इक्कीसवीं शताब्दी शाकाहार की-3
गतांक से आगे…
हिंद महासागर में इंडोनेशिया और उसके आसपास के टापुओं से मछलियां और चीन, जापान तथा अन्य पूर्वी एशिया के देशों के खाने में उपयोग होने वाले जलचर इतनी बड़ी संख्या में पकड़े गये हैं कि उनका सफाया हो गया है। इसे दुनिया में डीप फिशिंग क्षेत्र कहा जाता है। विश्व में यह भाग किसी समय मछली पकडऩे का आदर्श क्षेत्र कहलाता था। क्योंकि इतनी असंख्य मछलियां दुनिया के किसी अन्य क्षेत्र में नही है। मछली पकडऩे के इस आधुनिक व्यवसाय को ब्लू क्रांति की संज्ञा दी जाती है। समुद्र के भीतरी भाग को संतुलित रखने के लिए जो जलचर महत्वपूर्ण हैं उनकी संख्या जब नहीं के बराबर हो गयी तो कुदरत ने अपना काम किया और सुनामी जैसी मौत की लहर ने समुद्र किनारे बसी दुनिया को लील लिया। कितने लोग मरे, इसका ठीक से आंकड़ा अब तक सामने नही आया है। मनुष्य को सबसे अधिक बुद्घिमान होने का दावा करता है वह तो तूफान की चपेट में आ गया, लेकिन धरती पर सैकड़ों जीव जंतु थे, जो किसी न किसी तरह अपनी जान बचाने में सफल हो गये, क्योंकि उन्हें आभास हो गया था कि तूफान आने वाला है। जमीन में छुपे सांप, चूहे जैसे अनेक प्राणी और इनसान की दुनिया में उसके साथ रहने वाले कुत्ते बिल्ली अपनी रक्षा करने में सफल रहे। इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि इन प्राणियों को समय से पहले खतरे का आभास हो जाता है लेकिन बेचारा मनुष्य कुदरत के इस अभिशाप का बुरी तरह से शिकार हो जाता है। यानी जिन्हें हम पशु की संज्ञा देते हैं, उनके पास कोई ऐसी सूझबूझ है जिससे वे सावधान हो जाते हैं, लेकिन समुद्र के इन करोड़ों जीवों को डकार जाने वाला इनसान बेबस होकर कुदरत के सामने अपना माथा झुका लेता है। इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि कौन सा प्राणी और कौन सी वनस्पति इस दुनिया को बचाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है, उसे इक्कीसवीं शताब्दी का आदमी अभी पूरी तरह से जान नही पाया है। इसमें कोई शंका नही है कि असंख्य वैज्ञानिक खोजों ने मानव को सुरक्षा प्रदान की है, लेकिन जब कुदरत नाराज होती है और बड़ा तूफान आता है उस समय मनुष्य आज भी लाचार ही दिखाई पड़ता है। कितनी मछलियां मारी जाएं और जो अन्य जलचर, जिन्हें मनुष्य अपने भोजन का निवाला बनाता है, उनमें कितने शेष रहने चाहिए, अभी उसका हिसाब विज्ञान को करना बाकी है। जिस दिन मनुष्य यह सब कर सकेगा, उसकी सुंदर दुनिया को नष्ट करने के लिए कुदरत का कहर बरपा नही होगा। इसलिए अब हिंसा और अहिंसा के होने वाले परिणामों से सारी दुनिया को अवगत कराना होगा और उन्हें बचाए रखने के लिए हमारी व्यवस्था कोा चुस्त दुरूस्त करना होगा। ज्वालामुखी सुलगने लगे हैं। जो कल तक मृतप्राय हो गये थे, वे फिर से सक्रिय हो रहे हैं। भूकंप के झटकों में लगातार वृद्घि हो रही है। उसमें केवल इनसान दफन नही होता बल्कि वह कुदरत भी दम तोड़ देती है, जिसके सहारे पर्यावरण तैयार होता है, जिसमें इनसान सांस लेता है।
विचार कीजिए दुनिया में जहां बड़े कत्लखाने हैं, वही पर भूकंप क्यों आते हैं? पिछले दिनों कभी भुज में भूकंप आया तो कभी महाराष्ट्र के उस भाग में, जो आंध्र से जुड़ा हुआ है। भारत में अलकबीर के बूचड़खाने से कौन परिचित नही है जो रूद्ररम में हैदराबाद के निकट स्थित है। जब उस परिसर में भूकंप आया तो महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिले तक को उसने हिलाकर रख दिया। किल्लरी नगर की किलकारियां इनसान की चीख और रूदन में बदल गयीं। दुनिया में जहां बड़े कत्लखाने हैं, वहां भूकंप आते रहने के क्या कारण हैं? दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के विज्ञान विभाग से जुड़े प्राध्यापक डा. बजाज और डा. अब्राहम ने सतत इस पर काम किया। उनका अध्ययन बताता है कि प्रतिदिन लाखों जानवर जो इन कत्लखानों में काटे जाते हैं, उनकी चीख न केवल वातावरण में अपितु धरती की परत को चीरकर भीतर तक पहुंचती है, जहां हर क्षण उठती रहने वाली तरंगों का तापक्रम बढ़ जाता है। एक समय आता है कि उक्त तरंगें जमीन को चीरकर बाहर निकल आती है, जो हमारे शब्दों में भूकंप है। तुलसीदास जी ने तो स्पष्ट लिखा है-
”तुलसी हाय गरीब की कभी न खाली जाए।
ज्यों मुए खाल की चाम से लौह भसम हो जाए।।”
डा. बजाज और अब्राहम जैसे वैज्ञानिकों ने केवल तुलसी के विचार को विज्ञान का स्वर दिया है, जिसे दुनिया बहुत पहले से जानती है। कुल मिलाकर पृथ्वी के अंदर और बाहर उथल पुथल मची हुई है। यदि यह सब होता रहा तो फिर इनसान के जीवित रहने की क्या गारंटी है। मेसोपोटामिया, सिंध और मिस्र की सभ्यताएं जिस तरह से नष्ट हो गयीं, लगता है कि अपोलो यान और अंतरिक्ष विजय की ललक रखने वाली वर्तमान सभ्यता भी अंधकार के गर्त में विलीन हो जाएगी।
क्रमश: