ओ३म्
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मनुष्य का आत्मा अभौतिक पदार्थ है। आत्मा से इतर मनुष्य का शरीर भौतिक पदार्थों से बना होता है। मनुष्य शरीर को पांच भौतिक पदार्थों पृथिवी, अग्नि, वायु, जल एवं आकाश से बना होने के कारण पंचभौतिक शरीर कहते हैं। आत्मा पांच भूतों व पदार्थों से पृथक अनादि, नित्य तथा चेतन पदार्थ है। यह एकदेशी व ससीम होता है। यह आत्मा जन्म व मरणधर्मा होता है। जन्म का कारण पूर्वजन्मों के कर्म आदि के बन्धन होते हैं जिनका मनुष्य को सुख व दुःख के रूप में भोग करना होता है। परमात्मा की यह व्यवस्था है कि कि जीवात्मा मनुष्य योनि में जो भी कर्म करते हैं उनका फल भोगने के लिये उन्हें जन्म मिला करता है। यह जन्म परमात्मा द्वारा दिया जाता है। मनुष्य का कोई भी कर्म बिना उसका फल भोगे समाप्त नहीं होता है। इस सिद्धान्त का दर्शन वा साक्षात हमारे ऋषि व मुनियों ने अपनी समाधि अवस्था सहित वेदाध्ययन के आधार पर किया था। सिद्धान्त है कि जीवात्मा को मनुष्य योनि में किये अपने समस्त शुभ व अशुभ कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है।
मोक्ष व मुक्ति किया है, इस पर प्रस्तुत लेख में विचार करते हैं। मुक्ति छूट जाने को कहते हैं। जो हमारे साथ है व हमसे जुड़ा रहता है, वह छूट जाये या न रहे तो व उसे व उससे मुक्ति होना कहा जाता है। अब प्रश्न होता है कि किससे छूट जाना होता है? इसका उत्तर है कि उससे छूट जाना है जिससे छूटने की सब मनुष्य इच्छा करते हैं। सब जीव व मनुष्य किससे छूटना चाहते हैं? इसका उत्तर है कि सब मनुष्य दुःख से छूट जाना चाहते हैं। मनुष्य दुःखों से छूट कर किसको प्राप्त करता व कहां रहता है? इसका उत्तर है कि मनुष्य सुख को प्राप्त करते और ब्रह्म में रहते हैं। यह दुःखों से छूटना, सुखों व आनन्द को प्राप्त होना तथा ब्रह्म मे रहने वाली मुक्ति सहित जन्म व मृत्यु का बन्धन किन किन बातों से होता है? इस प्रश्न के उत्तर पर प्रकाश डालते हुए ऋषि दयानन्द ने कहा है कि परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म, अविद्या, कुसंग, कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहने और सत्यभाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्याय, धर्म की वृद्धि करने, वेदोक्त प्रकार से परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना अर्थात् योगाभ्यास करने, विद्या पढ़ने, पढ़ाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने, सब से उत्तम साधनों को करने और जो कुछ करे वह सब पक्षपातरहित न्यायधर्मानुसार ही करें। इत्यादि साधनों से मुक्ति और इन से विपरीत ईश्वर की आज्ञा भंग करने आदि कामों से बन्ध होता है। इन साधनों को करने से जीवात्मा को जो मुक्ति प्राप्त होती है उसमें आत्मा का परमात्मा में लय होता है अथवा उसकी पृथक सत्ता बनी रहती है, इस प्रश्न का समाधान करना भी आवश्यक है?
इस प्रश्न का उत्तर है कि मुक्ति में जीवात्मा की पृथक सत्ता बनी रहती है। जीवात्मा सर्वव्यापक ब्रह्म में रहता व निवास करता है। ब्रह्म सर्वत्र पूर्ण है उसी में मुक्त जीव अव्याहतगति अर्थात् उस को कहीं आने जाने में रुकावट नहीं होती, वह ज्ञान-विज्ञानयुक्त होकर आनन्दपूर्वक स्वतन्त्र विचरता व गमन करता है। मुक्ति में जीवात्मा का भौतिक शरीर विद्यमान नहीं रहता है। ऐसी स्थिति में जीवात्मा सुख और आनन्द का भोग कैसे करता है? इस प्रश्न का उत्तर भी ऋषि दयानन्द ने शतपथ ब्राह्मण प्राचीन ग्रन्थ के वचनों को उद्धृत कर दिया है। वह बताते हैं कि मुक्ति में जीवात्मा के सत्य संकल्प आदि स्वाभाविक गुण सामथ्र्य सब रहते हैं, भौतिक शरीर नहीं रहता है। मोक्ष में भौतिक शरीर वा इन्द्रियों के गोलक जीवात्मा के साथ नहीं रहते किन्तु अपने स्वाभाविक शुद्ध गुण रहते हैं। जब सुनना चाहता है तब श्रोत्र, स्पर्श करना चाहता तब त्वचा, देखने के संकल्प से चक्षु, स्वाद के अर्थ रसना, गन्ध के लिये प्राण, संकल्प विकल्प करते समय मन, निश्चय करने के लिए बुद्धि, स्मरण करने के लिए चित्त और अहंकार के अर्थ अहंकाररूप अपनी स्वशक्ति से जीवात्मा मुक्ति में हो जाता है। और संकल्पमात्र शरीर होता है जैसे शरीर के आधार रहकर इन्द्रियों के गोलकों के द्वारा जीव स्वकार्य करता है वैसे अपनी शक्ति से मुक्ति में सब आनन्द भोग लेता है।
एक प्रश्न यह भी किया जाता व किया जा सकता है कि मुक्ति में जीवात्मा की शक्ति कितनी व कितने प्रकार की होती है। इसका उत्तर है कि मुख्य एक प्रकार की शक्ति है परन्तु बल, पराक्रम, आकर्षण, प्रेरणा, गति, भीषण, विवेचन, क्रिया, उत्साह, स्मरण, निश्चय, इच्छा, प्रेम, द्वेष, संयोग, विभाग, संयोजक, विभाजक, श्रवण, स्पर्शन, दर्शन, स्वादन और गन्धग्रहण तथा ज्ञान इन 24 प्रकार के सामथ्र्ययुक्त जीव हैं। जीव को अपनी इन शक्तियों से मुक्ति में भी आनन्द की प्राप्ति होती है। कुछ लोग मुक्ति में जीव का परमात्मा में लय मानते हैं। ऋषि दयानन्द ऐसे आचार्यों से सहमत नहीं है। वह उनके मत का खण्डन करते हुए कहते हैं कि जो मुक्ति में जीव का लय होता तो मुक्ति का सुख कौन भोगता? और जो जीव के नाश ही को मुक्ति समझते हैं, वे तो महामूढ़ हैं क्योंकि मुक्ति जीव की यह है कि दुःखों से छूट कर आनन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, अनन्त, परमेश्वर में जीवों का आनन्द में रहना। मुक्ति विषय में छान्दोग्य उपनिषद के यह वचन भी महत्वपूर्ण एवं जानने योग्य हैं कि जो परमात्मा अपहतपाप्मा सर्व पाप, जरा, मृत्यु, शोक, क्षुधा, पिपासा से रहित, सत्यकाम, सत्यसंकल्प है उस की खोज और उसी को जानने की इच्छा करनी चाहिए। जिस परमात्मा के सम्बन्ध से मुक्त जीव सब लोकों और सब कामों (कामनाओं व इच्छाओं) को प्राप्त होता है, जो परमात्मा को जान के मोक्ष के साधनों और अपनी आत्मा को शुद्ध करना जानता है सो यह मुक्ति को प्राप्त जीव शुद्ध दिव्य नेत्र और शुद्ध मन से कामों को देखता, प्राप्त होता हुआ रमण करता है।
हमने संक्षेप में मुक्ति के कुछ पक्षों पर विचार प्रस्तुत किये हैं। इस विषय को विषद रूप में जानने के लिए सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के नवम समुल्लास का अध्ययन करना चाहिये। इससे मनुष्य की प्रायः सभी शंकायें दूर हो जाती हैं। परमात्मा कृपा करें कि संसार के सभी लोगों में सुख व दुःख के कारण जानने की प्रवृत्ति उत्पन्न हों, वह दुःखों को दूर करने के उपायों पर भी विचार करें, इस विषय में वेद व सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन कर लाभ उठायें एवं अपने वर्तमान जीवन सहित भविष्य की अवस्था में भी सुधार करें। ऐसा होने पर ही मनुष्य का कल्याण होगा और संसार में सुख व शान्ति स्थापित हो सकेगी। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य