मजहब ही तो सिखाता है आपस में बैर रखना, अध्याय – 2 , कुरान की काफिरों के प्रति शिक्षा (1)
कुरान की काफिरों के प्रति शिक्षा
गांधीजी ने चाहे कितना ही कह लिया कि: –
” ईश्वर अल्लाह तेरो नाम,
सबको सन्मति दे भगवान ।”
पर उनके इस गीत का मुस्लिम साम्प्रदायिकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा । वह अपने एजेंडा पर काम करती रही । गांधी जी के इस प्रकार के आलाप से वह लोग अवश्य भ्रमित हो गए जो अपने आपको गांधीवादी मानते रहे हैं । गांधीजी की प्रेरणा से और गांधीवाद के प्रोत्साहन से इन लोगों ने देश में हजारों बार यह नारा लगा कर देख लिया कि हिन्दू – मुस्लिम भाई – भाई हैं – पर यह नारा उन्हें आपस में भाई बना नहीं पाया। कारण कि मुसलमानों के मौलिक चिन्तन में कहीं न कहीं ऐसी विकृति है जो दोनों को भाई बनने नहीं देती।
मूल में कहीं भूल है शोध सके तो शोध।
दूर करेगा दोष तो होगा सच्चा बोध।।
देश मजहबी सोच से पाता कष्ट क्लेश।
भयहर्ता भाई बने आतंकी दुष्ट हमेश।।
मुस्लिमों के लिए अल्लाह का आदेश है कि –
“…और यहूद कहते हैं उजैर अल्लाह के बेटे हैं और ईसाई कहते हैं कि मसीह अल्लाह के बेटे हैँ। यह उनके मुँह की बाते हैं। उन्हीं काफिरों जैसी बातें बनाने लगे, जो इनसे पहले के हैं (हिन्दू, बौद्ध, जैन)। अल्लाह इनको गारत करे, किधर को भटके चले जा रहे हैं? (सूरा तौबा 9, पारा 10, आयत 30 )”
कुरान की इस व्यवस्था से ईश्वर की बनाई सृष्टि में बहुत बड़ा दखल किया गया है। क्योंकि इसके अनुसार सृष्टि प्रारम्भ से अथवा इस्लाम के पहले से चले आ रहे संसार के सभी लोग काफिर होने के कारण भटके हुए हैं और उनका विनाश करना ही इस्लाम का उद्देश्य है । क्योंकि उनके लिए यहाँ पर प्रार्थना की गई है कि अल्लाह उन्हें गारत करे अर्थात नष्ट करे । यहाँ पर वेद की ऐसी प्रार्थना नहीं है कि जो लोग अज्ञान और अविद्या में भटके हुए हैं, वह सत्य ज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन को सुधारें और हम सब अज्ञानी और अविद्याग्रस्त लोगों के जीवन की उन्नति में सहायक बनें। वास्तव में यही वह चिन्तन है जो मुस्लिम को हिन्दू के निकट नहीं आने देता।
जो लोग कुरान पर ईमान नहीं रखते ,उनके साथ भी कैसा व्यवहार किया जाए ? – यह भी कुरआन में ही स्पष्ट किया गया है।
-जिन मुशरिकों के साथ तुम (मुसलमानों) ने अहद (सुलह) कर रखा था, अल्लाह और उसके पैगम्बर की तरफ से उनको जवाब है: –
(सूरा तौबा 9, पारा 10, आयत 1 )
तो चार महीने (जिकाद, जिलहिज्ज, मुहर्रम और रज्जब) मुल्क में चल फिर लो, और जाने रहो कि तुम अल्लाह को हरा नहीं सकोगे और अल्लाह काफिरों को जिल्लत देता है। (2)और हज्जे अकबर (बड़े हज) के दिन अल्लाह और उसके पैगम्बर की तरफ से लोगो को मुनादी की जाती है कि अल्लाह और उसका पैगम्बर मुशरिकों (हिन्दू, सिक्ख, यहूदी, ईसाई, बौद्ध, जैन) से अलग है।….
इस व्यवस्था से स्पष्ट है कि मुसलमानों के लिए हिन्दू ही काफिर नहीं हैं अपितु संसार के प्रत्येक मत या संप्रदाय को मानने वाले लोग उनके लिए काफिर हैं और उनका विनाश करना ही उनका उद्देश्य है।
( 2) अर्थात अल्लाह और उसका पैगम्बर सिर्फ और सिर्फ मुसलमान है।
-पर अगर तुम तौबा करो (अर्थात मुसलमान हो जाओ) तो यह तुम्हारे लिये भला है, और अगर मुख मोड़ो (दीन इस्लाम से) तो जान रखो कि तुम अल्लाह को हरा नहीँ सकोगे, और काफिरों को दुखदाई सजा (अर्थात किसी भी प्रकार की आतंकी घटना से संसार के लोगों को आतंकित कर उत्पात मचाने ) की खुशखबरी सुना दो।
(3) फिर जब अदब के महीने (जिकाद, जिलहिज्ज, मुहर्रम और रज्जब) बीत जाएं तो उन मुशरिकों को जहाँ पाओ कत्ल करो, और उनको गिरफ्तार करो, उनको घेर लो, और हर घात की जगह उनकी ताक में बैठो। फिर अगर वह लोग तौबा कर लें और नमाज कायम करें, और जकात दें तो उनका रास्ता छोड़ दो (क्योँकि तब वे मुसलमान हो जाएंगे) बेशक अल्लाह माफ करने वाला बेहद मेहरबान है।…”
कुरान ने बनाया मनुष्य को मनुष्य का शत्रु
कुरान की इस प्रकार की शिक्षाओं ने मनुष्य को मनुष्य का शत्रु बनाया है। एक दूसरे के बीच की दूरियों को मिटाने के स्थान पर इसने दूरियों को सांप्रदायिकता के आधार पर और अधिक बढ़ाने या गहरा करने का प्रयास किया है। संसार में घात लगाकर हमला करने या धोखे से किसी के प्राण लेने की प्रवृत्ति इस्लाम की इसी प्रकार की शिक्षाओं से विकसित हुई है। उससे पूर्व भारत की वैदिक परम्परा में युद्ध में भी किसी निहत्थे पर हथियार चलाना या घात लगाकर किसी पर हमला करना या धोखे से किसी के प्राण ले लेना अपराध माना जाता था। परन्तु अपने स्वार्थों को साधने के लिए कुरान ने प्रत्येक व्यक्ति को इन अपराधों से पूर्णतया मुक्ति प्रदान कर दी और कह दिया कि वह जैसे चाहें अपने स्वार्थ सिद्ध कर सकते हैं। इसी का परिणाम है कि आज संसार में अपने स्वार्थों की सिद्धि के लिए मनुष्य बहुत गिरकर अपराध कर रहा है । निश्चय ही इस प्रकार की शिक्षाओं को धार्मिक शिक्षा नहीं कहा जा सकता।
इस प्रकार की शिक्षाओं से स्पष्ट हो जाता है कि मजहब के भीतर वह वायरस है जो एक दूसरे सम्प्रदाय के मध्य दूरियां पैदा करता है और एक सम्प्रदाय के लोगों को अर्थात मुस्लिमों को दूसरे सम्प्रदाय के लोगों अर्थात काफिरों के साथ समन्वय स्थापित नहीं करने देता। इस प्रकार की अमानवीय शिक्षाओं के रहते कोई कैसे यह विश्वास कर सकता है कि एक मुसलमान काफिरों के साथ समन्वय स्थापित करके चल सकता है?
दीन धर्म यह है नहीं करो किसी का नाश।
धर्म सुधारे जन्म को नहीं बिछाता लाश।।
मनुष्य चाहे व्यवहार में कितना ही एक दूसरे के प्रति घृणा की बात करता हो, पर उसका अन्तर्मन तो आदिकाल से प्रेम की खोज करता आ रहा है। भीतर की भूख प्रेम को पाने की है , परमपिता परमेश्वर का शरणागत होकर उस असीम और आनंददायक शान्ति को प्राप्त करने की है , जिसे पाकर मनुष्य के लिए कुछ और पाना शेष नहीं रह जाता है। वह भीतर की भड़की हुई अग्नि को शान्त करना चाहता है ,जिससे उसे सर्वत्र प्रेम ही प्रेम की वृष्टि होती हुई दिखाई दे। वह वह आनंददायक प्रेम वृष्टि में स्नान करना चाहता है जिसकी धीमी धीमी फुहारों के नीचे से संसार के सभी मनुष्यों को लाकर संसार के अन्य प्राणियों के लिए उन्हें उपयोगी बनाना चाहता है । वेद की इसी प्रकार की मानवीय शिक्षा हैं जिन्हें कुरान सिरे से नकार देती है।
मनुष्य की भीतरी इच्छा एक दूसरे के साथ सौहार्द , सहृदयता, सम्मैत्री और करुणा का भाव प्रकट करने की है। जबकि बाहरी कार्यशैली आग लगाने की और घृणा को बढ़ाने की है। दुर्भाग्यवश कुरान ने भीतरी खोज के इस मानवीय अभियान को और गति न देकर उसकी बाहरी उन प्रवृत्तियों को हवा देने आरम्भ किया , जिससे संसार में आग लगे ।निश्चित रूप से आग लगाने और घृणा बढ़ाने की इस कार्यवाही को मजहब ही कराता है।
अल्लाह का इस्लाम और मुल्ला का इस्लाम
मुसलमानों में कई ऐसे बुद्धिजीवी हैं जो अल्लाह का इस्लाम और मुल्ला का इस्लाम दोनों को अलग -अलग करके देखने की पैरवी करते हैं । उनका कहना होता है कि अल्लाह का इस्लाम भाईचारे की शिक्षा देता है, जबकि मुल्ला का इस्लाम संसार में आग लगाने की शिक्षा देता है। अब सच चाहे जो भी हो, पर इस्लाम के बारे में यह बात समझने की है कि जब इस्लाम अपनी शैशवावस्था में था ,तब इस पर कुछ ऐसे तथाकथित राजनीतिक लोगों का कब्जा हो गया जो इस्लाम को बढ़ाने के नाम पर गुण्डागर्दी करते हुए राजनीति में आए और उन्होंने देशों के देश हड़पने की प्रक्रिया इस्लाम के नाम पर आरम्भ की । इस्लाम के खलीफाओं को या मुखियाओं को यह बात बहुत अच्छी जँची। उन्होंने देखा कि उनके लिए मैदान साफ करने के लिए कुछ राजनीतिक गुण्डे आगे बढ़ना आरम्भ हो गए हैं ,जिनका अन्तिम लाभ उन्हें इस्लाम के विस्तार के रूप में मिलेगा।
यह सोचकर उन्होंने फटाफट इन राजनीतिक गुंडों से सौदा कर लिया। इस्लाम के इन राजनीतिक गुंडों और कठमुल्लों के सहयोग से या निकट आने से राजनीति और मजहब दोनों ‘एक’ हो गए और ‘एक’ होकर इन दोनों ने संसार से ‘काफिरों’ के विनाश का मार्ग अपना लिया। हमें नहीं पता कि इस्लाम का राजनीतिकरण हुआ या अपराधियों का इस्लाम ने राजनीतिकरण कर अपने स्वार्थ सिद्ध करने आरम्भ किए ? पर जो भी कुछ हुआ वह मानवता के हित में नहीं था। यहीं से वह प्रक्रिया आरम्भ हुई जिसने आने वाले सैकड़ों वर्षो में संसार के करोड़ों लोगों का या तो वध किया या उन्हें गुलाम बनाकर अमानवीय यातनाओं का शिकार बनाया। उनके धन-माल लूटे, उनकी औरतों को लूटा और बड़े – बड़े नरसंहार इस्लाम के नाम पर किए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत