भारत के राजनीतिज्ञों के लिए गांधी की प्रासंगिकता
संतोष उत्सुक
महात्मा गांधी अज़ीम शख्सियत हैं। विदेशों में उनकी अनगिनत प्रतिमाएं हैं। वहां वैसे भी सभी चीज़ों को पूरा साल संभाल कर रखने की संस्कृति है। पिछले वर्ष कोरोना संबंधी परेशानी हुई वरना हमारे यहां भी हर साल दो अक्टूबर से पहले उनकी मूर्तियां साफ़ करवाने की रिवायत है।
कुछ समय पहले मुझे डलहौजी जाने का मौका मिला था। वहां गांधी चौक के अड़ोस पड़ोस में घूमते हुए देखा कि बापू की दो मूर्तियां पास पास लगाई हुई हैं, एक सेंट जॉर्ज चर्च के बाहर और दूसरी चौक में। हैरानी हुई कि दो मूर्तियां इतनी नज़दीक क्यूं स्थापित की गईं। मैंने किसी से पूछा नहीं लेकिन दिमाग ने कहा, हो सकता है इस बहाने इस क्षेत्र में शांति और अहिंसा बनाए रखने की दोगुनी प्रेरणा मिल जाए। कुछ दिन बाद पता चला कि चर्च के बाहर लगी मूर्ति उपेक्षति-सी लगती थी। इसलिए शहर के गणमान्य व्यक्तियों व बुद्धिजीवियों के आग्रह पर चौक के बीच ऊंचे चबूतरे पर बापू की नई प्रतिमा स्थापित की गई। कुछ समय बाद जब दो मूर्तियों का पास-पास लगा होना चर्चा का केंद्र बना, ख़बरें लिखी गईं तो चर्च के बाहर वाली प्रतिमा को ससम्मान डलहौज़ी पब्लिक स्कूल में स्थापित कर दिया गया।
महात्मा गांधी एक अज़ीम शख्सियत हैं। विदेशों में उनकी अनगिनत प्रतिमाएं हैं। वहां वैसे भी सभी चीज़ों को पूरा साल संभाल कर रखने की संस्कृति है। पिछले वर्ष कोरोना संबंधी परेशानी हुई वरना हमारे यहां भी हर साल दो अक्टूबर से पहले उनकी मूर्तियां साफ़ करवाने की रिवायत है। वे अच्छी तरह से जांची जाती हैं यदि पक्षियों की बीटें और धूल जम गई हो तो डिटर्जेंट मिले पानी से धुलवाई जाती हैं। किसी भी पार्टी की सरकार हो उन्हें गांधीजी की राजनीतिक ज़रूरत रहती है इसलिए माल्यार्पण भी ज़रूर किया जाता है। जन्म दिन पर लड्डू खिलाए जाते रहे हैं और हां भुगतान समेत अवकाश भी होता है। पिछले बरस की गांधी जयंती ज्यादा महत्वपूर्ण रही क्योंकि 151वीं जयंती थी। प्रदेश में जगह-जगह आयोजन हुए और अनेक महत्वपूर्ण व्यक्तियों द्वारा सधे हुए संवादों में गांधीजी के अहिंसा, शांति व अन्य कठिन रास्तों पर चलने के लिए एक बार फिर प्रेरित किया गया। सच है, हम गांधी की कही बातें मानें या न मानें, उनको ज़रूर मानते हैं।
किसी समय में, उनके शहीदी दिवस यानी तीस जनवरी को दो मिनट का मौन रखने की परम्परा, अब मौन हो गई है लेकिन पिछले साल उनके जन्मदिवस पर जो हुआ उस पर मौन रखना चाहिए। प्रदेश की दोनों मुख्य राजनीतिक पार्टियों के समर्पित कार्यकर्ताओं ने ज़ोरशोर से कार्यक्रम किया और बापू की प्रतिमा के सामने सही तरीके से आपसी झड़प आयोजित की। यह सब जानते हैं कि राजनैतिक कार्यकर्ता जब-जब विरोध करते हैं तो क्या-क्या बोल और कर सकते हैं। बताते हैं हाथों और लातों का प्रयोग भी किया। लगता है पुराने लोग जो संयम, अहिंसा और शांति की बातें करते थे, अब उनकी व्यवहारिक रूप से ज़रूरत नहीं रही। नई मूर्तियाँ स्थापित हो चुकी हैं, की जा रही हैं जो ऐसी भुलाई जा चुकी चीज़ों को प्रोमोट नहीं करतीं, इसलिए पुरानी उपेक्षित मूर्तियों के सामने स्वानुशासन टूट जाता है। किसी कारणवश जब बापू पर हक का सवाल पैदा हो जाए तो मसला खड़ा हो जाता है और मसला पुलिस केस बन जाता है। ऐसे अवसर पर भी एक दूसरे के खिलाफ एफआईआर तक दर्ज करा दी जाती है। यमुना किनारे बसे, ऐतिहासिक शहर में देश की सबसे पुरानी पार्टी के कार्यकर्ताओं के दो गुटों द्वारा अलग-अलग जगह बापू की जयंती मनाई गयी थी। एक गुट ने महात्मा गांधी की प्रतिमा पर श्रद्धा सुमन अर्पित किए और उनकी याद में दो मिनट का मौन रखा, उनके आदर्शों पर चलते हुए देश में सामाजिक व धार्मिक सद्भावना कायम रखने के लिए प्रार्थना भी की गई और संकल्प दोहराया गया। दूसरे गुट ने इस आयोजन से दूर रहकर बैठक का आयोजन किया और अनाम पुतला भी फूंका।
हमें यह मान लेना चाहिए कि शांति और अहिंसा की प्रेरणा देना अब बापू की मूर्तियों की जिम्मेवारी नहीं रही। बहुत ज़्यादा बदले हुए वातावरण में यह विचार करना आवश्यक हो गया है, क्या आत्मा जैसे शाश्वत तत्व का दुनियावी स्वार्थ भरी श्रद्धांजलि से कोई संबंध स्थापित हो सकता है। क्या कोई मूर्ति श्रद्धांजलि स्वीकार कर आत्मा तक पहुंचा सकती है। माना जाता है कि मृत्यु के बाद भी आत्मा का विनाश नहीं होता। यदि ऐसा है तो स्पष्ट है कि गांधीजी की आत्मा, उनकी मूर्ति के सामने इस तरह के हिंसक व अशांत व्यवहार से खुश तो नहीं हुई होगी। यह बात मूर्ति के सामने बार-बार आकर नीति करने वाले शायद कभी समझ सकें। क्या उनका काम गांधीजी की मूर्तियों के सामने ऐसी श्रद्धांजलि दिए बिना नहीं चल सकता। गांधीजी पर आज भी दुनिया के किसी न किसी कोने में उनके विचारों की नई व्याख्या लेने के लिए किताब लिखी जा रही होगी। वे अभी भारत में अप्रासंगिक नहीं होंगे क्योंकि राजनीति को उनकी ज़रूरत हमेशा रहेगी। यह तो हमारे उत्साहित लोग ही उन्हें कुप्रासंगिक कर दिया करते हैं। उनके जन्म या शहीदी दिवस पर बहुचर्चित स्वच्छता अभियान, रक्त दान शिविर और अब मास्क भी बांटे जाते हैं लेकिन जिस दौर में राजनीति प्रेमियों को आम जनता को शारीरिक दूरी की संजीदा प्रेरणा देनी चाहिए, वे आपस में शारीरिक तोड़-फोड़ करने में लिप्त पाए जाते हैं। हिमाचल जैसे शांतिप्रिय राज्य के लिए ऐसी घटनाएं प्रशंसनीय नहीं हैं। गांधीजी की प्रतिमा के सामने पुष्प अर्पित करने वाले कितने लोगों को मौन सत्याग्रह याद है। उन्हें पता है गांधीजी से जुड़े अवसरों का आयोजन एक परम्परा निभाने के लिए करते रहे हैं।
अगर आत्मा समझ सकती है तो गांधीजी की आत्मा ने यह बात भी समझ ली होगी कि अब उनका नाम राजनीतिक बाज़ार का हिस्सा है। उन्हें यह भी पता लग गया होगा कि अब नई राजनीतिक, धार्मिक, साम्प्रदायिक व सामुदायिक प्रतिमाओं का ज़माना है। सच यह है कि वैचारिक गांधी की हमें ज्यादा ज़रूरत नहीं रही सिर्फ उनकी मूर्तियों की ज़रूरत रह गई है और उनके पास जाते रहना सामाजिक मज़बूरी है। आशंका है समय के बुरे बदलावों के साथ निश्चित ही यह औपचारिकता भी कभी न कभी खत्म हो जाएगी। समाज और राजनीति के छोटे बड़े नायकों ने अपना व्यवहार नहीं बदला तो वक़्त उन्हें माफ़ नहीं करेगा। अभी समय है, बेहतर बदलाव के लिए ज़रूरी है कि गांधीजी की प्रतिमा पर माल्यार्पण की औपचरिकता को छोड़ कर, सत्य के साथ किए गए उनके प्रयोग, अपने और दूसरों के जीवन में शामिल करने के बारे में कुछ ठोस किया जाए।