भानुप्रताप शुक्ल
कांग्रेस ही नही, कम्युनिस्ट सहित सभी अल्पसंख्यक परस्त सेकुलरिस्ट पार्टियां देशभक्ति की दौड़ भी सांप्रदायिकता की पटरी पर ही दौड़ाती है। उनके लिए महान वही है जो बहुसंख्यकों की बात बिल्कुल नही, केवल अल्पसंख्यकों की बात करे। जो स्वहित एवं दलहित को राष्ट्रहित से ऊपर रखे और अल्पसंख्यकवाद का नाद करे। कांग्रेस और वामपंथी सहित सभी सेकुलरिस्ट पार्टियां सावरकर का मूल्यांकन भी इसी संकुचित दायरे में करती है। संपूर्ण देश को यह मालुम है, कांग्रेसियों और वामपंथियों को भी मालुम होना चाहिए कि वीर सावरकर ने किसी की भी तुलना में देश को आजादी दिलाने और अंग्रेजों के हौसले पस्त करने में कम नही कुछ अधिक ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वह पहले ऐसे स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने स्वदेशी का अलख जगाने के लिए 1906 में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी। उन्होंने गांधी जी से भी पहले ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने का अभियान शुरू कर दिया था। सावरकर पर अंग्रेजों से माफी मांगने का घिनौना आरोप लगाने वाले कांग्रेसियों और वामपंथियों को क्या यह तथ्य मालुम है कि सावरकर पहले ऐसे विद्यार्थी थे जिसे ब्रिटिश हुकूमत ने छात्रावास से केवल इसलिए निकाल फेंका था कि उसने अंग्रेजों के दमन के खिलाफ आवाज बुलंद की थी।
स्वतंत्रता आंदोलन की भीड़ में भागीदार हजारों दरबारियों को जीवन पर्यन्त स्वतंत्रता सेनानी का सम्मान प्रदान करने वाले नेता यह भी भूल गये कि वह वीर सावरकर ही थे जिन्होंने ब्रिटिश इतिहासकारों की इस अवधारणा को गलत करार दिया था कि अंग्रेजों के विरूद्घ 1857 का प्रथम स्वातंत्रय समर मात्र कुछ सिपाहियों का विद्रोह था। वीर सावरकर पहले भारतीय नेता थे जिन्होंने सार्वजनिक रूप से लंदन में 1857 के स्वातंत्रय संग्राम की पचासवीं जयंती मनाई थी। वीर सावरकर के विरोधी यह भी जान लें कि सावरकर ही भारत के वह पहले लाल थे जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत की मांद लंदन में जाकर अंग्रेजों का विरोध किया था। सावरकर पहले और संभवत: एकमात्र ऐसे नायक थे जिनके खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय अदालत हेग में मुकदमा चलाया गया। आजादी की हुण्डी भुनाने वाले कांग्रेस के आधुनिक वंशजों को यह भी जानना चाहिए कि वीर सावरकर स्वतंत्रता संग्राम के एकमात्र ऐसे नायक थे जिन्हें अंग्रेजों ने दो जन्मों (पचास साल) के कठोर कारावास की सजा दी थी। नेहरू जी की जेल डायरी को अनोखी कीर्ति के रूप में पेश करने वाले कांग्रेसियों को वीर सावरकर के बारे में कुछ भी अपमान जनक कहने से पहले इतना तो सोच लेना ही चाहिए था कि अंग्रेजों ने सावरकर को अपनी कविताएं लिखने के लिए कलम और कागज तक नही दिया था। उन्होंने काल कोठरी की दीवारों पर अपनी कविताएं और संदेश लिखकर देशवासियों को प्रेरणा दी। वे कवि भी थे, लेखक भी थे, दार्शनिक भी थे और क्रांतिदर्शी क्रांतिकारी भी।
वीर सावरकर को सांप्रदायिक नजरिए से देखने वाले लोगों को यह भी जान लेना चाहिए कि भाषाई और मजहबी एकता के लिए उनका योगदान अमूल्य है। वह मराठी साहित्य परिषद के पहले अध्यक्ष थे। वह उस समय के पहले ऐसे हिंदू नेता थे जिनका सिखों के पांथिक संगठन शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी ने सार्वजनिक सम्मान किया था। आज उन पर यह लांछन लगाया जा रहा है कि उन्होंने अंग्रेजों से माफी मांगी थी। यदि वह अंगेजों से माफी मांग लेते और उनके मनमुताबिक चलते तो उन्हें भी कई कांग्रेसियों की तरह जेल में प्रथम श्रेणी मिली होती और वे जेल में ऐश-आराम से रहते। लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें सी और डी डेंजरस (खतरनाक) श्रेणी में रखा। अंग्रेजों ने उनके साथ क्या क्या जुल्म नही किया। उनके साथ उनके भाई को भी आजीवन करावास दे दिया। उनके परिवार की महिलाओं और बच्चों को घर से निकाल दिया। यह आरोप नही, सच्चाई है कि कई कांग्रेसी और वामपंथी नेता आजादी की लड़ाई के दौरान अंग्रेजों से बनाकर रखने की कोशिशें करते रहे थे।
जिस अंग्रेज हुकूमत ने सावरकर के भाई की पत्नी की मृत्यु हो जाने के बाद भी सावरकर और उनके भाई को घर जाने की इजाजत नही दी, उसी हुकूमत ने कमला नेहरू के बीमार पडऩे के बाद जवाहरलाल नेहरू को सजा पूरी होने से पहले सिर्फ छोड़ ही नही दिया था, बल्कि उनका इलाज करवाने के लिए विदेश जाने की इजाजत भी दी थी। यह सच है कि उनकी यह मान्यता थी कि यदि देश की बाहरी सीमाओं और आंतरिक स्थिति को पूर्णत: सुरक्षित रखना है तो हिंदुओं को शक्तिशाली बनना पड़ेगा। इसके लिए हिंदुओं का सैनिकीकरण किया जाना चाहिए। यह भी सच है कि सावरकर देश के इस्लामीकरण और ईसाईकरण के पूर्णत: खिलाफ थे। वह जानते और मानते भी थे कि देश की परंपरा और इसकी संस्कृति से नफरत करने वाले देश का भला नही कर सकते। इसलिए उन्होंने यह कहा था कि जो भारत को अपनी मातृभूमि मानेगा उसे ही भारतीय नागरिकता का पूरा अधिकार मिलेगा।
सन 1925 में मुसलमानों को खुश करने के लिए जब सिंधु प्रदेश को बंबई प्रदेश से अलग किया गया तब सावरकर ने यह चेतावनी दी थी कि कट्टर मुसलमान नेताओं के तुष्टीकरण की यह पहल एक दिन बहुत महंगी पड़ेगी और इस तुष्टीकरण का परिणाम देश के विभाजन के रूप में हमारे सामने आया। सावरकर ने भारत छोड़ो आंदोलन की शुरूआत के ठीक एक सप्ताह पहले यह भी कहा था कि गांधी और नेहरू की अपने देश के इतिहास सिद्घ अनुभवों के प्रति लापरवाही भारत को मजहब के नाम पर विभाजित कर देगी और वही हुआ। क्या सावरकर इसलिए संकीर्ण हो गये कि वे प्रखर राष्ट्रवादी थे और उन्होंने पाकिस्तान और चीन के रवैये तथा भारत विरोधी उनके इरादों से देश को सचेत किया था कि यदि तिब्बत में चीन के वर्चस्व को हमने आंख मूंदकर स्वीकार कर लिया तो वह एक दिन भारतीय सीमा में भी घुस आएगा।
श्रीमति सोनिया गांधी को यह मालुम नही है कि उन्होंने संसद के केन्द्रीय कक्ष में जिन सावरकर का चित्र लगाये जाने का विरोध किया उन्हीं सावरकर की प्रशंसा में राजाजी राजगोपालाचारी ने कहा था कि सावरकर एक राष्ट्रीय नायक थे, साहस के प्रतीक थे, बहादुर और देशभक्त थे और स्वतंत्रता संग्राम की लंबी लड़ाई के अधिरथी थे।
सुभाषचंद्र बोस चाहते थे कि सावरकर कांग्रेस में आएं। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन और यशवंतराव चाह्वाण जैसे वरिष्ठ नेताओं ने दिसंबर 1960 में वीर सावरकर का नागरिक सम्मान किया था।