राकेश कुमार आर्य
तराइन का युद्घक्षेत्र पुन: दो सेनाओं की भयंकर भिड़ंत का साक्षी बन रहा था। भारत के भविष्य और भाग्य के लिए यह युद्घ बहुत ही महत्वपूर्ण होने जा रहा था। भारत अपने महान पराक्रमी सम्राट के नेतृत्व में धर्मयुद्घ कर रहा था, जबकि विदेशी आततायी सेना अपने सुल्तान के नेतृत्व में भारत की अस्मिता को लूटने के लिए युद्घ कर रही थी।
युद्घ प्रारंभ हो गया। ‘भगवा ध्वज’ की आन के लिए राजपूतों ने विदेशी आक्रांता और उसकी सेना को गाजर, मूली की भांति काटना आरंभ कर दिया। ‘भगवा ध्वज’ जितना हवा में फहराता था उतना ही अपने हिंदू वीरों की बाजुएं शत्रुओं के लिए फड़क उठती थीं और उनकी तलवारें निरंतर शत्रु का काल बनती जा रही थीं। सायंकाल तक के युद्घ में ही स्थिति स्पष्ट होने लगी, विदेशी सेना युद्घ क्षेत्र से भागने को विवश हो गयी। उसे अपनी पराजय के पुराने अनुभव स्मरण हो आये और पराजय के भावों ने उसे घेर लिया। इसलिए शत्रु सेना मैदान छोड़ देने में ही अपना हित देख रही थी। लाशों के लगे ढेर में मुस्लिम सेना के सैनिकों की अधिक संख्या देखकर शेष शत्रु सेना का मनोबल टूट गया और उसे लगा कि हिंदू इस बार भी खदेड़, खदेड़ कर मारेंगे। मौहम्मद गोरी को भी गोविंदराय की वीरता के पुराने अनुभव ने आकर घेर लिया था। इसलिए वह भी मैदान छोडऩे न छोडऩे के द्वंद्व में फंस गया था। ‘जयचंद’ जैसे देशद्रोही जमकर उसका साथ दे रहे थे, जिन्हें देखकर उसे संतोष हेाता था, परंतु हिंदू सेना के पराक्रमी प्रहार को देखकर उसका हृदय कांपता था।
एक ध्यान देने योग्य बात
मुस्लिम और विदेशी शत्रु इतिहास लेखकों ने भारत में राष्ट्रवाद की भावना को मारने तथा हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीक हिंदू शब्द का या हिंदू सेना का जहां प्रयोग बार बार होना चाहिए था, वहां वैसा किया नही है। इसलिए इन्होंने पृथ्वीराज चौहान की सेना को राष्ट्रीय सेना या हिंदू सेना न कहकर ‘राजपूत सेना’ कहा है। इससे उन्हें दो लाभ हुए-एक तो भारत में राष्ट्रवाद की भावना को मारने में सहायता मिली। (यह अलग बात है कि वह मरी नही) दूसरे हिंदुओं में जातिवाद को प्रोत्साहन मिला। हिंदू एक ऐसा शब्द था जो हममें जातीय अभिमान भरता था। इसलिए उसे हमारे लिए सामूहिक रूप से प्रयुक्त न कर, हमारे लिए खंडित मानसिकता को दर्शाने वाले शब्दों यथा राजपूत सेना, मराठा सेना, सिक्ख सेना आदि का प्रयोग किया गया। निरंतर इसी झूठ को दोहराते रहने से कुछ सीमा तक हम पर इस झूठ का प्रभाव भी पड़ा। अस्तु।
मौहम्मद गौरी ने चली नई चाल
मौहम्मद गौरी ने जब देखा कि वह एक बार पुन: अपमान जनक पराजय का सामना करने जा रहा है तो उसने एक नई चाल चली। उसने हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान को ऊंची आवाज में संबोधित कर उससे युद्घ बंद करने की प्रार्थना की। गौरी ने पृथ्वीराज चौहान से कहा कि इस बार हमें तुम्हारा भाई (जयचंद) यहां युद्घ के लिए ले आया है, अन्यथा मैं तो कभी हिंदुस्तान नही आता। अब मेरी आप से विनती है कि आप मुझे ससम्मान अपने देश जाने दें। बस, मैं इतना अवसर आपसे चाहता हूं कि मैंने अपने देश एक व्यक्ति को चिट्ठी लेकर भेजा है, वह उस चिट्ठी का उत्तर लिखा लाए तो मैं यहां से चला जाऊंगा।
हम बार-बार कहते आये हैं कि भारत ने इन बर्बर विदेशी आक्रांताओं की युद्घ शैली की घृणित और धोखे से भरी नीतियों को कभी समझा नही, क्योंकि भारत की युद्घनीति में ऐसे धोखों को कायरता माना जाता रहा है। शत्रु यदि प्राणदान मांग रहा है तो उसे प्राणदान देना क्षत्रिय धर्म माना गया है। हमने चूक ये की कि शत्रु दुष्टता के साथ भी जब धोखे की चालें चल रहा था तो हमने उस समय भी उसकी बातों पर विश्वास किया और उसकी चालों में अपने देश का अहित कर बैठे, अन्यथा ना तो हमारा पराक्रम हारा और ना ही हमारा उत्साह ठंडा पड़ा। शत्रु के प्रति दिखाई जाने वाली इसी अनावश्यक उदारता के हमारे परंपरागत गुण को ही वीर सावरकर ने ‘सदगुण-विकृति’ कहकर अभिहित किया है।
फलस्वरूप पृथ्वीराज चौहान गौरी की बातों के जाल में फंस गया। हिंदू सम्राट ने अपनी सेना को युद्घबंदी की आज्ञा दे दी। युद्घबंद होते ही गौरी की सेना को शेष पृष्ठ 7 पर
संभलने का अवसर मिल गया। जबकि चौहान की राष्ट्रीय सेना अपने शिविरों में जाकर शांति के साथ सो गयी। गौरी ऐसे ही अवसर की खोज में था कि जब हिंदू सेना शांति के साथ सो रही हो तो उसी समय उस पर आक्रमण कर दिया जाए। पी.एन.ओक लिखते हैं:-”ठीक आधी रात को जबकि हिंदू सेना बड़ी शांति से सो रही थी गौरी ने चुपचाप और एकाएक उस पर धावा बोल दिया। छल और कपट के मायाजाल में फंसे सोते वीर हिंदू सैनिकों को गौरी के कसाई दल ने हलाल कर दिया। इसी धोखे धड़ी के युद्घ में ही पृथ्वीराज चौहान ने भी वीरगति प्राप्त की।”
भारत माता के कई योद्घा काम आये
तराइन के इस युद्घ में मां भारती के कई वीरपुत्र काम आये। इनमें एक थे चित्तौड़ के राणावंश के वीर शिरोमणि राणा समरसिंह और दूसरा वीर शिरोमणि था गोविंद राय। जिसने तराइन के पहले युद्घ में पृथ्वीराज चौहान के परमशत्रु मौहम्मद गौरी को घायल किया था। राणा समरसिंह पृथ्वीराज चौहान के बहनोई भी थे और उन्होंने हर संकट में पृथ्वीराज चौहान का साथ बड़ी निष्ठा के साथ दिया था। राजनीति में यद्यपि संबंध अधिक महत्वपूर्ण नही होते परंतु हिंदू राजनीति में संबंधों का कितना महत्व होता है इसका पता हमें पृथ्वीराज चौहान और उनके बहनोई के संबंधों को देखकर ही चलता है। हर संकट में पृथ्वीराज ने समरसिंह को स्मरण किया या उसके हर संकट का समरसिंह ने ध्यान रखा, यह पता ही नही चलता। तराइन के दूसरे युद्घ में पृथ्वीराज चौहान की पतली स्थिति को समरसिंह भली भांति जानते थे, परंतु देश-धर्म के सम्मान को बचाने के लिए वह इस युद्घ में भी उसके साथ आ मिले और शत्रु के साथ जमकर संघर्ष किया। परंतु युद्घ में वह स्वयं, उनका पुत्र कल्याण और उनकी तेरह हजार ंिहदू सेना शहीद होकर मां भारती के श्री चरणों में शहीद हो गयी। इसी प्रकार गोविंदराय को उसके हाथी ने ही ऊपर से पटक दिया और वह वीर भी अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान देकर इस असार-संसार से चला गया।
इस प्रकार तराइन का युद्घ क्षेत्र हमारी पराजय का नही, अपितु हमारे वीर स्वतंत्रता सैनानियों के उत्कृष्ट बलिदानों का स्मारक है। जिसे यही सम्मान मिलना भी चाहिए।
गायों के प्रति पृथ्वीराज चौहान की गहन आस्था बनी पराजय का कारण
कपटी विदेशी आक्रांता ने हिंदू सम्राट और उसकी साहसी सेना को पराजित करने का एक और ढंग खोज निकाला। उसे यह भलीभांति ज्ञात था कि भारतीय लोगों की गाय के प्रति असीम श्रद्घा और गहन आस्था होती है और विषम से विषम परिस्थिति में भी एक हिंदू किसी गाय का वध करना पाप समझता है।
पृथ्वीराज चौहान तराइन के दूसरे युद्घ में घायल हो गये थे। तब उन्हें उनके सैनिक घायलावस्था में लेकर चल दिये, तो मुसलमानों ने भारत के शेर को समाप्त करने का यह उत्तम अवसर समझा। कहा जाता है कि सिरसा के पास दोनों सेनाओं की मुठभेड़ हो गयी। यहां पर भी जब गौरी ने अपनी पराजय होते देखी, तो कुछ ही दूरी पर घास चर रही कुछ गायों को अपनी सहायता का अचूक शस्त्र समझकर वह उनकी ओर भागा।
गौरी के पीछे पृथ्वीराज चौहान ने अपना घोड़ा दौड़ा दिया। तब गौरी और उसके सैनिकों ने अपने प्राण बचाने के लिए पृथ्वीराज चौहान की सेना की ओर गायों को कर दिया और स्वयं उनके पीछे हो गये। उसने अपने सैनिकों को आज्ञा दी कि सभी इन गायों को काटने के लिए अपनी-अपनी तलवारें इनकी गर्दनों पर तान लें। सभी सैनिकों ने ऐसा ही किया। तब गौरी ने भारत के हिंदू सम्राट से इन गायों की हत्या रोकने के लिए आत्मसमर्पण की शर्त रखी।
कहा जाता है कि पृथ्वीराज चौहान गायों की संभावित प्राण हानि से कांप उठा। उसका हृदय द्रवित हो गया और गायों के प्रति असीम करूणा व आस्था का भाव प्रदर्शित करते हुए वह घायलावस्था में अपने घोड़े से उतरा, एक हाथ में तलवार लिए धरती पर झुका तथा एक भारत की पवित्र मिट्टी को माथे से लगाकर गौमाताओं को प्रणाम करते हुए उनकी रक्षा के लिए विदेशी शत्रु के समक्ष अपनी तलवार सौंप दी।
वास्तव में यह तलवार पृथ्वीराज चौहान की तलवार नही थी, अपितु यह तलवार भारत के गौरव और स्वाभिमान की तलवार थी। कुछ लोगों ने गौरी के इस कपट को निष्फल करने के लिए पृथ्वीराज चौहान से यहां अपेक्षा की है कि वह उस समय आपद-धर्म का निर्वाह करते हुए कुछ गायों का भी वध कर डालता तो कुछ भी अपराध नही होता, उसे आत्मसमर्पण करने में शीघ्रता नही करनी चाहिए थी। परंतु जैसे भी हुआ, जो भी हुआ वह भारत का दुर्भाग्य ही था। यह सच है कि मैदान में भारत को इस समय हराना गौरी के लिए असंभव था, पृथ्वीराज चौहान भी यदि छल और कपट को अपनाकर शत्रु को शत्रु की भाषा में ही उत्तर देते तो निश्चय ही परिणाम कुछ और ही आते और देश का इतिहास भी तब कुछ और ही होता।
अंतिम दृश्य का एक अन्य चित्रण
दामोदरलाल गर्ग ने अपनी पुस्तक ”भारत का अंतिम हिंदू सम्राट: पृथ्वीराज चौहान” में पृथ्वीराज के जीवन के अंतिम क्षणों का रोमांचकारी चित्रण इस प्रकार किया है:-(सिरसा गढ़ के इस युद्घ के समय) चौहान नरेश का मनोबल यथावत था। शीघ्रता से हाथी को त्यागकर घोड़े पर सवार होकर सिरसागढ़ को अपनी सुरक्षा का कवच बनाने की दृष्टि से शत्रु के घेरे को तोड़ते हुए निकल भागा। शत्रु पक्ष के एक दल ने चौहान का पीछा किया। चौहान ने सिरसा के निकट पहुंचकर पीछा करते हुए दल का सामना किया, जहां अंतिम गति प्राप्त होने से पूर्व अनेकानेक शत्रुओं को भी यमलोक का रास्ता दिखा दिया। अंत में राजपूताने का शेर, (भारत की) स्वतंत्रता का पुरोधा, सूर्य कुल का भूषण, शाकंभरीश्वर महाराजा पृथ्वीराज चौहान का सूर्य अस्त हो गया और वह वीरांगना स्त्री (श्यामली) भी साथ ही शहीद हो गयी। सूर्य अस्त हो चुका है। चौहान चिरनिद्रा में लीन हो धरती की कठोर शैया पर लेटे हैं। विशाल नेत्र बंद हैं, और चेहर आकाश की ओर है। इसके पास ही शत्रु सैनिकों के अनेकानेक शव क्षत विक्षत से बिखरे पड़े हैं। उनके कई अश्वों की लाशें भी दिखाई पड़ रही हैं।
चौहान नरेश के शरीर पर करीब 24 से ज्यादा घावों से रक्त प्रवाहित हो रहा है। श्यामली के शरीर पर उससे भी अधिक घाव हैं। यह चौहान नरेश के चरणों में सिर रखकर ऐसे पड़ी है, मानो स्वाभाविक रीति से सो रही हो। इसके घावों से बहा रक्त चौहान के रक्त में मिलकर एक हो चुका है।
जो जीवन में कभी संभव नही हुआ वह मृत्यु ने आज कर दिखलाया।
चौहान की मृत्यु का रहस्य
हमारे अनेकानेक वीरों की शहादत पर सदियों से रहस्य का पर्दा पड़ा हुआ है। विदेशी लेखकों ने कई बार ईष्र्यावश तो कई बार जानबूझकर इस रहस्य को और भी अधिक गहराने का कार्य किया है। दुख की बात ये है कि हमारे देशी लेखकों ने भी इन रहस्यों से पर्दा उठाना उचित नही समझा।
पृथ्वीराज चौहान के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। उनकी मृत्यु पर आज तक रहस्य बना हुआ है। कथा इस संबंध में यही है कि पृथ्वीराज चौहान को तराइन के युद्घ में कैद कर लिया गया और गौरी उसे गजनी ले गया। जहां चौहान के दरबारी कवि चंदबरदाई ने किसी प्रकार अपने स्वामी से जेल में ही संपर्क स्थापित किया और शब्दभेदी बाण चलाने की चौहान की प्रतिभा का प्रदर्शन गौरी के राजदरबार में कराया। जिसमें अंधे कर दिये सम्राट ने चंद्रबरदाई के संकेत पर व गौरी की आवाज पर तीर चलाया तो गौरी का अंत करते हुए वह तीर मौहम्मद गौरी के सीने से पार निकल गया। तब गौरी के सैनिकों द्वारा अपनी हत्या होने से पहले ही इन दोनों वीरों ने अपने अपने जीवन का अंत एक दूसरे की गर्दन उतारकर कर लिया।
दूसरा, तथ्य इस संबंध में ये है कि पृथ्वीराज चौहान के जीवन का अंत तराइन के युद्घ क्षेत्र में ही हो गया था। दामोदरलाल गर्ग कुछ नवीन तथ्यों के आधार पर सिद्घ करते हैं कि पृथ्वीराज चौहान ने सिरसा के पास हुए युद्घ में शत्रु के हाथों न मरकर आत्महत्या कर ली थी। गौरी का काजी रहा मिनहाजुस सिराज भी कुछ ऐसा ही संकेत देता है और वह कहता है कि पृथ्वीराज चौहान का अंत सिरसा के युद्घ में ही हो गया था। अब नवीन साक्षियों और प्रमाणों के आधार पर यही धारणा बलवती होती जा रही है कि पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु तराई के दूसरे युद्घ में सिरसा के पास ही हो गयी थी।
यह भी तो विचारणीय है
यदि पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु गौरी के राजभवन में हुई और गौरी का अंत भी चौहान के हाथों हुआ तो कुछ नये प्रश्न आ उपस्थित होते हैं। यथा इस बात के स्पष्ट प्रमाण हंै कि गौरी ने अपने देश के प्रति कृतघ्नता करने वाले जयचंद को तराइन के युद्घ से दो वर्ष पश्चात परास्त किया और उसका वध करके उसकी जीवनलीला समाप्त कर दी। यह घटना 1194 ई. की है। जब गौरी इस घटना तक जीवित रहा तो उसके 1192 ई. में ही मरने का प्रश्न ही नही होता।
पंजाब ने लिया था प्रतिशोध
भारत के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान को तथा ‘देशद्रोही’ जयचंद को परास्त करने के पश्चात मुहम्मद गौरी का दुस्साहस बढ़ गया। अब उसे यह निश्चय हो गया था कि भारत में उसका सामना करने वाली कोई शक्ति नही रह गयी। अत: उसने एक के पश्चात एक भारत पर कई आक्रमण किये। उसके द्वारा विजित कुछ क्षेत्रों की देखभाल उसका एक कुतुबुद्दीन नामक दास कर रहा था, उसने भी पृथ्वीराज चौहान के बिना अनाथ हुए भारत में कई स्थानों पर अपने आतंक और अत्याचार से लोगों को उत्पीडि़त किया। परंतु उसे राजस्थान के अजमेर में राजस्थान के मेदों और चौहानों ने अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करते हुए परास्त कर मुंह की खाने के लिए विवश कर दिया था। 1204 ई. में अंधखुद के संग्राम में ख्वारिज्म के शासकों ने स्वयं गौरी को परास्त कर पृथ्वीराज चौहान को अपनी श्रद्घांजलि अर्पित की।
उधर वीरभूमि पंजाब ने पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के पश्चात से ही विदेशियों के विरूद्घ विद्रोही दृष्टिकोण दिखाना आरंभ कर दिया। पंजाब के युवाओं का और देशभक्तों का रक्त अपने सम्राट के वध का प्रतिशोध लेने के लिए उबल रहा था। यह पावन भूमि विदेशी आततायी द्वारा किये गये भारत माता के अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए व्याकुल हो उठी थी। इसलिए इस भूमि के साहसी और देशभक्त वीरों ने कुतुबुद्दीन के विरूद्घ विद्रोही दृष्टिकोण अपनाना आरंभ कर दिया। लाहौर के पास किसी स्थान पर उस समय गौरी भी था। गौरी हिंदुस्तान में व्याप्त अशांति और बेचैनी को समझ नही पा रहा था, कि इस अशांति और बेचैनी का कारण क्या है? जबकि भारत का प्रत्येक बच्चा अपने सम्राट के तेज से भर रहा था। यह भारत की प्राचीन परंपरा रही है कि किसी भी महापुरूष के पगचिन्हों पर चलने वाले उस महापुरूष के चले जाने के पश्चात अधिक उत्पन्न होते हैं। क्योंकि महान विरासत का सम्मान करना भारत का सा
इस प्रकार एक शत्रु का अंत कर दिया गया। परंतु इस विवरण को भारत के प्रचलित इतिहास से विलुप्त कर दिया गया है। क्योंकि इस प्रकार के उल्लेख से हिंदुओं की वीरता प्रदर्शित होती है। सन 1206 में ही मुहम्मद गौरी के मारे जाने का एक स्पष्ट प्रमाण ये भी है कि उसकी मृत्यु के इसी वर्ष में कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत में गुलाम वंश की स्थापना की। यदि गौरी 1192 ई में ही मर जाता तो ऐबक 14 वर्ष तक अर्थात 1206 ई. तक अपने स्वामी मौहम्मद गौरी की ‘खड़ाऊओं’ से उसके द्वारा भारत के विजित क्षेत्रों पर शासन कभी नही करता। निश्चित रूप से ऐबक अपने आपको 1192 ई. में ही भारत का सुल्तान घोषित करता और यहां पर स्वतंत्र शासक के रूप में शासन करना आरंभ कर देता।
यदि पृथ्वीराज चौहान जैसे अपने चरितनायक के जीवन से हम बहुपत्नीकता और उसके ‘अहंकारी स्वभाव’ को निकाल दें तो उस जैसा आदर्श वीर राजा उस समय तो दुर्लभ ही था। कदाचित यही कारण रहा कि उसे ही हमने ‘अंतिम हिंदू सम्राट’ कहना स्वीकार कर लिया, और यह भी कि उसकी मृत्यु के उपरांत भारत अपनी राजनीतिक एकता को स्थापित नही रख पाया। उसका पतन हुआ और पतन के मार्ग पर चलते हुए भारत में यहां के कुछ क्षेत्रों पर विदेशी आक्रांताओं को अपना राज्य स्थापित करने का अवसर उपलब्ध हो गया।
मुख्य संपादक, उगता भारत