ओ३म्
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सूर्य, चन्द्र, पृथिवी तथा नक्षत्रों आदि से युक्त हमारी यह भौतिक सृष्टि मनुष्योत्पत्ति से बहुत पहले बन चुकी थी। अतः इसे मनुष्यों ने नहीं बनाया यह बात तो स्पष्ट है। मनुष्य एक, दो व करोड़ों मिलकर भी इस सृष्टि व इसके एक ग्रह को भी नहीं बना सकते। यदि ऐसा है तो फिर इस सृष्टि को किसने बनाया है? इसका उत्तर है कि इस जगत् में एक सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र सत्ता है जिसने इस जगत् को बनाया है। इसे ही ईश्वर व परमात्मा भी कहते हैं। चेतन देवों में यही परमात्मा सबसे बड़े देव अर्थात् महादेव हैं। मनुष्यों में भी दिव्य गुण पाये जाते हैं अतः उन दिव्य गुणों के धारण से वह भी देवता कहलाते हैं। माता, पिता व आचार्य प्रमुख चेतन देवों में आते हैं अतः अपनी सन्तानों एवं शिष्यों द्वारा पूजनीय, स्तुति करने योग्य व उपासनीय होते हैं। ईश्वर इन सब देवों से भिन्न हैं। वह महादेव हैं जिसके सभी मनुष्य व प्राणियों पर अनन्त उपकार हैं। परमात्मा ने न केवल सृष्टि बनाई है अपितु वही सब प्राणियों को अपने ज्ञान, विज्ञान व शक्तियों से जन्म देता व पालन आदि भी करता है। हमारा जीवन एक क्षण के लिये भी उसके उपकार किए बिना व्यतीत होना सम्भव नहीं है। अतः ऐसा ईश्वर के प्रति जीवों का कृतज्ञ होना स्वाभाविक एवं अनिवार्य है। जो ज्ञानी व विवेकीजन समाज में होते हैं वह ईश्वर के उपकारों को जानकर उसको और अधिक जानने व उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना को अपना आवश्यक कर्तव्य जानकर जन्म से मृत्यु के अन्तिम क्षण तक प्रयत्न करते हैं जैसा हम ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायी महापुरुषों के जीवन में देखते हैं। हमें भी ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव व स्वरूप को यथार्थ रूप में जानना चाहिये। ईश्वर को जानने में सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, 11 उपनिषद, 6 दर्शन सहित ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद परम सहायक एवं लाभकारी हैं। विशुद्ध मनुस्मृति का भी सभी मनुष्यों को अध्ययन करना चाहिये इससे अनेक विषयों के ज्ञानवर्धन सहित द्वेषी लोगों द्वारा मनुस्मृति के विरुद्ध फैलायी गई भ्रान्तियों का निवारण होगा। इन सब ग्रन्थों के अध्ययन से हम सच्चे आस्तिक बन सकते हैं और ऐसा करके हम अपने व दूसरों के जीवन को सुखी एवं उन्नति करने वाला बना सकते हैं।
मनुष्य के मन में जिज्ञासा हो सकती है इस सृष्टि को ईश्वर ने बनाया है तो मनुष्य व इतर प्राणियों की उत्पत्ति ईश्वर से हुई या अपने आप हो गई? ज्ञान कहां से कब व कैसे उत्पन्न व आविर्भूत हुआ? भाषा की उत्पत्ति कब व किससे हुई? इन सब प्रश्नों का उत्तर लौकिक साहित्य में उपलब्ध नहीं होता। इनके उत्तर जानने का ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में प्रयत्न किया था और उन्होंने इन प्रश्नों के यथार्थ उत्तर प्राप्त किये थे। यह उत्तर हमें ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में उपलब्ध होते हैं। ऋषि दयानन्द प्रमाण एव युक्तियों सहित बताते हैं कि यह समस्त जगत् व ब्रह्माण्ड सर्वव्यापक व सर्वशक्तिमान ईश्वर से उत्पन्न हुआ है। ईश्वर अनादि व नित्य सत्ता है। वह अविनाशी एवं अनन्त है। उसका ज्ञान व शक्तियां भी अनन्त है। ज्ञान भाषा में ही निहित होता है। अतः हमें यह भी स्वीकार करना पड़ता है कि चेतनसत्ता सर्वज्ञ ईश्वर में सब विद्याओं के ज्ञान सहित भाषा भी निहित है। इस ज्ञान व भाषा के द्वारा ही वह हमारे हृदय में समय समय प्रेरणा करता है। आत्मा में होने वाली ज्ञात व अज्ञात प्रेरणाओं के कारण से भी ईश्वर का अस्तित्व एवं उसकी सर्वव्यापकता सिद्ध होती है।
सृष्टि में प्राणी जगत एवं ज्ञान की उत्पत्ति पर विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि सृष्टि के आदि काल में सभी प्राणियों की अमैथुनी सृष्टि होती है। यह अमैथुनी सृष्टि जो बिना माता पिता के संसर्ग के द्वारा होती है, उसे परमात्मा किया करता है। सृष्टि की आदि में मनुष्यों की उत्पत्ति भूमि रूपी गर्भ से परमात्मा करता है। अन्य पशु आदि प्राणियों को भी परमात्मा ने इसी प्रकार मुख्य भौतिक पदार्थ भूमि व पृथिवी के गर्भ में से उत्पन्न किया है। पृथिवी के भीतर ही अमैथुनी सृष्टि में जन्म लेने वाले मनुष्यों व प्राणियों के शरीर बनते हैं और उनसे आत्मा को संयुक्त करने का काम परमात्मा ही करता है। अन्य किसी प्रकार से यह कार्य हो ही नहीं सकता। अतः सब को आदि अमैथुनी सृष्टि को परमात्मा से भूमि माता के गर्भ से ही मानना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने यह भी बताया है कि आदि सृष्टि युवावस्था में हुई थी। यदि परमात्मा आदि सृष्टि में शिशुओं को बनाता तो उनका पालन करने के लिये माता-पिताओं की आवश्यकता पड़ती और जो वृद्धावस्था में करता तो उनसे सन्तान उत्पत्ति न होने से सृष्टि का क्रम आगे नहीं चल सकता था। अतः मनुष्यों की सृष्टि आदि काल में प्रथम अमैथुनी हुई और सभी मनुष्य अर्थात् स्त्री पुरुष युवावस्था में उत्पन्न हुए थे। यह भी बता दें कि ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश में वर्णन तथा महाभारत के एक श्लोक के अनुसार मनुष्य की प्रथम सृष्टि भारत के तिब्बत प्रदेश में हुई थी। सृष्टि की आदि में सारी पृथिवी पर कोई एक देश व राजा नहीं था। इस सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों ने ही सारे विश्व को बसाया है। उन्हीं ने पहले आर्यावर्त बसाया और बाद में पूरे विश्व में फैल कर अन्य स्थानों पर मनुष्यों की जनसंख्या में वृद्धि की। 1 अरब 96 करोड़ वर्ष से अधिक पुराना इतिहास होने से सभी लोग अपने सत्य इतिहास को भूल गये हैं परन्तु तिब्बत में सृष्टि होने और आर्यों के पूरे विश्व में फैलने का इतिहास विश्वसनीय एवं तर्क सहित महाभारत आदि के प्रमाणों से पुष्ट है।
मनुष्यों के उत्पन्न होने पर उन्हें ज्ञान देने की आवश्यकता थी। मनुष्य बिना ज्ञान व भाषा के अपना कोई कार्य नहीं कर सकते। परमात्मा भी नहीं चाहेगा कि सृष्टि की आदि में मनुष्यों को बिना किसी कारण ज्ञान व भाषा से वंचित रखा जाये। सभी पशु व पक्षियों को भी वह स्वभाविक ज्ञान देता है जिससे वह अपने सभी व्यवहार सम्पन्न करते हैं। सृष्टि के आदि काल में परमात्मा ही सर्वज्ञ व सर्वज्ञानमय सत्ता होती है। सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होने से वह सभी मनुष्यों की आत्मा के भीतर व बाहर भी विद्यमान होती है। परमात्मा सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान हैं। वह जीवात्माओं की आत्मा में प्रेरणा देकर जीवात्माओं को आवश्यक ज्ञान दे सकते हैं। सम्मोहन की क्रिया में भी एक मनुष्य दूसरे मनुष्यों को विशेष परिस्थिति में सम्मोहन के द्वारा अपनी इच्छानुसार कार्य कराता है, ऐसा माना व समझा जाता है। परमात्मा तो जीवात्मा के भीतर भी है। अतः वह मनुष्यों के लिये आवश्यक व हितकर तथा उन्हें धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष आदि का सम्पूर्ण ज्ञान वेद ज्ञान के रूप में देता है। परमात्मा ही अमैथुनी सृष्टि के सभी मनुष्यों का आदि गुरु होता है। यह बात योगदर्शनकार महर्षि पतंजलि ने लिखी है। इस वेदज्ञान देने के कारण ही महर्षि पतंजलि ने ईश्वर को आदि गुरु कहा है। ऋषि दयानन्द ने इस विषय विशेष का चिन्तन करने के साथ उपलब्ध साक्ष्यों का भी अध्ययन व मनन किया था। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में वेदोत्पत्ति प्रक्रिया को विस्तार से लिखा है।
ईश्वर से प्रेरित अथर्ववेद काण्ड 10 में वर्णन मिलता है कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद सब जगत सब प्राणियों को उत्पन्न व धारण करने वाले परमात्मा से उत्पन्न हुए हैं। यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 8 के अनुसार ऋषि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश में बताते हैं कि जो स्वयम्भू, सर्वव्यापक, शुद्ध, सनातन, निराकार परमेश्वर है वह सनातन जीवरूप प्रजा के कल्याणर्थ यथावत् रीतिपूर्वक वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेश करता है। कुछ लोगों को भ्रान्ति है कि ईश्वर निराकार है। निराकार होने से वेद विद्या का उपदेश विना मुख द्वारा वर्णोच्चारण किये कैसे हो सका होगा? इसका उत्तर ऋषि दयानन्द ने यह कह कर दिया है कि परमेश्वर के सर्वशक्तिमान् और सर्वव्यापक होने से जीवों को अपनी व्याप्ति से वेदविद्या के उपदेश करने में उसे कुछ भी मुखादि की अपेक्षा नहीं है। क्योंकि मुख जिह्वा से वर्णोच्चारण अपने से भिन्न को बोध होने के लिये किया जाता है, कुछ अपने लिये नहीं किया जाता। क्योंकि मुख जिह्वा के व्यापार करे बिना ही मन में अनेक व्यवहारों का विचार ओर शब्दोच्चारण होता रहता है। कानों को अगुलियों से मूंद कर देखो, सुनो कि बिना मुख जिह्वा ताल्वादि स्थानोें के कैसे-कैसे शब्द हो रहे हैं। वैसे परमात्मा ने जीवों को अन्तर्यामीरूप से उपदेश किया है। किन्तु केवल दूसरे को समझाने के लिए उच्चारण करने की आवश्यकता है। जब परमेश्वर निराकार सर्वव्यापक है तो अपनी अखिल वेदविद्या का उपदेश जीवस्थ स्वरूप से (जीवात्मा के भीतर व्यापकता से) जीवात्मा में प्रकाशित कर देता है। फिर वह मनुष्य अपने मुख से उच्चारण करके दूसरों को सुनाता है। इसलिये ईश्वर में यह निराकार होकर वेदोपदेश न कर सकने का दोष नहीं आ सकता।
ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ के प्रमाण से यह भी बताया है कि प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा नाम के ऋषियों की आत्मा में एक-एक वेद का प्रकाश किया था। इन ऋषियो ंने एक एक वेद का ज्ञान ब्रह्मा जी को कराया था। मनुस्मृति में कहा गया है कि जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि आदि चारों महर्षियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराये और उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अगिरा से ऋग, यजुः, साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया। वेद ज्ञान संस्कृत भाषा में है। इससे स्पष्ट है कि परमात्मा ने संस्कृत भाषा सहित चार वेदों का ज्ञान मनुष्यश्रेष्ठ चार ऋषियों को दिया था। उन्हीं चार ऋषियों के द्वारा ब्रह्मा जी को दिया गया और इन्होंने मिलकर ही अन्य सभी स्त्री व पुरुषों को वेद ज्ञान व साधारण बोलचाल का ज्ञान भी कराया था। वेदाध्ययन की ऋषि परम्परा अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा व ब्रह्मा जी से होती हुई ऋषि जैमिनी और ऋषि दयानन्द तक पहुंची है।
इस उल्लेख से स्पष्ट होता है कि आदि मनुष्यों को परमात्मा ने वेदों का ज्ञान देकर ज्ञान व विज्ञान से सम्पन्न किया था। भाषा भी हमें परमात्मा से ही मिली थी। संस्कृत व वेद संसार के सभी पूर्वजों की भाषा व ज्ञान रहे हैं। सब लोगों का संस्कृत भाषा एवं वेदों पर समान अधिकार है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य