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देहरादून निवासी श्री कृष्ण कान्त वैदिक शास्त्री वरिष्ठ वैदिक विद्वान हैं। आपने स्कूल वक कालेज की शिक्षा प्राप्त की और उसके आधार पर उत्तर प्रदेश सरकार में उच्च सरकारी पद संयुक्त कमिश्नर को सुशोभित किया। अपने सरकारी पद पर कार्य करते हुए उन्होंने संस्कृत व्याकरण का अध्ययन किया। सेवा निवृत्ति के बाद गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय से संस्कृत विषय में उन्होंने एम.ए. किया। उन्हें एम.ए. संस्कृत में स्वर्ण पदक भी प्राप्त हुआ था। इसके बाद आपने गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार के वेद विभाग के प्रोफेसर डा. दिनेश चन्द्र शास्त्री जी के निर्देशन में अथर्ववेद के अध्ययन में शोध उपाधि पी.एच-डी. प्राप्त की है। डा. वैदिक देहरादून स्थित प्रसिद्ध वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून की मासिक पत्रिका ‘पवमान’ के मुख्य सम्पादक भी हैं। कल दिनांक 26-1-2021 को उनके पिता की 54 वीं की पुण्य तिथि थी। इस अवसर पर वैदिक जी ने अपने पिता को श्रद्धांजलि देते हुए उनके जीवन के कुछ पक्षों को स्मरण किया है। हम इस लेख के माध्यम से उनकी अपने पिता श्री मायाराम आर्य जी को समर्पित श्रद्धांजलि प्रस्तुत कर रहे हैं।
वैदिक विद्वान डात्र कृष्णकान्त वैदिक शास्त्री लिखते हैं ‘आज के दिन हम पांचों भाइयों और बहिन के ऊपर से पिता का साया उठ जाने से हम पिवृविहीन हो गये थे। सभी मनुष्यों के निर्माण में माता, पिता और आचार्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है- ‘मातृमान् पितृमानाचार्यवान् पुरुषो वेद’ अर्थात् एक माता दूसरा पिता और तीसरा आचार्य होवंे तभी मनुष्य ज्ञानवान् होता है। महर्षि दयानन्द ने इसका अनुवाद सत्यार्थप्रकाश में करते हुए लिखा है कि वह कुल धन्य और वह सन्तान बड़ा भाग्यवान् होता है, जिसके माता और पिता धार्मिक विद्वान् हों। यह हमारा सौभाग्य है कि हमें ऐसे ही माता, पिता और आचार्य जन मिले। इससे न केवल हमारा चरित्र निर्माण हुआ, अपितु जीवन में हम कुछ सीमा तक प्रगति भी कर पाये हैं।
हमारे पिता स्मृतिशेषः मायाराम आर्य का जन्म सन् 1910 में देहरादून जनपद के एक ग्राम रानी-पोखरी में एक किसान परिवार में हुआ था। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा गांव के ही प्राइमरी विद्यालय में हुई थी। आपने फिर दूसरे किसी विद्यालय से हाईस्कूल तक शिक्षा प्राप्त की। उस समय यह एक कीर्तिमान था क्योंकि बिरले विद्यार्थी ही इस स्तर तक शिक्षा प्राप्त कर सकते थे। वह अपने क्षेत्र के गिने चुने विद्यार्थियों में से एक थे, जिन्होंने यहां तक शिक्षा प्राप्त की थी। फिर आपने अपनी व्यवसयिक जिन्दगी प्राइमरी विद्यालय के शिक्षक के रूप में प्रारम्भ की। उसके बाद आप का चयन जिला पंचचायत के अन्तर्गत रिक्लेमेशन विभाग में सुपरवाइजर के पद पर हो गयां। यहां आपके द्वारा सम्पूर्ण गढ़वाल का भ्रमण कर प्राइमरी विद्यालयों का निरीक्षण करना होता था। अंग्रेजी शासनकाल में उस समय गढ़वाल के अन्तर्गत चमोली भी आता था, जो बाद में एक नया जिला बन गया था। कहने का तात्पर्य यह है कि यह एक विस्तृत क्षेत्र था। यहां पर आगमन का साधन पैदल और खच्चर (पहाड़ी घोड़ा) की सवारी हुआ करती थी।
आप अपना कार्य निष्ठा से करते थे। साथ ही आर्यसमाज और स्वामी श्रद्धानन्द से प्रभावित होने के कारण वहां के शिल्पकार समाज के लोगों की दशा देख कर उनके मन में पीड़ा होती थी। सम्पूर्ण देश में पोंगा पण्डितों के द्वारा ब्राह्मण और कुछ समृद्ध क्षत्रियों के अतिरिक्त अन्य जाति के बच्चों के नाम अशुद्ध और उलटे-सीधे रखे जाते थे। आपने ऐसे सभी बच्चों के नामों में सुधार करवाया ओर आर्यसमाज के सिद्धान्तों से परिचित कराते हुए जातीय समरसता का प्रचार व प्रसार किया। समाज के कुछ लोगों को यह पसन्द नहीं आता था। वे उनके काम में रुकावट डालते थे। कभी उनके घोड़े को खोलकर दौड़ा देते थे। उनकी पीठ-पीछे जान से मारने की धमकियां देते थे। हमारे नाना जी अपने क्षेत्र के एक समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। उनका घर जो आजकल तारालौज के नाम से प्रसिद्ध है, जिला कलैक्टर और तहसीलदार के घर के निकट स्थित था और उनका इन अधिकारियों के साथ अच्छा सम्बन्ध रहता था। उस समय सन् 1935 से सन् 1940 के आसपास सरकारी नौकरियों की इतनी समस्या नहीं थी। नानाजी के आग्रह पर आपने जिला कलैक्टर के कार्यालय में लिपिक के पद पर कार्य करना स्वीकार कर लिया। यहां पर वह आजीवन कार्यरत रहे और सन् 1964 में सुपरवाइजर के पद से सेवानिवृत हुए। उस समय मैं(डा. कृष्णकान्त वैदिक शास्त्री) नवीं कक्षा में पढ़ता था।
जहां तक उनके गृहस्थ जीवन का सम्बन्ध है, वह प्रातः4 बजे उठ जाते थे और हम सभी बच्चों को भी उठकर पढ़ने के लिये बैठना पड़ता था। मित्रों! आपको याद होगा कि उस जमाने में पिता के सामने बच्चों के कुछ बोलने की हिम्मत न होती थी, तर्क करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। फीस भी हम मातजी से ही मांगते थे। पिताजी सुबह उठकर कसरत, प्राणायाम आदि के बाद स्नान करते थे। उसके बाद सन्ध्या करने के उपरान्त ही अन्य कार्य करने में तत्पर होते थे। आपके पास सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, कर्तव्य दर्पण, सत्संग गुटका आदि कई पुस्तके थीं, जो आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं। उन्होंने हमें वैदिक आचार-विचारों से अवगत कराया और ऐसी शिक्षा प्रदान की जिससे हमें भारतीय वैदिक संस्कृति का भी परिचय मिला और हम एक अच्छे नागरिक बनने में सफल रहे हैं। आपने 26 जनवरी सन् 1967 में लकवे से ग्रस्त होने के बाद यह नश्वर शरीर छोड़ दिया। अपने पीछे हमें वह जो संस्कारों की थाती छोड़ कर गये हैं, वही हमारी असली विरासत है। हम उन्हें अश्रुपूरित नेत्रों से शत् शत् नमन करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।’
श्री मायाराम आर्य ने डा. कृष्णकान्त वैदिक जी को जो वैदिक संस्कार दिये उसी का परिणाम है कि आर्यसमाज को एक समर्पित ऋषिभक्त वैदिक विद्वान प्राप्त हुआ है। आज भी डा. कृष्णकान्त वैदिक प्रतिदिन ऋग्वेद के एक मन्त्र की हिन्दी में पदार्थ व्याख्या करते हैं तथा उसका अंग्रेजी में अनुवाद कर उसे फेसबुक एवं व्हटशप आदि के माध्यम से प्रसारित व प्रचारित करते हैं। उनका सम्पादकीय एवं एक लेख भी हमें प्रतिमाह पवमान मासिक पत्रिका में पढ़ने को मिलता है। हम डा. कृष्णकान्त वैदिक जी के पूज्य पिता श्री मायाराम आर्य जी को उनकी 54वीं पुण्यतिथि पर अपने श्रद्धासुमन भेंट करते हैं। हम डा. कृष्णकान्त वैदिक जी के स्वस्थ एवं दीर्घजीवन की मगल कामना भी करते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य