गतांक से आगे….
दुनिया ने अब तक दो महायुद्घ देखे हैं। तीसरा महायुद्घ कब होगा, यह तो फिलहाल कहना कठिन है। लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि तीसरा महायुद्घ पानी के लिए होगा। चीन के चार सौ नगरों में पानी का अभाव है। चीन अपने पानी की कमी को पूरा करने के लिए हिमालय के ग्लेशियरों की दिशा चीन की ओर मोडऩे का सतत प्रयास कर रहा है। यानी हिमालय की बर्फ से वह अपना पानी का अभाव पूरा करना चाहता है। शंघाई से ल्हासा तक उसने रेल शुरू कर दी है। पूर्व में हमारे अरूणाचल प्रदेश में भी वह इसी प्रकार की गतिविधियां चल रहा हे। भारत के इन भागों पर कब्जे की नीयत तो है ही, लेकिन उससे अधिक लक्ष्य हिमालय के पानी के प्रवाह को अपनी ओर मोडऩा है तथा इस पानी को रेलों के द्वारा अपने बड़े नगरों तक ले जाना है। गरमी शुरू होने से पहले भारत में हम देखते हैं कि पानी के लिए शोर मचने लगता है। सऊदी अरब ने तो पानी की कमी को पूरा करने के लिए उत्तरी धु्रव से बड़े आइसबर्ग खींचकर अपने बंदरगाह तक लाने की योजना बनाई थी। इसके लिए एक कंपनी भी सऊदी राजकुमारों ने स्थापित की थी। लेकिन लाल सागर इतना कम गहरा है कि उसके आइसबर्ग समुद्र के पेंदे में ही बैठ गये। इसलिए उनको खींचकर लाना कठिन हो गया। यानी हर देश पानी की समस्या से निपटने के लिए योजनाएं बना रहा है। लेकिन भारत में जो पानी उपलब्ध है, वह कहां जा रहा है, इस पर क्या कभी हमने विचार किया है?
भारत में पेय के लिए उपयोग होने वाला पानी 1,150 क्यूबिक किलोमीटर प्राप्त है, जिसमें 450 क्यूबिक किलोमीटर भूमिगत और 700 क्यूबिक किलोमीटर भूतल जल है। इस पानी की खपत सबसे अधिक कत्लखानों में होती है। अलकबीर प्रतिवर्ष 48 करोड़ लीटर पेयजल का उपयोग करता है। मुंबई का देवनार 64 करोड़ 84 लाख गैलन। देश में 5,000 लाइसेंस प्राप्त कत्लखाने हैं। कितने अवैध कत्लखाने हैं, इसका पता तो आप अपने नगर में भ्रमण करके लगा सकते हैं। विचार कीजिए कि आपका अमूल्य पानी कत्लखानों को साफ करने, काटे गये पशुओं को धाने और उन्हें बर्फ में पैक करके विदेश भेजने में चला जाता है। पानी के बचाने के लिए लोग आह्वान करते हैं, क्या इस पर काम करने वाली संस्थाओं ने इन वैध और अवैध कत्लखानों की ओर रूख किया है? भारत में लगातार मांस उद्योग बढ़ रहा है। अब हम डेरी डेवलपमेंट मंत्रालय नही चलाते बल्कि मटन एक्सपोर्ट विभाग चलाते हैं। हमारे दुर्लभ पशुओं के साथ हमारा अमृत समान पानी भी इस हिंसा के उद्योग में खर्च हो रहा है।
इस उथल पुथल में हमारी धरती पर कितने जंगल बचेंगे और ऐसी कितनी जमीन बचेगी, जिस पर इनसान खेती कर सकेगा? यदि खेती के लिए जमीन का अभाव रहेगा तो फिर वे पशु, जिनका दूध और मांस का उपयोग कर आदमी अपना जीवन गुजारता है, उनके लिए कितनी चरागाह शेष रहेगी? जब पशु के लिए चारा नही होगा और उसके पीने का पानी कम होता चला जाएगा तो वह किस प्रकार जीएगा? यानी उसकी संख्या घटना तय है। यदि पशु कम होते चले जाते हैं तो फिर मांस का स्रोत क्या होगा? वे पशु पक्षी जिन्हें आज निर्दयता से इनसान काटकर खा जाता है, वे शेष ही नही रहेंगे और नये जन्म लेने के अवसर भी घट जाएंगे। तब विचार करें, मांसाहारी लोग क्या करेंगे? कुल मिलाकर वनस्पति चारा और जंगल में उगने वाली अन्य वस्तुएं नही होंगी तो हमारी गाय, भेड़ ऊंट, बकरे-बकरी और वे अन्य पशु-पक्षी जिनका मांस आरोग्यकर है- आज की दुनिया जीवित रहने का दावा करती है, उनके सारे दावे धूल धूसरित हो जाएंगे। कुल मिलाकर यह सिद्घांत सामने आता है कि मांसाहार करने वाले शाकाहारी पशु पक्षियों पर निर्भर है। बढ़ती आबादी में खाने के लिए अनाज अधिक उगाना होगा। अब यदि जमीन के जिस भाग से पशुओं को आहार मिलता है, मनुष्य उन पर खेती करने लगेगा तो फिर ये पशु क्या खाएंगे? पशुओं को उनका आहार नही मिलेगा तो वे जीवित कैसे रहेंगे? कुछ ही समय बाद उनकी नस्ल और वंश समाप्त हो जाएंगे। मांसाहार करने वालों को याद रखना चाहिए कि उनका आधार शाकाहार है।
पेड़-पौधे उगाने, उन्हें पल्लवित करने और खान पान में उनके उपयोग करने पर पानी की मात्रा अधिक लगती है या फिर किसी पशु को बड़ा करने में पानी की मात्रा अधिक चाहिए। पहली नजर में कोई भी कह सकता है कि पशु तो तैयार है, आप जब चाहें और जहां चाहे उसका उपयोग कर सकते हैं। लेकिन पशु को बड़ा करने में जो उसे खिलाया गया, उसे उगाने में कितनी पानी लगा होगा और जीने के लिए उसे प्रतिदिन पीने के पानी की कितनी आवश्यकता पड़ी होगी, यह तथ्य बहुत जल्दी सामने नही आता। 21वीं शताब्दी की बढ़ती जनसंख्या को यदि हम मांसाहार के आधार जीवित रख सकते हैं तो पानी आपको अधिक से अधिक मिले, इसकी तैयारी करनी होगी। यदि पानी नही है तो फिर शाकाहार की शरण में आए बिना कोई विकल्प नही हैं।
क्रमश: