अरुण कुमार त्रिपाठी
गणतंत्र दिवस पर किसानों की ट्रैक्टर परेड के दौरान दिल्ली में हिंसा और तोड़फोड़ किए जाने और लाल किले पर धार्मिक ध्वज फहराए जाने के बाद आजाद भारत के सबसे बड़े किसान आंदोलन की साख को शर्मनाक धक्का लगा है। यही वजह है कि जहां सरकार आंदोलन पर हमलावर हुई है वहीं संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं ने कहा है कि इस देश ने किसानों के साथ जो सहानुभूति दिखाई थी, वह आगे चलकर वापस आएगी। यह कहते हुए किसान नेताओं ने स्वीकार किया कि हिंसा से किसान आंदोलन ने वह सहानुभूति खोई है जो उसने दो महीने के अनुशासन, समर्पण, सेवा, संयम और मर्यादा से हासिल किया था।
बिखरने का खतरा
किसानों ने राजपथ पर होने वाली तंत्र की शानदार परेड के मुकाबले गण की ओर से ऐसी परेड करने का संकल्प किया था जो सरकारी अत्याचार के प्रतिरोध का प्रतीकात्मक दृश्य उपस्थित करे, लेकिन उस प्रयास में वे विफल रहे। ऐसे में किसान संगठन यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकते कि किसानों को भड़काने और हिंसा करवाने के लिए मजदूर किसान संघर्ष समिति के नेता सतनाम सिंह पन्नू और फिल्मी कलाकार दीप सिद्धू जिम्मेदार हैं। लेकिन क्या इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि आंदोलन को सरकार अब पहले जैसी अहमियत नहीं देगी और सरकार की निरंतर उपेक्षा और दमन के बाद वह धीरे-धीरे थक कर बिखर जाएगा?
ऐसा किसान आंदोलनों के साथ पहले भी हुआ है और बहुत संभव है कि इसके साथ भी हो। मेरठ कमिश्नरी से दिल्ली के बोट क्लब तक लाखों किसानों का लंबा धरना चलाने वाले महेंद्र सिंह टिकैत आखिर में बहुत कुछ हासिल नहीं कर पाए थे। बहरहाल, यह आंदोलन पिछले 30 सालों में हुई किसान आत्महत्या सहित खेती से जुड़े तमाम मुद्दों को चर्चा के केंद्र में लाने में कामयाब रहा है जो इसकी बड़ी उपलब्धि है। इसने साफ कर दिया है कि सरकार कृषि में सुधार के लिए कमर कसे हुए है और जागरूक तथा शक्तिशाली कृषक संगठन उसे स्वीकार करने को बिल्कुल तैयार नहीं हैं। इसके अलावा बढ़ते बहुसंख्यकवाद के कारण लोकतंत्र के सामने उपस्थित खतरे से जुड़े मुद्दे भी इस आंदोलन की नसों में प्रवाहित हो रहे हैं।
आज एक ओर दक्षिणपंथी सरकार कृषि कानूनों के माध्यम से गरीब किसानों और मजदूरों का हित साधने के वामपंथी अजेंडे की बात कर रही है, दूसरी ओर आंदोलन के भीतर प्रेरक शक्ति के रूप में उपस्थित वामपंथी कार्यकर्ता पूरे किसानी तबके और ग्रामीण संस्कृति की बात कर रहे हैं। नंदीग्राम और सिंगूर के बुरे अनुभव के बाद अब वामपंथी बौद्धिक भी धनी किसानों और कुलकों पर आरोप नहीं लगाते बल्कि किसानों और मजदूरों को साथ लेकर चलने की बात कर रहे हैं। दूसरी तरफ बीजेपी और उसकी सरकार इसे अमीर किसानों का आंदोलन बताकर उसकी आलोचना कर रही है। इस तरह बाएं और दाएं बाजू के राजनीतिक संगठन अपने तमाम मुद्दों की अदला-बदली करके इस आंदोलन के आर-पार खड़े हैं।
यह आंदोलन अगर सिर्फ किसान आंदोलन बना रहा और महज तीन कृषि कानूनों को वापस लेने पर अड़ा रहा तो सचमुच अतीत के अन्य किसान आंदोलनों की तरह आंशिक प्रभाव डालकर ठंडा पड़ जाएगा या बिखर जाएगा। वजह यह है कि इसके विरुद्ध एक बहुसंख्यकवादी आख्यान तेजी से उठा है जो इसे सिर्फ एक समुदाय के आंदोलन तक सीमित कर रहा है और उसके पीछे हिंदू विरोध की राजनीति का आरोप लगा रहा है। दरअसल इस आंदोलन की जो ताकत थी वही अब इसकी कमजोरी बन रही है। इसकी ताकत यह थी कि संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले 500 संगठनों ने एकजुट होकर आंदोलन चलाया और इसका कोई एक नेता नहीं दिखा।
इसके नेताओं का नाम ही किसी को नहीं मालूम। संचालन का यह विकेंद्रित लोकतांत्रिक ढांचा हर किसी को चकित करता रहा है। लेकिन यही इसकी कमजोरी भी है। एक केंद्रीय नेतृत्व की अनुपस्थिति में इसमें उग्र और उपद्रवी तत्वों के घुसने और इसके नाम पर हिंसा करने की आशंका प्रबल हो जाती है। जब भी कोई आंदोलन हिंसक होता है तो उसका जनाधार घटता है और सरकार को उसके दमन का औचित्य मिल जाता है, जो हो रहा है और आगे भी होने वाला है। अगर यह किसान आंदोलन भारत जैसे देश में कोई मौलिक बदलाव करना चाहता है तो उसे संगठन निर्माण, आंदोलन और रचनात्मक कार्यक्रम के बीच एक रिश्ता बनाना होगा। ऐसा रिश्ता जो आजादी की लड़ाई के समय महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने बनाया या फिर आजादी के बाद संघ परिवार ने बनाया।
किसान आंदोलन के शुभचिंतकों का कहना है कि गणतंत्र दिवस की हिंसा से किसान आंदोलन के नेता सबक लेंगे और अपनी रणनीति बदलेंगे। उन्हें विश्वास है कि इस आंदोलन में और भी शक्तियां जुटेंगी और देश में कमजोर विपक्ष का स्थान लेने वाला राजनीतिक संगठन उत्पन्न करेंगी। ये शक्तियां अगले चार सालों तक सक्रिय रह सकती हैं। लेकिन ऐसा तभी संभव है जब मौजूदा आंदोलन किसी एक मांग का हठ पाल कर अपना दम न निकाल दे। समझौते के रूप में अगर कुछ हासिल हो रहा हो तो उसे लेकर आगे बढ़ने की तैयारी करे।
संयम और सत्याग्रह
आंदोलन खड़ा करना और उसे अनुशासित तरीके से चलाना बहुत कठिन साधना का कार्य होता है। लेकिन बेकाबू होने पर उसे वापस लेना उससे भी ज्यादा संयम और साधना की मांग करता है। इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा ने ‘अधूरी क्रांतियों के इतिहास’ में ठीक ही लिखा है कि ‘कोई भी आंदोलन पूरी तरह विफल नहीं होता। वह अपना प्रभाव छोड़कर जाता है और जाते-जाते इतिहास को कुछ आगे बढ़ा देता है।’ जो मौजूदा हालात हैं उसमें किसान आंदोलन को गांधी के नमक सत्याग्रह के बाद किए गए इरविन समझौते से सबक लेना चाहिए, जिसकी तमाम आलोचनाओं के बीच भी गांधी ने संगठन और आंदोलन को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में ला दिया था। आंदोलन के प्रति देश की सहानुभूति संयम और सत्याग्रह के उसी प्रयोग से वापस लौट सकती है ।
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