञान स्वरूप परमेश्वर हम विद्वान तेरे ही बन जाएँ, हमारा पाप तेरी कृपा से सर्वथा नष्ट कर दे। – ऋग्वेद १/९७/४
४. हे मित्रावरुणो अर्थात अध्यापकों उपदेशकों आपके नेतृत्व में अर्थात आपकी कृपा से गड्ढे की तरह गिराने वाले पापों से में सर्वथा दूर हो जाऊँ। – ऋग्वेद २/२७/५
५.हे ज्ञान स्वरूप प्रभु आप हमें अज्ञान को दूर रख पाप को दूर करों। – ऋग्वेद ४/११/६

इस प्रकार से ईश्वर के गुण, कर्म और स्वाभाव से परिचित होकर ही व्यक्ति ही ईश्वर विश्वासी होने पर पापों से बच सकता है।

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