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भयानक राजनीतिक षडयंत्र

मजहब ही तो सिखाता है आपस में बैर रखना : लेखकीय निवेदन

मजहब को कुछ लोगों ने ‘अफीम’ की संज्ञा दी है। इसका कारण है कि मजहब का नशा मानव को मानव बनने ही नहीं देता है। मजहब व्यक्ति को हिन्दू बनाता है, मुसलमान बनाता है, ईसाई बनाता है, सिक्ख बनाता है। और भी बहुत कुछ बनाता है, पर मानव नहीं बनाता।

मजहबी दृष्टिकोण से यदि व्यक्ति को देखा जाएगा तो देखने वाला उसे हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई के रूप में ही देखेगा। वैसे भी आजकल समाज में लोगों की इतनी तंग सोच हो चुकी है कि वह जाति और सम्प्रदाय देखकर या पूछकर ही लोगों से बातचीत करते हैं। यदि दो या अधिक लोगों में बातचीत का क्रम आरम्भ होता है तो अक्सर यह भी देखा जाता है कि लोग एक दूसरे के संप्रदाय और जाति के विषय में पहले ही पूछ लेते हैं। कौन कितना मानवतावादी है ? कौन कितना मानवीय सोच रखने वाला है या कितना ज्ञानवान है ? – इस पर कोई चर्चा नहीं होती। किसी प्रकार की जानकारी का आदान-प्रदान नहीं होता।
एक दूसरे को जाति या सम्प्रदाय के आधार पर देखने वालों का यह दृष्टिकोण वास्तव में मानवीय गरिमा के प्रतिकूल है। मानव मानव के बीच ऐसी दीवार खड़ी करने वाले मजहब को ‘अफीम’ घोषित कर उसे व्यक्ति का निजी मामला पश्चिम के राजनीतिक चिन्तकों के द्वारा घोषित किया गया। यद्यपि पश्चिमी जगत आज तक भी जाति, सम्प्रदाय नस्लभेद आदि से बाहर नहीं निकल पाया है वहाँ के समाज में भारत से भी अधिक जटिलताएं व्याप्त हैं, जिनका सामना लोगों को करना पड़ता है। कारण यह है कि संसार को ईसाइयत के ध्वज नीचे लाने की सोच को पश्चिम के बड़े-बड़े विद्वान गहरी तो करते हुए देखे जाते हैं, कम नहीं। इस्लाम की स्थिति तो और भी बुरी है।
वस्तुतः मजहब को अफीम की संज्ञा देने की घोषणा को भी मूर्खतापूर्ण ही कहा जाएगा। क्योंकि यदि किसी व्यक्ति की निजी सोच और चिन्तन उन्मादी है, जुनून से भरा हुआ है, एक दूसरे के प्रति घृणा के भाव उसमें समाविष्ट हैं तो सामाजिक जीवन पर इसका प्रभाव पड़े बिना रह नहीं सकता । गुलगुले खाते हुए गुड़ से परहेज करना सचमुच मूर्खता ही कहा जाता है। दुर्भाग्यवश संसार के लोगों ने गुलगुले खाकर गुड़ से परहेज करने की इसी अतार्किक सोच को अपनाया हुआ है । इसका परिणाम हमारे सामने जो भी आया है उसने मानव और मानवता को अनेकों विसंगतियों और जटिलताओं का शिकार बना दिया है।
अतः आवश्यकता मजहब को व्यक्ति का निजी मामला घोषित करने की नहीं थी और ना है ,अपितु मानवीय सोच को मानवीय बनाने की आवश्यकता थी। जो कि दुर्भाग्य से बनाई नहीं गई। कितनी गलत अवधारणा है कि तुम मानव होकर भी सोच तो दानव की रखो और कार्य मानवीय करो । यदि सोच दानव की है या दानवतावादी है तो कार्य भी दानवतावादी होने निश्चित हैं। क्योंकि सोच या भाव जैसा होता है कृति वैसी ही बनती है। पश्चिम के राजनीतिक चिन्तकों और मनीषियों से यह भूल हुई कि चिन्तन या सोच हमारे कार्य की नींव है। उन्होंने मानव के भाव या चिन्तन पर विचार ही नहीं किया। उन्हें विचार करना चाहिए था कि जब तक चिन्तन दूषित है ,तब तक कृति का दूषित होना अवश्यम्भावी है। इसीलिए वेद ने मनुष्य को आदेशित किया –
‘मनुर्भव: जनया दैव्यम जनम’
अर्थात अपने आप को मनुष्य बना और दिव्य सन्तति उत्पन्न कर।
मनुष्य से ही वेद कह रहा है कि यदि बनना ही है तो मनुष्य बन । इसका अर्थ क्या हुआ ? क्या मनुष्य मनुष्य नहीं है? जब वेद बनाया ही मनुष्य के लिए गया है तो फिर वेद को मनुष्य से ही ऐसा कहने की आवश्यकता क्यों पड़ी? यदि इस बात पर विचार किया जाए तो पता चलता है कि सच यही है कि वेद बनाया तो मनुष्य के लिए ही गया है पर मनुष्य मनुष्य होकर भी मनुष्य नहीं है। मनुष्य पशु रूप में उत्पन्न हुआ है। वह मानव तब तक नहीं बनता, जब तक कि उसे मनुष्यों का साथ ना मिले और उसमें मनुष्यता समाविष्ट ना हो जाए। यह मनुष्यता ही मानव का धर्म है। इसी मनुष्यता से मनुष्य जब प्रेरित होकर कार्य करता है तो वह संसार का उत्कृष्ट मानव बन जाता है।
इस प्रकार बात स्पष्ट हुई कि धर्म मनुष्य को धारता है, धारण करता है। उसके जीवन के निर्माण में सहायक बनता है। अतः धर्म से हीन मानव कभी भी सच्चे अर्थों में मानव नहीं बन सकता। मानव वही है जो धर्म की बात करता हो, धार्मिक हो और धर्म के अनुसार जीवन यापन करने में विश्वास रखता हो। जो मननशील होकर विचारपूर्वक कार्य करने में विश्वास रखता है और कार्य के परिणाम पर भी विचार करके अपना कार्य आरम्भ करता है। संसार में जितने भी सम्प्रदाय हैं वे सब मानवतावाद की बात करते हैं, इंसानियत की बात करते हुए दिखाई देते हैं, ह्यूमैनिटी पर लम्बे चौड़े भाषण मुल्ले – मौलवी, पादरी , फादर सब देते हुए दिखाई देते हैं, परन्तु वेद की मानव निर्माण योजना को साकार करने वाले उपरोक्त निर्देश पर काम करने में सब शून्य होते हैं। कोई भी यह नहीं सोचता कि हम कार्य के आरम्भ में ही कार्य के परिणाम पर विचार कर लेंगे और केवल वही काम करेंगे जो मानवता के हित में होगा ,जो मनुष्य मात्र और प्राणी मात्र के हित में होगा, परमपिता परमेश्वर की आज्ञाओं के अनुकूल होगा और सृष्टि के नियमों को चलाने में सहायक होगा।
आज का तथाकथित सभ्य मानव मजहब के नाम पर लड़ तो रहा है, परन्तु धर्म के इस नैसर्गिक नियम को सार्वजनीन और सार्वभौम बनाने के लिए कार्य करता हुआ नहीं दिखाई दे रहा।
सहयोग, सहिष्णुता, संवेदनशीलता, सद्भाव, करुणा, दया,क्षमा, परस्पर प्रीति आदि ये सभी गुण मानवीय गुण कहलाते हैं। क्योंकि ये मानव धर्म के अनिवार्य अंग हैं। मजहब और सम्प्रदायों ने इन्हीं मानवीय गुणों की चादर ओढ़कर मानव को ठगा है, लूटा है, मानवता को अपयश का भागी बनाया है। विश्व इतिहास को आप उठाकर देख लीजिए उसमें 90% युद्ध इन मजहब और सम्प्रदायों ने ही करवाए हैं । इतना ही नहीं आज भी संसार इन्हीं मजहबी उग्रवादी संगठनों के कारण अपने आपको आतंकित और भयभीत अनुभव करता है। ईसाइयत को मानने वाले विश्व को लूटने चले तो उसका एकमात्र कारण केवल यही था कि वह अपने मजहब को संसार का मजहब बना देना चाहते थे। उसका उन्माद उनके मन -मस्तिष्क पर इस प्रकार चढ़ चुका था कि उसे वह संसार की सबसे उत्तम व्यवस्था मान रहे थे।
इस्लाम ने भी जब आंखें खोलीं तो उसने भी संसार में कुफ्र मचाने को ही प्राथमिकता दी। जिससे संसार उसके झण्डे के नीचे आ जाए। इस्लामिक आतंकवाद आज भी इसी सोच पर कार्य कर रहा है। आज भी संसार में जितने भर भी आतंकी संगठन हैं उन सबके पीछे मजहबी उन्माद प्रमुखता से कार्य कर रहा है। ये मजहबी आतंकी संगठन संसार में आग लगा देना चाहते हैं और संसार के लोगों का रक्तपात करने में उन्हें आनन्द आता है। मजहबी उन्माद को लेकर लोग संसार में आतंकी संगठनों की स्थापना करते हैं और उसके लिए कार्य करते हैं। इतना ही नहीं मजहबी देश उन आतंकी संगठनों को किसी न किसी प्रकार का संरक्षण भी देते हैं। इसके उपरान्त भी लोगों को भ्रमित करने के लिए एक जुमला गढ़ लिया गया है कि आतंकवादी का कोई मजहब नहीं होता। जो व्यक्ति चौबीसों घण्टे मजहब के लिए काम कर रहा है और मजहब के स्वभाव के अनुकूल समाज व संसार में आग भी लगा रहा है, यदि मजहब उसका नहीं है तो फिर मजहब है किसका ?
‘आतंकवादी का कोई मजहब नहीं होता’ – यह यह जुमला भी बहुत समझदारी के साथ गढ़ा गया है। क्योंकि इस जुमले की आड़ में मजहब का दानवीय स्वरूप सुरक्षित बना रहता है और यह झूठ समाज में चलता रहता है कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना। इस्लामिक आतंकवादियों की सोच है कि सारे संसार का इस्लामीकरण हो जाए, संसार में कोई भी व्यक्ति ऐसा ना रहे जो गैर मुस्लिम हो। सब मुस्लिम हो जाएं।
जहाँ हर व्यक्ति की सोच ऐसी हो कि वह विपरीत मतावलम्बी व्यक्ति को मानव ही नहीं समझ रहा हो और उसकी निजता को समाप्त करने की युक्तियों में लगा हुआ हो ,वहाँ पर यह नहीं कहा जा सकता कि ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’।
हमारा मानना है कि इसके स्थान पर अब हमें यह कहना चाहिए कि ‘मजहब ही तो सिखाता है आपस में बैर रखना।’ बस, इसी विचार को लेकर इस पुस्तक का निर्माण हुआ है।
आज का वैज्ञानिक युग है। पर्यावरण सन्तुलन को मानव की मूर्खताओं के कारण सन्तुलित रखना अब बड़ा कठिन होता जा रहा है। कारण कि इस्लाम ने पशुओं में आत्मा नहीं मानी। इसलिए उनका वध कर करके उन्हें खाना इसकी मजहबी प्रकृति बन चुकी है। ऐसा नहीं है कि हिन्दुओं में मांसाहारी नहीं हैं। वैदिक धर्म से विपरीत लोगों ने यहाँ भी पशुओं को मारकर खाने की अमानवीय प्रकृति को अपना लिया है और वह भी पर्यावरण सन्तुलन को बिगाड़ने में बड़ी भारी सहायता कर रहे हैं। एक आंकलन के अनुसार 75000 जीव जन्तुओं की प्रजातियां इस धरती से धरतीपुत्र कहा जाने वाला मानव चट कर चुका है। आखिर ऐसा क्यों हुआ ?
इस पर विचार करते हैं तो पता चलता है कि तार्किकवाद में विश्वास रखने वाले आज के इस वैज्ञानिक युग में भी ईश्वर और ईश्वरीय शक्ति का मजाक बनाने वाले लोग पर्याप्त मात्रा में हैं। भौतिकवादी विज्ञान की प्रगति ने संसार में नास्तिक वाद को फैलाया है । क्योंकि भौतिकवाद की प्रगति से मानव का अहंकार बढ़ता है। इस समय संसार आध्यात्मिक उन्नति लगभग शून्य की अवस्था में है ।आध्यात्मिक उन्नति से मनुष्य अहंकारशून्य होता है। और उसके भीतर आस्तिकवाद प्रबलता से बढ़ता है। भौतिकवादी उन्नति करने वाले लोगों पर मजहबी मान्यताओं का रंग चढ़ा हुआ है। जिनके आधार पर ये लोग ऐसे ही संसार का निर्माण करा रहे हैं, जैसी कि इनकी सोच और मान्यताएं हैं। ऐसा होना स्वाभाविक भी है । क्योंकि यदि इनका घर ऐसी मान्यताओं से बना हुआ है तो संसार भी ऐसी ही मान्यताओं से बनेगा। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि घर से संसार बना करता है, संसार से घर कदापि नहीं बना करता।
यह कितनी मूर्खतापूर्ण अवधारणा है कि जहाँ करोड़ों लोग एक ही धार्मिक मान्यता को मानने वाले रहते हों, वहाँ भी यह अपेक्षा रखी जाती है कि इस अवधारणा अथवा मान्यता को आप व्यक्तिगत रखें। कि वास्तव में ऐसा हो ही नहीं सकता। क्योंकि उनकी वह मजहबी परम्परा करोड़ों लोगों में मान्यता प्राप्त करके एक कानून बन चुकी होती है।
बकरीद पर मुस्लिम लोगों द्वारा कुर्बानी दी जाती है, यह मान्यता उसी परम्परा का एक उदाहरण है। आप बताइए इस संसार का कौन सा कानून इस मान्यता को व्यक्तिगत रखने में सफल रहा है ? मजहबी मान्यताएं करोड़ों लोगों की आस्था और विश्वास पर टिकी होती हैं। जिन्हें कोई भी शासन सत्ता बदलने या उनमें किसी प्रकार का संशोधन करने से पहले एक बार नहीं सौ बार सोचती है। इसीलिए यह कुर्बानी करोड़ों पशुओं की जान की ग्राहक हर वर्ष बन जाती है। इस मान्यता को आप व्यक्तिगत रख ही नहीं सकते। अतः जो लोग यह कहते हैं कि मजहब की मान्यताओं को व्यक्तिगत स्तर पर अपनाएं, वह भी शब्दों का भ्रमजाल मात्र फैलाते हैं।
भारतवर्ष में गाय को हिन्दुओं के द्वारा पूजित माना जाता है। जबकि मुस्लिमों के द्वारा उसकी बलि देना श्रेष्ठ माना जाता है। फलस्वरूप दोनों वर्गों में तनाव का कारण यह मजहबी मान्यता प्राय: बनती रहती है। इस तनाव पैदा करने का कारण यह मजहबी उन्माद ही तो है। यदि मुस्लिम मजहब से ऊपर उठकर पर्यावरण संतुलन को दृष्टिगत रखते हुए और गाय की उपयोगिता को संज्ञान में लेकर बात करें तो गाय उनके लिए भी उतनी ही पूजनीय है, जितनी हिन्दुओं के लिए है। पर वह ऐसा करते हुए देखे नहीं जाते।
नोएडा सेक्टर 8 में स्थित जामा मस्जिद के इमाम मुफ्ती खलील अहमद कासमी का ‘दैनिक जागरण’ 2 फरवरी सन 2004 में प्रकाशित लेख हमारी इस मान्यता को बल प्रदान करता है । उन्होंने उक्त लेख में भेड़, बकरी, गाय, बैल, भैंस, भैंसा और ऊंट की कुर्बानी को हलाल अर्थात दुरुस्त माना है। अब जब ये लोग गाय की बलि को दुरुस्त कहेंगे और हिन्दू इसे नाजायज कहेंगे तो परिणाम क्या होगा ? आप भली-भांति जानते हैं। अतः ऐसे में सरकारों को अपने स्तर पर हस्तक्षेप करना चाहिए । कठोर कानून बनाना चाहिए और जो लोग पर्यावरण सन्तुलन को बिगाड़ते हुए पाए जाते हैं या निजी मजहबी मान्यताओं के आधार पर संसार को तनाव या आतंक में झोंकना चाहते हैं उनके विरुद्ध कठोर कार्यवाही की जानी चाहिए।
यदि आप उपरोक्त इमाम को कहें कि शेर ,चीता आदि हलाल हैं कि नहीं ? तो इस पर इमाम साहब तौबा तौबा करते हुए कानों पर हाथ रखते हैं। इसका कारण केवल यही है कि शेर ,चीता आदि मारने के लिए यदि कोई चला भी गया तो चीता और शेर के बारे में निश्चित है कि वे उस मारने वाले को हलाल कर देंगे। पता चला कि जो स्वयं निरीह प्राणी हैं, असहाय हैं और अपनी सहायता करने में सक्षम नहीं हैं, ये लोग उन्हीं को मारकर खाने की बात करते हैं, जो कि और भी अधिक पाप है।
आज आवश्यकता मजहबी मान्यताओं के परिष्कार की है। यह देखना है कि मजहबी मान्यताओं से संसार का, समाज का, मानव का और प्राणीमात्र का कितना ला लाभ हो रहा है ? जो लोग आज भी किसी धार्मिक मान्यता को केवल इसलिए प्राथमिकता देते हैं कि इससे किसी वर्ग विशेष की भावनाएं आहत होंगी और इस प्रकार आहत होती भावनाओं से उन्हें आनन्द आता है तो उनको यह समझ लेना चाहिए कि उन्होंने इतिहास के उस क्रूर काल से कोई सीख नहीं ली है जिसने मजहब के आधार पर कितने ही युद्ध कर करके रक्त की नदियां बहा दी थीं। मानवता का अहित करने के अतिरिक्त इस प्रकार के युद्धों का परिणाम क्या निकला ? कहने का अभिप्राय है कि मनुष्य को इतिहास से शिक्षा लेनी चाहिए और यह समझना चाहिए कि जो चीजें अतीत में निरर्थक सिद्ध हुई हैं ,उन्हें आज भी अपनाये रखना बहुत बड़ी भूल है।
आज के वैज्ञानिक युग में निरर्थक बातों को पीछे छोड़कर सार्थक बातों पर चिन्तन या विचार – विमर्श चलना चाहिए और मानवता को लाभान्वित करने वाले मानवीय मूल्यों को स्थापित करने के लिए काम होना चाहिए।
खुदा के नाम पर उसकी खुदाई को नष्ट करना कोई धार्मिकता नहीं है। जो लोग खुदा के नाम पर उसकी खुदाई को नष्ट करने का काम करते हैं वास्तव में वे नास्तिक होते हैं, मजहबी होते हैं , पर धार्मिक कदापि नहीं होते। जिसे खुदा की मखलूक से अर्थात सृष्टि से प्यार नहीं, जिसे खुदा की बनाई हुई चीजों से प्यार नहीं, वह सचमुच खुदा का बंदा भी नहीं कहा सकता। आज आवश्यकता मजहबी अफीम के नशे को उतारकर मानवता के नशे को चढ़ाने की है। इसी से सभ्य समाज का निर्माण सम्भव है। उन्माद के स्थान पर प्यार और घृणा के स्थान पर करुणा को अपनाना समय की आवश्यकता है।
सभी धर्माचार्यों, धार्मिक विद्वानों, मौलवियों, पादरियों, पंडितों और समाज के जागरूक नागरिकों का कर्तव्य है कि वह अपने अपने मजहब की मान्यताओं का मानवीय और मानवोचित अर्थ निकाल कर समाज में नए वातावरण को बनाने में सहयोग करें। इसी से भव्य भारत का निर्माण संभव हो सकेगा। भारत को विश्व गुरु बनाने के लिए हमें भारत की मानवीय संस्कृति का प्रचार प्रसार करने का संकल्प लेना चाहिए और अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को त्याग कर मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाकर कार्य करने की सोच विकसित करनी चाहिए।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत

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