समय के आगे बढ़ने के साथ मनुष्यों के ज्ञान के बढ़ने की बात आते ही हमें माण्डुक्य उपनिषद की याद आ जाती है। अथर्ववेद का ये उपनिषद आकार में सबसे छोटे उपनिषदों में गिना जाता है। इसके साथ ही ये उपनिषद सबसे अधिक विवादों की जड़ में रहा उपनिषद भी है। ये मुक्तिका के 108 उपनिषदों में छठे स्थान पर आता है। मुक्तिका को भगवान राम और हनुमान जी का मोक्ष के बारे में संवाद माना जाता है।
खैर वापस माण्डुक्य उपनिषद पर आते हैं। ये सिर्फ 12 मन्त्रों वाला बिलकुल छोटा सा उपनिषद है जिसमें ॐ की चर्चा की जाती है। इस उपनिषद पर गौड़पादाचार्य ने कारिका लिखी। इसमें उपनिषद के सूत्रों को समझाने की चेष्टा की गयी है। उनके कारिका जोड़ने पर इसमें 215 श्लोक जुड़ गए और ये चार अध्यायों में भी बंट गया। यानी पहले से कहीं अधिक (करीब बीस गुना) लम्बा हो गया था और बात यहीं रुकी भी नहीं।
गौड़पादाचार्य के शिष्य थे गोविन्द भगवद्पाद और उनके शिष्य थे आदि शंकराचार्य। माण्डुक्य उपनिषद अद्वैत के प्रमुख ग्रंथों में से एक माना जाता है। तो आदि शंकराचार्य ने माण्डुक्य उपनिषद की कारिका पर भाष्य लिख डाला! अब आज के दौर में संस्कृत में लिखा भाष्य तो आसानी से पढ़ा नहीं जा सकता, इसलिए भाष्य के साथ अनुवाद भी आते हैं। इस तरह माण्डुक्य उपनिषद जो बारह मन्त्रों का होता है, वो अब करीब ढाई सौ पन्ने का है।
जहाँ तक विवादों का सवाल है, ये विवादों में इसलिए रही है क्योंकि कुछ विदेशी “विद्वान” इसे बौद्ध दर्शन से प्रभावित बताने पर तुले थे। उनके शून्य के सिद्धांत से कुछ मिलते-जुलते से लगने वाले चतुर्थ अवस्था की बात यहाँ भी थी। इस बात को स्थापित नहीं किया जा सका क्योंकि आत्म जैसे सिद्धांतों को बौद्ध मानते नहीं है। चित्त की जो बात माण्डुक्य उपनिषद में होती है वही बौद्ध काल से पूर्व के माने जाने वाले बृहदारण्यक उपनिषद में भी मिल जाती है।
बारह मन्त्रों से कई श्लोकों तक पहुँच गए इस उपनिषद, उसकी कारिका और फिर भाष्य पर चर्चा इसलिए क्योंकि अगर जानकारी को हर सौ साल में दोगुना होता हुआ भी माना जाये तो सनातन धर्म के हजारों वर्षों में माण्डुक्य उपनिषद का आकार कितना बड़ा हो गया होता? अच्छा है कि भगवान श्री कृष्ण भगवद्गीता को उपनिषदों का सार बता देते हैं। सातवें अध्याय के आठवें श्लोक के एक छोटे से हिस्से में ही ॐ का महत्व पता चल जाता है।
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु।।7.8
अर्थात, कुन्तीनन्दन जलों में रस मैं हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रभा (प्रकाश) मैं हूँ, सम्पूर्ण वेदों में प्रणव (ओंकार) मैं हूँ, आकाश में शब्द और मनुष्यों में पुरुषार्थ मैं हूँ।
#गीतायन #Gitayan
बचपन में जो चीज़ें सबसे अनोखी लगती हैं, उनमें से एक होती है परछाई | कभी लम्बी हो जाती है, कभी छोटी हो जाती है | धुप निकले तो होती है, कभी कभी नहीं भी होती है | कई बच्चे अपनी परछाइयों से ही खेलते बड़े होते हैं | परछाई वैज्ञानिक चीज़ है | परछाई के होने के लिए रौशनी का होना बहुत जरूरी है | कोई भी वस्तु, कोई शरीर जितनी रौशनी को रोक देता है, वही परछाई हो जाती है | कस्बों में जहाँ बिजली जाती है और टॉर्च घरों में आम तौर पर मिल जाता है वहां रात में टॉर्च से दिवार पर परछाई बना कर खेलना आम बात है | हिरण, खरगोश बनाये जाते हैं परछाई से |
चाहे याद हो या ना याद हो परछाई से प्रयोग हम सब ने किये होते हैं | कभी रौशनी पर रौशनी का असर देखा है ?
मेरा मतलब है अगर एक मोमबत्ती जला ली जाए और दिवार पर उसकी परछाई बनाने की कोशिश की जाए तो क्या होगा ? कोशिश से पहले ईशवास्य और बृहदारण्यक उपनिषद का वो प्रसिद्ध “ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥“ वाला मन्त्र याद कर लीजिये | इसका मतलब मोटे तौर पर आपको पता है | नहीं याद आ रहा तो अभी याद आ जायेगा |
जलती हुई मोमबत्ती को दिवार के पास ले जा कर जब आप उसपर टॉर्च से रौशनी डालते हैं, तो मोमबत्ती की छाया दिवार पर बनती है | लेकिन उसकी जलती हुई लौ की परछाई दिवार पर नहीं बन रही होती | जब आप जलती हुई लौ पर टॉर्च की रौशनी डालेंगे तो लौ की रौशनी में टॉर्च की रौशनी जुड़ जाने से लौ की रौशनी बढ़ नहीं जाती | वो जितनी है, उतनी ही रहेगी | यानि जो लौ पहले ही रौशन है उसमें और रौशनी जोड़ी नहीं जा सकती | जो पूर्ण है उसमें कुछ जोड़ने से वो बढ़ेगा नहीं |
रौशनी को मोमबत्ती रोक रही होती है, इसलिए दिवार पर उसकी परछाई बनती है | लौ भी टॉर्च की रौशनी और दिवार के बीच में है लेकिन वो पहले ही पूर्ण है, इसलिए उसमें से टॉर्च जितनी रौशनी घटा भी दी जाए तो कुछ कम नहीं होता | कमरे में मोमबत्ती की वजह से जितनी रौशनी है उसमें कोई कमी नहीं आती | पूर्ण में से कुछ कम नहीं किया जा सकता |
इसके अलावा इस प्रयोग में एक और चीज़ पर आपका ध्यान जायेगा | कमरे में आपने मोमबत्ती और परछाई देखने के लिए अँधेरा किया होगा | मोमबत्ती जलाते ही वो दूर हो गया | लौ बहुत छोटी सी है, अपने से कई गुना बड़े कमरे में रौशनी कर रही है | कोई भेद-भाव नहीं कर रही, जिस वस्तु से जैसा रंग निकलता है, वो उसी को दिखाएगी | लौ खुद गर्म नहीं होती, लेकिन वो गर्मी पैदा करती है | लौ खुद में रौशनी भी नहीं होती, लेकिन वो रौशनी पैदा करती है |
अब आप ईशवास्य और बृहदारण्यक उपनिषद का प्रसिद्ध “ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥“ मन्त्र (शांति पाठ) और उसका हिंदी अर्थ आराम से इन्टरनेट पर ढूंढ के देख सकते हैं | लेकिन कहीं आप ये सोच रहे हैं कि मैंने आपको बचपन के खेल, मोमबत्ती के किसी प्रयोग या फिर उपनिषद के एक श्लोक के बारे में एक पोस्ट पढ़ा दी है तो आप गलत सोच रहे हैं | मैंने धोखे से आपको भगवद्गीता का ग्यारहवां अध्याय पढ़ा दिया है |
मोमबत्ती की रौशनी होते ही जैसे वो कमरे में हर तरफ फ़ैल जाती है वैसे ही भगवान भी हर तरफ होते हैं | जैसे रौशनी भेदभाव नहीं करती कि यहाँ प्रकाशित करूँ और वहां ना करूँ वैसे ही भगवान भी भेदभाव नहीं करते | अगर रौशनी में कोई चीज़ लाल दिख रही है तो वो वस्तु प्रकाश के बाकी छह रंगों को सोख कर सिर्फ लाल रंग परावर्तित कर रही है | सफ़ेद के बदले लाल पर नीली रौशनी डालिए तो वो लाल चीज़ काली दिखने लगेगी | ऐसे ही इंसान, पशु, पक्षी सब गुणों के एक भाव को केवल प्रदर्शित कर रहे होते हैं | वो गुण भी उनका अपना नहीं है | कहीं और से अर्जित है |
भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में पहुँचते पहुंचते ऐसे ही कई दार्शनिक विषय आपको सोचने के लिए मिलने लगेंगे | भारतीय दर्शन की कई धाराओं का यहाँ समावेश होता है इसलिए भगवद्गीता को उपनिषदों को सार भी कहते हैं | बाकी ये नर्सरी के लेवल का है और पीएचडी के स्तर के लिए आपको खुद पढ़ना पड़ेगा, क्योंकि अंगूठा छाप तो आप हैं नहीं, ये तो याद ही होगा ? Random_Musings_On_Bhagwat_Gita
करीब सत्रह साल पहले एक फिल्म आई थी “डांसेज विथ वूल्व्स” (Dances With Wolves) जिसे सात अकादमी अवार्ड मिले थे। कई साल बाद अब हो सकता है कई लोगों को इसका नाम ना याद हो। इसकी कहानी 1863 के सेंट डेविड्स फील्ड में टेनेसी में शुरू होती है जहाँ फर्स्ट लेफ्टिनेंट जॉन डनबर युद्ध में घायल हो गया है। उसे लगता है उसकी टांग काट दी जायेगी और वो लंगड़ा होकर जीने के बदले लड़ते हुए मरना चाहता था। तो वो एक घोड़ा लेकर कॉन्फेडरेट सेना पर अकेले ही घोड़ा दौड़ा देता है। उसपर निशाना लगाने की कॉन्फेडरेट सैनिकों की कोशिश बदकिस्मती से नाकाम होती है और उसके ध्यान बंटाने से जो व्यूह टूटा उसका फायदा उठा कर यूनियन सेना लड़ाई जीत लेती है।
अब डनबर जो दुश्मन की गोलियों से बच गया था, उसे बहादुरी का इनाम और अच्छा इलाज भी मिलता है। वो ठीक हुआ तो जिस घोड़े पर बैठ के उसने चढ़ाई की थी, वो भी उसे इनाम में मिला और अपने पसंद की पोस्टिंग चुनने का मौका भी। वो पश्चिमी सीमा पर कोई जगह चुनता है ताकि जिसपर उसने हमला किया था उन लोगों को गायब हो जाने से पहले देख पाए। जिस किले पर उसे भेजा जाता है वहां के सबसे दूर की निगरानी चौकी भी वो चुन लेता है। टिम्मोंन्स नाम के जिस गाड़ीवाले के साथ वो जाता है उसपर लौटते वक्त हमला होता है और वो मारा जाता है। किले के जिस सुबेदार ने उसे पोस्टिंग दी वो भी आत्महत्या कर लेता है तो कई दिनों तक लोगों को पता ही नहीं होता कि उस चौकी पर भी कोई है।
उधर अकेला पड़ा डनबर स्थानीय कबीलों से जानपहचान बढ़ाता है और अपनी टूटी फूटी चौकी के किले की मरम्मत करता है। अपने अनुभव वो एक डायरी में नोट करता रहता है। उसकी एक भेड़िये से भी दोस्ती हो जाती है और काबिले (रेड इंडियन) उसे भेड़िये के साथ खेलता देखकर डांसेज विथ वूल्व्स बुलाने लगते हैं। एक लड़की को उसने बचाया था, वो दुभाषिये की तरह काम करती है और उसी से डनबर को प्यार भी हो जाता है। इन सब में वो किला छोड़कर लड़की से शादी करके उनके साथ रहने लगता है। एक भैंसे का झुण्ड खोजने की वजह से उसका सम्मान भी बढ़ गया था। पावनी और गोरे लोगों के बढ़ते हमले से परेशान कबीले का सरदार कबिले के जाड़े में रहने वाले ठिकाने पर जाना चाहता था। साथ आने से पहले डनबर अपनी डायरी लाने चौकी पर जाता है।
किले पर गोरे सिपाही आ गए थे और वो उसे कबिले वाला समझकर हमला कर देते हैं। उसका घोड़ा मारा जाता है और उसे भगोड़ा समझकर सब मुख्य किले पर भेज रहे थे लेकिन रास्ते में उसे कबिले वाले छुड़ा लेते हैं। उसका भेड़िया भी अबतक मारा जा चुका होता है। सिपाही कबिले का पीछा ना करें इसलिए डनबर और लड़की कबिले से अलग होने का फैसला करते हैं। फिल्म में आगे इसाई सैनिक डनबर और लड़की को ढूंढते दिखते हैं लेकिन वो उन्हें खोज नहीं पा रहे होते। अंत में दिखाते हैं कि इस घटना के तेरह साल बाद उस कबिले “सिऔक्स” (Sioux) के अंतिम आजाद सदस्य को भी अमेरिकी नियंत्रण में ले आया गया। इस तरह अमेरिकी सेना ने ग्रेट प्लेन्स पर कब्ज़ा जमाने में कामयाबी पायी।
आप जब फिल्म देखें तो डनबर के दूसरों की परम्पराओं के प्रति आकर्षण और कबिले के कुछ लोगों का गोरे इसाई के प्रति मोह भी देखिये। उसे देखकर शायद आपको “परधर्मो भयावहः” वाला तीसरे अध्याय का पैंतीसवां श्लोक भी याद आ जाए :
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।3.35।।
इसमें मोटे तौर पर ये कहा जा रहा होता है कि अच्छी तरह आचरणमें लाये हुए दूसरेके धर्म से, गुणों की कमीवाले अपने धर्म में मरना बेहतर है। किसी और के आचरण की नक़ल मृगतृष्णा सी ही होती है। अक्सर ये भी पूछा जाता है कि क्या तुम उनके जैसे हो जाना चाहते हो ? फिर क्या फर्क रह जाएगा उनमें और तुममें ?
लड़ाई झगड़े में कुछ नहीं रखा जैसी सलाह देने आये लोग कई बार इसे शुरूआती वार की ही तरह इस्तेमाल करते हैं। किस्मत से ये “फिर क्या फर्क रहेगा उनमें और हममें” का सवाल अर्जुन का भी सवाल था। शेखुलर बिरादरी का यही प्रिय जुमला दोहराते हुए अर्जुन आपको भगवद्गीता के अर्जुनविषादयोग नाम के पहले अध्याय में अड़तीसवें और उञ्चलीसवें श्लोक में दिखेंगे। मैं हथियार रखता हूँ, ये लोग मुझे निहत्था मार भी दें तो ठीक वाली दुविधा में पड़ा गिरफ्तार हुआ डनबर आपको फिल्म में भी दिखेगा। भगवद्गीता के इस पहले अध्याय में एक और अंतर दिखता है। पहले ही श्लोक में “मामकाः” और “पाण्डवाश्चैव” में धृतराष्ट्र के लिए मेरे और पराये का भेद स्पष्ट है। दूसरी तरफ अर्जुन की समस्या ये है ही नहीं कि मारूं कैसे ? उसकी दिक्कत है कि अपनों को कैसे मारूं ? उसके लिए अपने-पराये का अंतर ही नहीं है।
आगे दुसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में श्री कृष्ण ऐसे ही सवालों के जवाब में खिल्ली उड़ाते हुए कहते हैं, तू पंडितों जैसी बातें करता, हरकत तो मूर्खों जैसी कर रहा है ! पहले ही वो दुसरे श्लोक में “क्लैब्यं” यानि क्रॉस ड्रेस करने वाले अथवा नपुंसक जैसे शब्दों से भी अर्जुन को संबोधित कर चुके होते हैं। पहला और दुसरे अध्याय का शुरूआती हिस्सा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि किसी भी समस्या से निपटने के लिए उसे पहले परिभाषित करना जरूरी होता है। पहले पांच बार पूछिए, थोड़ी देर अपनी चोंच बंद कर के सुनिए कि किस समस्या की बात हो रही है, फिर जवाब देने की कोशिश कीजिये। या कहिये कि जवाब देने की कोशिश से पहले ये सुनिश्चित कीजिये कि सवाल सही-सही समझ तो लिया है ना ? जब भगवान एक पूरा अध्याय सवाल सुनते बिता देते हैं तो आप उनसे भी ऊपर हैं क्या ?
बड़े छोटे ऐसे ही मुद्दे पहले ही अध्याय से दिख जाते हैं। जैसे शिकायत करने बैठे, अपने पराये का भेद करते धृतराष्ट्र की बात नहीं सुनी जाती। उसका एक ही श्लोक है, ऐसे ही आम जीवन में भी जो हमेशा दुखड़ा ही रोता रहे उसकी बात भी एक लाइन से ऊपर कोई नहीं सुनता। सात सौ श्लोकों में जो गीता ख़त्म हो जाती है, उसके शुरूआती सात श्लोक सिर्फ शंख की ध्वनि पर खर्च कर दिए गए हैं। 100 में से एक प्रतिशत बिना किसी प्रयोजन खर्च नहीं किया गया होगा, उसके पीछे कोई कारण होना चाहिए। शंखध्वनि इतनी विशिष्ट क्यों, इसपर भी विचार किया जा सकता है। बाकी को खुद ही ढून्ढ के देखिये, क्योंकि ये जो हमने धोखे से पढ़ा डाला वो नर्सरी लेवल का है। पीएचडी के लिए आपको खुद पढ़ना पड़ेगा ये तो याद ही होगा ?
✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित