ऋषि दयानंद ने वेदों में भरे ज्ञान भंडार से समाज व मानव जाति को परिचित कराया
ओ३म्
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महाभारत के बाद वेदों की रक्षा एवं प्रचार के लिये उत्तरादायी लोगों के आलस्य प्रमाद के कारण वेद विलुप्त हो गये थे और देश व समाज में वैदिक ज्ञान के विपरीत अन्धविश्वास तथा सामाजिक कुरीतियां आदि प्रचलित हो गईं थी। इसी कारण हमारा पतन व देश की पराधीनता जैसे कार्य हुए। ऋषि दयानन्द ने सत्य ज्ञान की खोज करते हुए वेदों के सत्य ज्ञान को प्राप्त हुए थे और अपने विद्या गुरु प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी की प्रेरणा से उन्होंने देश व विश्व से अविद्या को दूर कर विद्या का प्रकाश करने के लिये वेद एवं वैदिक मान्यताओं वा सिद्धान्तों का प्रचार किया था। विद्या के प्रचार प्रसार के लिये ही उन्हें असत्य अज्ञान पर आधारित धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं का खण्डन एवं सत्य ज्ञान पर आधारित वैदिक मान्यताओं का तर्क एवं युक्ति सहित मण्डन करना पड़ा था। उन्होंने सत्य ज्ञान का स्वरूप देश की जनता के सम्मुख रखा था और उन्हें सत्य का ग्रहण करने और असत्य का त्याग करने व न करने की स्वतन्त्रता दी थी। मनुष्य का कर्तव्य होता है कि वह विद्वानों की संगति, सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय तथा अपने निजी चिन्तन, मनन से सत्य को जाने व उसको ग्रहण करें तथा उसके जीवन व समाज में जहां कहीं असत्य, अन्धविश्वास व अविद्या आदि हो, उसका त्याग करने कराने में अपने जीवन को सत्याचरण को समर्पित करके वेदों की सत्य मानयताओं व सिद्धान्तों का प्रचार करे। यह बात स्वीकार तो प्रायः सभी मनुष्य, विद्वान व धर्माचार्य भी करते हैं परन्तु व्यवहार व आचरण में यह देखने को नहीं मिलता। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में लिखा है कि मनुष्य का आत्मा सत्य व असत्य को जानने वाला होता है किन्तु अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह एवं अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ कर असत्य में झुक जाता है। यही स्थिति समाज में देखने को मिलती है कि बहुत से लोग अविद्या एवं अन्य दोषों के कारण सत्य से विमुख तथा असत्याचरण से युक्त हैं।
वेद ईश्वर प्रदत्त सत्य ज्ञान का भण्डार हैं। वेदों की सभी बातें सत्य एवं यथार्थ हैं। वेद सत्याचरण की ही प्रेरणा और असत्य आचरण का त्याग करने को कहते हैं। अतः वेद निहित ईश्वर की आज्ञा का सब मनुष्यों को समान रूप से पालन करना चाहिये। इसी में सब मनुष्यों का कल्याण निहित है। इसी रहस्य को जानकर ऋषि दयानन्द ने अपने गुरु स्वामी विरजानन्द जी की प्रेरणा से वेद प्रचार करते हुए सत्य मान्यताओं से युक्त सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ लिख कर मनुष्य को सत्य मान्यताओं व विचारों से अवगत कराया था। यदि हम सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन व सिद्ध सत्य सिद्धान्तों का पालन करते हैं तो यह हमारा ही सौभाग्य होता है और यदि नहीं करते तो हम अपनी ही हानि करते हैं। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करें और वही कार्य करें जिसमें उसका जन्म जन्मान्तरों में हित सिद्ध हो। हानि का कोई कार्य तो किसी भी मनुष्य को कदापि नहीं करना चाहिये। ऋषि दयानन्द जी का सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ मनुष्य जाति को उसके कर्तव्यों का बोध कराकर उन्हें सत्य कर्मों को बताता भी है व उन्हें करने की प्रेरणा करता है। सत्यार्थप्रकाश में जिन मान्यताओं का पोषण हुआ है वह सब सृष्टि की आदि से वेदों में निहित हैं और आर्यावर्त वा भारत किंवा विश्व के सभी लोग इनका पक्षपातशून्य होकर पालन भी किया करते थे। ऐसी अवस्था में ही विश्व में लोग सुख व शान्ति पूर्वक निवास करते थे और सामान्य जीवन व्यतीत करते हुए पूर्ण स्वस्थ, सुखी, प्रसन्न और सन्तुष्ट रहते थे।
ऋषि दयानन्द (1825-1883) के समय में सृष्टि की आदि में ईश्वर से प्राप्त चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान विलुप्त हो चुका था। इसका स्थान अज्ञान, अन्धविश्वासों, मिथ्या मान्यताओं, सामाजिक कुरितियों आदि ने ले लिया था। इन अन्धवश्वासों आदि के कारण सभी लोग प्रायः दुखी थे तथा धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति सहित आत्मा की ज्ञानोन्नति सहित परमात्मा के ज्ञान व उपासना से पृथक थे। देश विदेशी शक्तियों के अधीन परतन्त्र था। विदेशी स्वदेशवासियों का शोषण व उन पर अन्याय व अत्याचार करते थे। पहले भारत की सम्पदा को लूट कर अरब के देशों में ले जाया गया था और अंग्रेजों की गुलामी के दिनों में हमारी बहुमूल्य सम्पदाओं को इंग्लैण्ड ले जाया जाता था। हमारे लोगों का निर्धनता के कारण लोभ, बल व छल से धर्मान्तरण किया जाता था। हमारी संस्कृति को नष्ट करने के प्रयत्न भी किये जाते थे। हमारी वैदिक शिक्षा को समाप्त कर दिया गया था। सातवीं शताब्दी के बाद विदेशी आततायियों ने हमारे मन्दिरों को तोड़ा व लूटा था तथा हमारी माताओं व बहिनों को अपमानित किया था। देश में लोगों को शिक्षित करने के लिये पर्याप्त संख्या में गुरुकुल व विद्यालय नहीं थे। अधिकांश मातायें व बहिने अशिक्षित ही रहती थीं। ऐसे समय में वेदज्ञान से सम्पन्न व ब्रह्म तेज से देदीप्यमान वेद ऋषि दयानन्द सरस्वती का प्रादुर्भाव हुआ। ऋषि दयानन्द ने सत्य की खोज में अपना पितृगृह छोड़ा था और ज्ञानी व योगियों की संगति कर सच्चे सिद्ध योगी बने थे। सच्चा योगी वह होता है जिसे सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर का अपनी आत्मा में साक्षात्कार हुआ हो। सिद्ध योगी ईश्वर, धर्म, सामाजिक नियम एवं परम्पराओं के ज्ञान व पालन आदि सभी विषयों में निःशंक एवं निर्भरान्त होता है। ऐसा व्यक्ति ही समाज का सच्चा नेता होने की योग्यता रखता है। सच्चा योगी निष्पक्ष व परोपकारी होता है। इन सभी योग्यताओं से युक्त ऋषि दयानन्द थे और उन्होंने स्वयं को देश की जनता का सच्चा पुरोहित व नेता सिद्ध किया।
ऋषि दयानन्द ने अपने अपूर्व पुरुषार्थ से स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी के शिष्यत्व में लगभग तीन वर्ष में वेदांगों का अध्ययन कर वेदाध्ययन पूर्ण किया था। वेदाध्ययन व योग सिद्धियों से वह निर्भरान्त ऋषि बने थे। उन्होंने पाया था कि सारा देश अविद्या से ग्रस्त है। पराधीनता सहित सभी दुःखों व समस्याओं का कारण अविद्या व अंसगठन का होना ही था। अतः देश व समाज सुधार की दृष्टि से अविद्या को दूर कर विद्या का प्रकाश व वृद्धि करने के लिये ऋषि दयानन्द जी ने वेदों के सिद्धान्तों का देश देशान्तर में घूम कर मौखिक प्रवचन व उपदेशों के द्वारा प्रचार किया। निष्पक्ष व शिक्षित मनुष्य उनके विचारों से प्रभावित होते थे। वह जहां भी जाते थे लोग बड़ी संख्या में उनके विचार सुनने आते थे और अन्धविश्वासों से युक्त अपने आचरणों व व्यवहारों का सुधार भी करते थे। लोग परम्परागत मत व विश्वासों को छोड़ कर वैदिक धर्म को अपनाते थे। ऋषि दयानन्द के प्रचार से पूरे देश में हलचल मच गई थी। ईसाई पादरी व सरकार के बड़े बड़े अधिकारी भी ऋषि दयानन्द के वेद प्रवचन व समाज सुधार विषयक विचारों को सुनने उनकी सभाओं में आते थे। धार्मिक विषयों पर भी ऋषि दयानन्द परमतावलम्बियों से शास्त्र चर्चायें व शास्त्रार्थ आदि किया करते थे। उन्होंने 16 नवम्बर, 1869 को तत्कालीन विद्या व धर्मनगरी काशी में30 से अधिक शीर्ष पौराणिक आचार्यों से अकेले मूर्तिपूजा के वेदविहित होने पर शास्त्रार्थ किया था। इस शास्त्रार्थ में ऋषि दयानन्द का पक्ष, मूर्तिपूजा वेदोक्त नहीं है, सत्य सिद्ध हुआ था। आज तक भी कोई व्यक्ति मूर्तिपूजा के समर्थन में वेदों का कोई प्रमाण प्रस्तुत कर पाया है और न ही सत्यार्थप्रकाश में लिखे सर्वव्यापक ईश्वर के स्थान पर उसकी मूर्तिपूजा पद्धति को सत्य सिद्ध कर पाया है।
समय व्यतीत होने के साथ ऋषि दयानन्द ने अपने अनुयायियों के निवेदन पर मुम्बई में एक वेद प्रचार आन्दोलन‘आर्यसमाज’ की स्थापना10 अप्रैल, 1875 को की थी। इस संगठन के नियम भी निर्धारित किये गये थे जो किसी भी सामाजिक संगठन के नियमों से श्रेष्ठ है। सभी नियम तर्क व युक्ति की कसौटी पर सत्य हैं तथा सभी वेदानुकूल भी हैं। आर्यसमाज का कोई नियम समाज के किसी वर्ग के अहित में नहीं है। आर्यसमाज की स्थापना होने के बाद ऋषि दयानन्द वेद प्रचार के लिये जहां जहां जिन स्थानों पर जाते थे, वहां वहां आर्यसमाजें स्थापित होती थी। सभी आर्यसमाजें सत्संग व उत्सव किया करती थी। अपने आसपास समाज सुधार व शिक्षा के प्रसार पर भी ध्यान दिया करती थी। लोगों को वेद व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थ पढ़ने की प्रेरणा दी जाती थी जिससे सभी अन्धविश्वास दूर होकर सामाजिक एकता सुदृण होती है। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के अतिरिक्त संस्कृत-हिन्दी ऋग्वेदभाष्य आंशिक तथा यजुर्वेद भाष्य सम्र्पूण की रचना का महत्वपूर्ण कार्य किया जिससे वेदों सबंधी सभी भ्रान्तियां एवं आशंकायें दूर हुई हैं। ऋषि दयानन्द ने वेदों की भूमिका ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका लिखकर भी महान उपकार किया है। इस ग्रन्थ से वेदों का सत्यस्वरूप व उनके सब सत्यविद्याओं का ग्रन्थ होने की पुष्टि होती है। ऋषि दयानन्द ने सृष्टि के आदि में प्रचलित 16 संस्कारों को करने के लिये संस्कार विधि ग्रन्थ की रचना की तथा ईश्वर उपासना के लिये पंचमहायज्ञविधि के अन्तर्गत वैदिक सन्ध्या तथा उपासना के लिये आर्याभिविनय ग्रन्थ की भी रचना की है। इन ग्रन्थों के प्रचार, वेदों के स्वाध्याय तथा आर्यसमाज द्वारा संचालित गुरुकुल व डीएवी स्कूल व कालेजों से भी वेदों का प्रचार होता है।
ऋषि दयानन्द ने वेद प्रचार के अन्तर्गत जो जो कार्य किये उससे देश व विश्व के लोग वेदों में निहित ज्ञान के भण्डार से परिचित हो सकें हैं। यदि ऋषि दयानन्द वेदों का न अपनाते और प्रचार न करते तो देश से अविद्या दूर न होती और विश्व के लोग वेदों के सत्यस्वरूप सहित उनमें निहित ईश्वर प्रदत्त ज्ञान के भण्डार से जो सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को प्राप्त हुआ था, कदापि परिचित न हो पाते। हम ऋषि दयानन्द को उनके सभी देशहितकारी व उपकार के कार्यों के लिए नमन करते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य