प्रिय अत्मन!
प्रातः काल की पावन बेला में सुप्रभातम।
श्रद्धेय पिताश्री जीवन में ब्रह्म मुहूर्त में उठ जाया करते थे।
प्रातः काल में ईश्वर की उपासना ,भक्ति और प्रार्थना में भजन गाया करते थे।
श्रद्धेय पिताश्री बताया करते थे कि जैसे सतयुग, त्रेता ,द्वापर और कलयुग चार युग हैं इसी प्रकार से एक दिन को हम चार भागों में यदि बाँटते हैं तो प्रातः कालीन समय सतयुग का होता है। 10:00 बजे से 4:00 बजे तक त्रेतायुग होता है। उसके बाद 4:00 बजे से रात्रि 10:00 बजे तक द्वापर होता है, रात्रि 10:00 बजे प्रातः 4:00 बजे से तक कलयुग होता है। जितने भर भी पाप अत्याचार व्यक्ति करता है वह रात्रि 10:00 बजे से मध्य रात्रि में ही करता है। कुछ पाप द्वापर में भी होते हैं। अब जब मैं सुबह उठता हूं तो यह बातें मेरी आदत में शामिल हो गई। पिताश्री की दी हुई शिक्षा और संस्कार अब जीवन में घुल मिल गए हैं।
ऐसी पावन और पवित्र बेला में आप से वार्ता करने का मन कर रहा था कि आप से दो शब्द साझा कर लूं।
प्रातः काल की बेला मुझे सत्संग की गंगा के समान बहती हुई सी लगती है। तथा ऐसा लगता है कि हम सभी इस सत्संग की गंगा में अपने मन को तर बतर करके उसका मैल धो डालें।
हमने विद्वानों से खूब सुना है कि इसी पावन बेला में ज्ञान अमृत का पान किया जा सकता है। इसी बेला में जो हमारे सुंदर विचार होते हैं उनको हम 24 घंटे के लिए कम से कम अपने मन में और जीवन में धारण कर सकते हैं। इसके लिए जहां धर्म का मेला लगा होता है अर्थात जहां धर्म की बातें होती हो जहां धर्मा चरण का गुणगान होता हो हमको अपने मन को ऐसे स्थान का दर्शन कराना चाहिए। यही मानव का प्राथमिक उद्देश्य है ।इसी से जीवन सफल हो जाता है। हमको खूब जानकारी है कि सत्संग की नगरी में जाने के लिए बहुत ही मुसीबतों का सामना करना पड़ता है क्योंकि सत्संग की नगरी में हर किसी का मन नहीं लगता है। परंतु जो इस नगरी में आ जाता है उसका मन उसके बाद और कहीं जाने के लिए करता नहीं है। उसके सारे मैल दूर हो जाते हैं। अज्ञान रूपी अंधकार के तमाम पर्दे उठ जाते है।
तन की मैल के स्थान पर मन के मैल को दूर करना मनुष्य के लिए श्रेयस्कर होता है। सत्संग में आने से फिर से ईश्वर से मिलने का, उसकी आगोश में बैठने का अवसर प्राप्त हो जाता है, क्योंकि हम संसार के नाना कार्यों को करते हुए ईश्वर को भूले रहते हैं ।
यद्यपि अधिसंख्य लोग आज भी ऐसे हैं जो पल पल पर ईश्वर का स्मरण करते हुए अपना प्रत्येक कार्य करते हैं।
इस जीवन में राम ,रावण ,कंस ,कृष्ण हमको पग पग पर मिल जाते हैं। मन की सोच के आधार पर ही राम का आचरण ,रावण का आचरण, कंस का, कृष्ण का आचरण हम पाते हैं। हमारे ही अंदर मनुष्य योद्धा है।मनुष्य योगी है ।एक मनुष्य संत है।
वर्तमान युग में बच्चियों को गर्भ में ही मारने वाले बहुत से मिल जाते हैं, जो कंस से भी गिरे हुए हैं। उससे भी अधिक पापी हैं। ऐसे लोगों से तो कंस ही बहुत अच्छा था। कंस ने कम से कम 7 बच्चियों को जन्म तो लेने दिया था ,आज तो बच्चियों को जन्म लेने से पहले ही कर्म में मार दिया जाता है।
हमारे अंदर इस प्रकार मनुष्य के अनेक रूप हैं। लेकिन यदि मन की दिशा को उचित मार्ग में लगा दें तो हमारे जीवन की दशा बदल जाएगी। हम जो एक दूसरे से छीनने में एवम् गला काटने की भावना से ओतप्रोत होकर के जीवन जी रहे हैं वह अनुचित है। यह हमारी आज की शिक्षा पद्धति का दोष है क्योंकि आर्य शिक्षा पद्धति इस देश में जब से दूर हुई है तब से इस देश का पतन हो गया है। आज की शिक्षा नियुक्ति तक सीमित रखती है।
या ऐसे कह लें कि नौकरी और छोकरी ठीक मिल जाए बस यह उद्देश्य रह गया है।
आज की शिक्षा केवल
जीविकोपार्जन सिखा रही है, लेकिन जीवन के मूल उद्देश्य से भटका रही है। आज की शिक्षा हमको तार्किक तो बनाती है लेकिन जीवन की जो वास्तविक शिक्षा होनी चाहिए वह हमको मिलती ही नहीं है। इसीलिए जीवन की ज्योति बुझी जा रही है।
इसलिए सर्वत्र पतन होता हुआ प्रतीत होता है क्योंकि मनुष्य का मन सत्संग में कम और मैल में ज्यादा है। इस जीवन की ज्योति को यदि जगाना है तो सत्संग व आर्य शिक्षा पद्धति को पुन: अंगीकार करना होगा।
जैसे योगीराज श्री कृष्ण जी महाराज ने केवल 45 मिनट के सत्संग में कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन के जीवन का दर्शन और दिशा बदल दी थी। वह केवल सत्संग से ही संभव थी ।सत्संग से ही एक मनुष्य सभी का विश्वास पात्र बन जाता है।
जब मनुष्य विश्वास पात्र बन जाता है तभी उसका जीवन सफल होता है।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत समाचार पत्र