गायादि की रक्षा के लिए सहचर्यवाद को मौलिक अधिकार बनाया जाए
गाय हमारे जंगलों में उत्पन्न होने वाली कितने ही प्रकार की वनस्पतियों व घासों को चरती है। इसके अतिरिक्त किसान अपने खेत में जो चारा गेंहूं का भूसा, धान का पुआल, मक्का की पुआल, ज्वार, जई, बाजरा आदि उत्पन्न करता है, उन्हें खाती है। प्रभु की अद्भुत कृपा है कि उसने प्रकृति में एक ऐसा चक्रीय संतुलन स्थापित किया हुआ है कि यहां की कोई भी वस्तु व्यर्थ नही कही जा सकती। मनुष्य के लिए गेंहूं के पौधे से जो अन्न मिलता है, उसे तो मनुष्य अपने भोजन के रूप में प्रयुक्त कर सकता है। तनिक कल्पना करेकं कि यदि उस भूसे को खाने के लिए गाय आदि पशु ना होते तो क्या होता? तब हमारे किसान उस भूसे के ढेर में आग लगाया करते, जिससे बहुत सा प्रदूषण हुआ करता।
परंतु हमारे परमपिता परमेश्वर ने कहा कि नही, इस भूसे आदि को व्यर्थ नही जाने देना है। मैं इसके लिए गाय आदि को बनाता हूं, वो इसे खाएगी और गोबर के माध्यम से इसे पुन: उपयोगी तो बनाएंगी ही साथ ही पर्यावरण संतुलन को शुद्घ रखने में मानव समाज की सहायता भी करेंगी। इस प्रकार व्यर्थ पदार्थों को भी उपयोगी बनाकर उन्हें ‘अर्थ’ प्रदान करना प्रभु की सृष्टि की एक उपकारमयी व्यवस्था है। मनुष्य कितना मूर्ख है कि वह ईश्वर की सृष्टि कीी इस उपकारमयी व्यवस्था के रहस्य को समझ नही पाया और गाय जैसे दिव्य प्राणी को अपना परममित्र या माता ना मानकर अपना परमशत्रु मान बैठा।
आज के वैज्ञानिक पर्यावरण प्रदूषण के बढऩे से ग्लोबल वार्मिंग की चेतावनी बार-बार दे रहे हैं। इस ग्लोबल कर्मिंग का एक कारण गाय आदि दुधारू और उपयोगी पशुओं को काट-काट कर समाप्त करने की मनुष्य की नादानी भी है। क्योंकि पशुओं के कटने से कितने ही पदार्थ अनुपयोगी मानकर सड़कों पर फेंके जा रहे हैं, जिससे वे पदार्थ गलियों में या सड़कों के किनारे भरे पानी में या अन्य किन्हीं स्थानों पर सड़ते हैं और बहुत सी दुर्गंध या उनके जलाये जाने से उत्पन्न होने वाले धुएं को फेेलाते हैं। इससे पर्यावरण प्रदूषण बढ़ता है। यह सडऩे की प्रक्रिया सप्ताहों और महीनों तक चलती रहती है। जबकि गाय ऐसे व्यर्थ पदार्थों को खाकर मात्र चौबीस घंटों में ही हमारे लिए उपयोगी बनाकर गोबर के रूप में दे देती है। कितनी उपकारमयी है गौमाता।
अमरीका के वैज्ञानिक जेम्स मार्टिन ने दुधारू गाय का गोबर, खमीर तथा समुद्र के पानी को मिलाकर एक ऐसा उत्प्रेरक बनाया है, जिसके प्रयोग से बंजर भूमि हरी भरी हो जाती है, सूखे तेल के कुंओं में दुबारा तेज आ जाता है।
(संदर्भ गौमाता एवं अन्य जीवों की रक्षा)
इंस्टिट्यूट ऑफ इकानोमिक ग्रोथ दिल्ली ने एक विशेष अध्ययन में पाया है कि देश में लगभग 8 करोड़ बैल (8वीं पंचवर्षीय योजना के समय का आंकड़ा है) जिससे हम सहमत नही हैं, क्योंकि 1947 में गोवंश की कुल संख्या का आंकड़ा लगभग ढाई करोड़ ही रह गया है, परंतु फिर भी समझने के लिए यह आंकड़ा महत्वपूर्ण है। बैल कृषि उत्पादों का परिवहन करने आदि के सभी कार्य करते हैं। उनके बदले में यदि हमें टै्रक्टर से ही ये सभी कार्य करने हों तो दो करोड़ से अधिक टै्रक्टरों की आवश्यकता होगी। दो करोड़ टै्रक्टरों की लागत का अनुमान लगभग 80 खरब रूपये है। 8वीं पंवर्षीय योजना कुल 80 खरब रूपये की है, फिर इतनी बड़ी धनराशि टै्रक्टर खरीदने के लिए कहां से उपलब्ध होगी? दो करोड़ टै्रक्टरों के लिए पैट्रोलियम पदार्थों का आयात करना होगा, उस का मूल्य 20 अरब अमेरिकन डालर के लगभग होगा, अर्थात 7 खरब रूपये वार्षिक। जबकि आज भारत मात्र 6 अरब डालर का पैट्रोलियम आयात करता है। यह आयात मुख्यत: अरब देशों से होता है।
अब यहां विचारणीय बात ये है कि जब हम टै्रक्टर आदि के लिए पैट्रोलियम पदार्थों विदेशों से आयात करेंगे तो हमारी राष्ट्रीय आय का अधिकांश भाग पैट्रोलियम पदार्थों की खरीददारी में ही व्यय हो जाएगा। जिससे हमारा विकास प्रभावित होगा। सारा देश विदेशों के लिए कमाता रहेगा। इसीलिए हमारे पूर्वजों ने बड़ी विवेकशीलता से काम लिया और उन्होंने बैलों की उपयोगिता कृषि के लिए उचित मानकर प्रकृति के सहचर्यवाद के सिद्घांत के दृष्टिगत खेती को यांत्रिक विद्या से न करना ही उचित समझा। जबकि प्राचीन भारत में भौतिक विज्ञान इतना उन्नत था कि वो लोग सहजता से ही टै्रक्टर जैसे यंत्र बना सकते थे। पर हमारे पूर्वज जानते थे कि हमें प्रकृति के कार्यों में सहायक बनना है, बाधक न ही, यदि बाधक बने तो प्रकृति हमारे विनाश के लिए कमर कस सकती है।
अमेरिका ने और यूरोप ने प्राकृतिक पर्यावरणीय संतुलन को बिगाडऩे की पहल की तो आज ग्लोबल वार्मिंग के माध्यम से इसके दुष्परिणाम भी वही झेलने लगे हैं। अमेरिका में इस बार ठंड का प्रकोप इतना बढ़ा है कि वहां तापमान शून्य से 50 डिग्री नीचे चला गया है। प्रकृति से प्रतिस्पद्र्घा करोगे और उसके साथ छेड़छाड़ करोगे तो उसका प्रकोप तो झेलना ही पड़ेगा। जबकि प्रकृति हमसे कहती है कि मेरे सामने अहंकार शून्यता का प्रदर्शन करते हुए विनम्रता के साथ सहचर्यवादी बन जाओ और मेरे वरदानों का उपभोग करो।
इन वरदानों में सर्वश्रेष्ठ प्राणी गाय है। प्रकृति और प्रभुप्रदत्त इस प्राणी के भीतर मिलने वाले अनेक दिव्य गुणों के कारण ही इसमें 33 करोड़ है। देवताओं का वास है। जो लोग गोमांस भक्षक होते हैं वो प्राकृतिक संतुलन में तो विकार उत्पन्न करने के अपराधी हैं ही साथ ही अपने स्वास्थ्य को भी विकृत करते हैं। टयूनीशिया में राजदूत रहे श्री ओ.पी. गुप्ता ने अपनी पुस्तक ‘वैदिक इक्वलिटी एण्ड हिदुइज्म’ में लिखा है कि गोमांस में लंबी कार्बन चेन वाले प्रोटीन होते हैं, जिनको लीवर अवयवों में विखंडित नही कर पाता और ये लंबी कार्बन श्रंखला वाले यौगिक मानव शरीर के जोड़ों में स्थित द्रव में एकत्र हो जाते हैं, जिसके परिणाम स्वरूप गोमांस-भक्षक बात रोग और जोड़ों के दर्द के शिकार हो जाते हैं। उनका मानना है कि गोमांस भक्षण से मानव शरीर में ‘प्रोस्टेगलेण्डीन’ नामक हारमोन उत्पन्न हो जाता है, जिसके कारण रक्त नलिकाएं संकुचित हो जाती हैं, और रक्त संचार धीमा हो जाता है, जो रक्त का थक्का बनाकर हृदयरोग और पक्षाघात जैसे जानलेवा रोगों को जन्म देता है। हृदयरोग विशेषज्ञ परामर्श देते हैं कि गाय आदि पशुओं के मांस तथा वसायुक्त भोजन रक्त में कालोस्ट्रोल की मात्रा बढ़ा देते हैं, जिससे रक्त प्रवाह करने वाली नलिकाएं संकुचित हो जाती हैं और रक्त थक्का बनाने में सहायता करती हैं। इसलिए पशुओं के प्रति दयाभावना रखते हुए उनकी प्राण रक्षा करना वेद ने मनुष्य का ‘धर्म’ (पवित्र कत्र्तव्य) घोषित किया और ‘पशूनयाहिं’ अर्थात पशुओं की रक्षा करने के लिए उसे निर्देशित किया।
आज हमारे संविधान में गायादि पशुओं की रक्षा के लिए अनुच्छेद 48 को रखा गया है। परंतु यह अनुच्छेद अपूर्ण और अपर्याप्त है। हमारा देश प्राचीन काल से ही प्राणीमात्र के प्रति करूणा भाव रखने के लिए मनुष्य मात्र को निर्देशित करने वाले ऋषि-मुनियों के धर्म का देश रहा है। इसलिए विश्व में केवल भारत ने ही सर्वप्रथम घोषित किया कि मनुष्य सभी प्राणियों में श्रेष्ठ इसलिए है कि वह सभी प्राणियों का संरक्षक है। मनुष्य के मल मूत्र अनुपयोगी होते हैं, पर गाय के तो मलमूत्र भी उपयोगी होते हैं इस दृष्टि से गाय मनुष्य से श्रेष्ठ है, परंतु इसके उपरांत भी गाय भोग योनि का प्राणी है। जबकि मनुष्य कर्मयोनि और भोगयोनि दोनों योनियों का प्राणी है।
इसलिए मनुष्य की श्रेष्ठता सर्वोपरि है। पर यह श्रेष्ठता तभी सिद्घ होगी जब वह अन्य प्राणियों के प्रति अपने संरक्षण धर्म को निभाएगा। भारतीय संस्कृति ने मनुष्य के भीतर अन्य प्राणियों के प्रति इस संरक्षण भाव को आरोपित कर एक प्रकार से प्रत्येक प्राणी को जीने का उसका मौलिक अधिकार प्रदान किया है। जबकि हमारा संविधान उन्हें ऐसा कोई संरक्षण मौलिक अधिकारों के माध्यम से प्रदान नही करता। भारतीय संविधान का इस विषय में चुप रहना भारतीय मनीषा की उत्कृष्टता का अपमान करने के समान है।
हमारा मानना है कि विश्व को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने के लिए भारत सरकार को यथाशीघ्र पहल करते हुए गायादि पशुओं को बचाने के लिए उनकी प्राण रक्षा को उनका संवैधानिक मौलिक अधिकार प्रदान कर शेष विश्व का मार्गदर्शन करना चाहिए। पहल भारत करे और उसका अनुकरण विश्व करे-तभी तो भारत विश्वगुरू बनेगा। यदि पहल विश्व करे और अनुकरण भारत करेगा तो भारत अनुचर ही बना रहेगा। हमें अनुचरणवादी गतानुगतिक वैश्विक परंपरा से निकलकर गुरूत्व परंपरा का निर्वाह करने के लिए उद्यम करना होगा।
उस उत्कृष्टावस्था के निश्चय ही शुभ परिणाम आएंगे। अभी तक विश्व भूल करता आ रहा है कि वह विश्व का अस्तित्व मानव जाति के बने रहने में ही देखता है, जबकि वेद मानव जाति से ही नही अपितु सभी प्राणियों की सामूहिक सहचर्यवादी जीवन व्यवस्था में विश्व का अस्तित्व खोजता है। भारत अपने इस उत्कृष्ट दृष्टिकोण को विश्व कके समक्ष उठाने में असफल और असमर्थ रहा है, क्योंकि उसने उधारी मनीषा के समक्ष अपनी उत्कृष्ट मनीषा को हीन समझना आरंभ कर दिया। आज विश्व भटकन से ग्रस्त है और भारत का निर्मल वेदज्ञान ही विश्व की इस भटकन से उसे उबार सकता है। इसलिए हमें गायादि पशुओं के प्रति वेदधर्म और वैदिक शिक्षाओं को मानव-धर्म के रूप में व्याख्यायित करने का प्रयत्न करना होगा।
यजुर्वेद (36/8) का ये मंत्र हमारे संविधान में पशुओं की जीवन रक्षा के दृष्टिगत उनका मौलिक अधिकार बनाये जाने का आधार बन सकता है।
”मित्रस्य या चक्षुण सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ।
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षा महे।”
अर्थात सब प्राणी मुझे मित्रवत देखे और मैं भी सब प्राणियों को मित्रवत ही देखूं, जानूं, समझूं। हम सब परस्पर मिल की दृष्टि से देखें।
वेद का यह आदर्श ही जीवनोपयोगी सहचर्यवाद है और यह जीवनोपयोगी सहचर्यवाद ही मानवता और प्राणिमात्र के कल्याण का हेतु हो सकता है। इसे जितनी शीघ्रता से संविधान में मौलिक अधिकार के रूप में समाविष्ट कर लिया जाएगा उतना ही अच्छा रहेगा। सहचर्यवाद की इसी भारतीय मान्यता से ही गाय आदि पशु बचेंगे। अन्यथा ना तो हम बचेंगे और ना ही ये धरती तब क्या बचेगा?