गणराज्य से लाएँ स्वराज्य
आज गणतंत्र दिवस है। वह दिन जो गण के नाम समर्पित है। जो गण का अपना, अपने लिए और अपने द्वारा संचालित है। आम गण का अपना ही जब सब कुछ है फिर गण का कोई वजूद कहीं क्यों नहीं दिख रहा है? गण के नाम पर जो कुछ हो रहा है, हुआ है और होने वाला है उसे देखकर कहीं नहीं लगता कि सब कुछ गण के लिए समर्पित है, गण की आराधना के लिए है और गण की प्रतिष्ठा के लिए हो रहा है।
गण राष्ट्र का बीज तत्व है। यह नींव है जो जितनी ज्यादा ताकतवर होगी, टिकाऊ और मजबूत होगी, उतना ही राष्ट्र समृद्ध और शक्तिशाली होगा। पर आज गण की प्रतिष्ठा कितनी और कैसी है, इस बारे में हमें किसी को कुछ बताने की जरूरत कभी नहीं पड़ती।
लगता है जैसे गण सिर्फ वादों और नारों का हिस्सा हो कर रह गया है जहाँ उसके लिए ही जीने और मरने की कसमें जरूर खायी जाती हैं ंपर भुगतना सब कुछ गण को ही पड़ता है। गण गौण हो गया है और तंत्र हावी। लगता है जैसे तंत्र पर प्रतिष्ठित अधीश्वर गण में से न हो कर स्वयंभू गणाधीश हो चले हैं जिन पर अब न गण का बस चलता है न किसी और का।
गण का दम निकाल कर जो हालत होने लगी है उसे गण ही जानता है। दशकों बाद भी गण को आज तंत्र की शरण में जाने की विवशता है। फिर गण कभी नियति की मार से ठिठुरने लगता है तो कभी अपनों की। जाने कितने वर्षों से ढेर सारे फण्डों और प्रलोभनी हवाओं से गण को भरमाया जा रहा है, फिर भी गण को इतने बरसों की यात्रा पूरी करने के बाद भी यह अहसास नहीं हो पाया है कि वह जिस डगर पर है वह सही और सलामत तो है।
गण ने अपनी पिछली पीढ़ियों को भी देखा है और आज को भी भुगत रहा है। गण आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को लेकर भी आशंकित और भयभीत रहने लगा है। आज गण अन्यमनस्क और भुलभुलैया वाले दौर से गुजर रहा है जहाँ उसे हर कहीं परफ्यूम की चित्त हर लेने वाली महक और सुनहरी रोशनी के साथ सब्जबागों की झलक तो देखने को मिलती है लेकिन वह यह नहीं समझ पा रहा है कि आखिर कौन सा रास्ता वास्तविकता से भरा हुआ है।
कई झुनझुनों और आकर्षण बिखेरते खिलौनों के साथ बहुरुपियों और जोकरों की तरह बैठे महान-महान स्वनामधन्यों की भीड़ अपने हुनर से करामाती करिश्मों का मायाजाल बिछाए बैठी है। हर डगर पर गण को भरमाने का पूरा इंतजाम है। और गण है कि बेचारा इन तिलस्मों में ही उलझ कर पूरी जिन्दगी अनिर्णय की स्थिति में पड़ा रहता है और अन्ततः गणतंत्र की प्रतिष्ठा का मिथ्या जयगान करते हुए लौट पड़ता है जहाँ से आया था ।
गण को खुद को अहसास होता है कि आजादी के बाद उसकी हालत तरस खाने लायक होती जा रही है। कभी वह अधमरा दिखता है तो कभी मरा हुआ। कभी बेहोशी तो कभी मदहोशी के आँचल में सुप्तावस्था के संग।
गण के भाग्य में चप्पल घिसना और चक्कर काटते रहना ही बदा हुआ है। रोजाना अधीश्वरों के आगे-पीछे घूमने और परिक्रमा करते रहने वाला गण-गण जिस तरह रोजाना इनके डेरों के चक्कर काटने को विवश हो गया है उससे तो यही लगता है कि हमारा गणतंत्र एक दिन का न होकर साल भर चलता है। जहाँ अधीश्वर एसी रूम्स में बैठकर गण के उत्थान पर चिंतन-मनन करते हैं और गण खुली हवा में घूमता हुआ इनके बारे में चिंतन करता है।
भारतवर्ष के गणराज्य या गणतांत्रिक राष्ट्र घोषित होने के बाद से ही यह सब कुछ होता रहा है। डण्डे और झण्डे बदलते रहे हैं, आदमियों की आकृति बदलती रही है, डेरों का रंग-रूप बदलता रहा है पर बेचारे गण को कभी नहीं लगता कि कुछ बदल भी ग या है।
आज भी गण को लगता है जैसे सब कुछ ठहरा हुआ है। हालांकि गण की तकदीर सँवारने के लिए पिछले वर्षों से ईमानदार प्रयास भी होते रहे हैं पर लगातार बढ़ती जा रही जनसंख्या के दौर में हर बार ये उपाय भी बौने होते जाते हैं।
इतना सब कुछ होते रहने के बावजूद गण को मलाल है तो इसी बात का कि उसके नाम पर जो कुछ हो रहा है उससे गण की बजाय तंत्र ही मजबूत होता जा रहा है, गण के पल्ले कुछ खास अब तक भी नहीं दिखता। गणतंत्र के इतने वर्षों बाद भी आम आदमी को यह महसूस नहीं हो पाया है कि तंत्र गण के लिए ही है। बल्कि यक्ष प्रश्न यह होता जा रहा है कि गण और तंत्र के बीच खाई निरन्तर आकार बढ़ाती जा रही है।
कभी-कभी तो गण को गोबर गणेश भी मान लिया जाकर वो सब कुछ हो जाता है जो गण के लिए तकलीफदायी है। भारतीय गण सदियों से सहिष्णु, सहनशील और उदार रहा है और इसी का परिणाम यह रहा कि हमें दासत्व भी भोगना पड़ा।
पर आज हम मुक्त हैं और हमारा अपना ही सब कुछ है। फिर भी गण की पूरी तरह प्राण-प्रतिष्ठा हम क्यों नहीं कर पा रहे हैं, यह सवाल हर किसी के मन-मस्तिष्क में गहरे तक उतरा हुआ है। भारतीय इतिहास में हमेशा यही होता रहा है कि जब-जब गण के सामथ्र्य को भुलाने की चेष्टा की जाती रही है, एक सीमा तक गण बर्दाश्त करता चला जाता है लेकिन जब गण के सब्र का बाँध कभी-कभार टूट जाता है तब सारे तटों को अपने साथ बहा ले जाता है।
यह बात जब तक तंत्र के अधीश्वरों की समझ में नहीं आएगी तब तक हमारा गणतंत्र अधूरा और उद्विग्न रहेगा तथा गणतंत्र के नाम पर स्वार्थों की पूर्ति का उन्माद यौवन पाता रहेगा। भारतवर्ष दुनिया की वह महान शक्ति है जो संसार भर को बदलने का सामथ्र्य र खती है।
ऎसे में गण की कद्र हो तथा तंत्र ईमानदारी के साथ गण की सेवा को सर्वोपरि मानें तो जल्द ही भारतवर्ष फिर अपना प्राचीन गौरव प्राप्त कर सकता है। गण को भी देश हित में सोचना होगा और तंत्र को भी। आज का गणतंत्र दिवस यही कहता है।
सभी को गणतंत्र दिवस की हार्दिक मंगलकामनाएं…।
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