”सत्य का समानार्थक अन्य कोई शब्द नही’
हिन्दी के कई शब्द ऐसे हैं जिनके समानार्थक शब्द किसी भी भाषा के पास उपलब्ध नही हैं। उनमें से एक शब्द ‘सत्य’ है। यह शब्द संस्कृत के सत्यम् से बना है। सत्यम् की सन्धि विच्छेद करने पर हमें यह शब्द स+ति+यम् से मिलकर बनता हुआ स्पष्ट होता है। इसमें वैयाकरणिक आधार पर ‘स’ का अर्थ जीवात्मा से, ति का अर्थ प्रकृति-मायावाद से और यम् का अर्थ ईश्वर से है। इस प्रकार ईश्वर, जीव और प्रकृति को केवल एक ही सूत्रात्मक शब्द में पिरो देने का नाम सत्य है। इसीलिए सत्य को अमिट, अजर और अमर माना जाता है। क्योंकि उसका अस्तित्व मौलिक रूप में अमिट है, अजर है और अमर है। इसी शाश्वत सत्य पर यह धरती टिकी है, जिसके लिए कहा जाता है-
सत्येनोत्तभिता भूमि:।
अर्थात यह भूमि सत्य पर टिकी है।
इस सत्य की खोज के लिए मानव जीवन खपा देता है, पर कितनों को ही ‘सत्य’ मिलता नही। उसके लिए सत्य एक रहस्य बनकर रह जाता है। एक ऐसी अनुसलझी पहेली कि जिसे सुलझाने में वह अपने आपको सदा ही लाचार समझता है। पर प्रश्न ये है कि क्या सत्य वास्तव में ही एक अनसुलझी पहेली है? इस प्रश्न पर चिंतन करें तो ज्ञात होता है कि सत्य एक अनुसलझी पहली अपने मौलिक स्वरूप में तो है नही। हां, उसे हमने कितनी ही परतों में लपेट-लपेट कर रहस्यात्मक स्वरूप अवश्य प्रदान कर दिया है।
उदाहरण के रूप में आप सत्य बोलने को लें। सब कहते हैं कि सत्य बोलो। पर ऐसा कहने वाले भी सत्य बोल पाते हों, ऐसा कहा नही जा सकता। हम बोलने में सत्य को असत्य बनाकर बोलते हैं। इस प्रकार सत्य को रहस्यात्मक हम स्वयं बनाते हैं। जितने स्वरूपों में हमें उसे लपेटते हैं उतने ही स्वरूपों में सत्य हमारे लिए ‘दूर की कौड़ी’ बनता जाता है। साथ ही हमारा अपना चरित्र और चिंतन स्वयं में एक रहस्य बनता जाता है। समय आता है कि हम स्वयं ही रहस्यों से घिर जाते हैं, और तब सत्य हमारे लिए स्वयं रहस्य बन जाता है।
अब समझें कि जब हम अपने बोलने में रहस्यात्मक पुट का प्रदर्शन करते हैं तो हमारा अपना व्यक्तित्व किस प्रकार मिथ्या रहस्यों से घिर जाता है। एक कल्पना करें एक व्यक्ति किसी ऐसी घटना का जिसमें वह स्वयं सम्मिलित रहा है आपके सामने इस प्रकार प्रदर्शन करता है कि उसका बौद्घिक चातुर्य अपने आपको निर्दोष सिद्घ कराने के लिए आप पर निरंतर दबाव बना रहा है, तो आप ऐसे व्यक्ति को चतुर कहेंगे, जालिम कहेंगे, फरेबी कहेंगे। ये सारे विश्लेषण उस व्यक्ति के व्यक्तित्व को रहस्यमय बना रहे हैं, और सत्य उसके लिए एक रहस्य बनता जा रहा है। जबकि ऐसी ही घटना में सम्मिलित रहा एक व्यक्ति उस घटना के संबंध में आपको नितांत भ्रामक सूचना देता है, दूसरा झूठी सूचना देता है, तीसरा अतिश्योक्ति पूर्ण सूचना देता है, चौथा आग को और भड़काने वाली सूचना देता है, पांचवां घटना की प्रतिक्रिया को रोकने के लिए उसे हल्का करके आपको बताता है, छठवां जिस जिसका जितना दोष है, उतना-उतना सही-सही वर्णन करता है और सातवां घटना में सम्मिलित किसी भी पक्ष के विषय में कुछ नही कह पाता।
अब आप इन सभी व्यक्तियों को अलग-अलग नाम देंगे। जैसा जिसका वर्णन वैसा ही उसका समानार्थक नाम। यहां अपने-अपने दृष्टिकोण से सत्य तो सब बोल रहे हैं। पर सत्य उसी का माना जाएगा जो सत्य बोलने में माधुर्य का प्रदर्शन कर रहा है और जो जैसा है उसे न्यायपूर्ण ढंग से वैसा ही बता भी रहा है। क्योंकि उसके बोलने में एक सुधारात्मक सोच है, वह प्रतिशोध नही चाहता, घटना की पुनरावृत्ति नही चाहता है इसलिए वह सच्चा है। कई बार हम सत्य बोलकर आग में घी डाल देते हैं, क्योंकि हमारी वाणी में कर्कशता आ जाती है, या द्वेष भाव से वह भर जाती है। तब भी हम सत्य बोलकर भी सच्चे नही होते क्योंकि सत्य का उद्देश्य आग भड़काना नही होता है, अपितु आग को बुझाना होता है। यदि सत्य आग को बुझाने वाला नही बना तो मानो कि सत्य के अपनाने में फिर कहीं चूक हो गयी है।
संसार की किसी भी भाषा के पास हमारे इस निस्पृह सत्य शब्द का पर्यायवाची या समानार्थक शब्द नही है। यह स्वयं में एक रहस्य नही है, अपितु सारे रहस्यों की एक कुंजी है। उपरोक्त व्यक्तियों ने घटना का जैसा-जैसा वर्णन किया वैसा-वैसा उन्होंने अपने लिए नाम पाया। यदि वे उसे यथावत स्वरूप में प्रस्तुत करते तो सत्य को उन्होंने जिस प्रकार रहस्यमय बनाया था वह ना होता। ईश्वर जीव और प्रकृति के शाश्वत सत्य पर यह सारा जगत चल रहा है, उसी पर टिका है। जगत के इस रहस्य को समझने का अर्थ है सत्य को खोजना और यह सत्य हमारे सबसे निकट है, यह हमारे लिए कोई रहस्य नही है। सत्य सबसे सरल है, सबसे सहज है, पर हम इसे उतनी ही सरलता से या सहजता से अपना नही पाते हैं। क्योंकि हम कहीं स्वयं सांसारिक विषयविकारों और इंद्रिय दोषों में फंसे होते हैं। उनके मल-आवरण से स्वयं को बचाने के लिए हम सत्य से भागते हैं और मिथ्यावाद में जाकर फंस जाते हैं। परिणामस्वरूप हम मूर्ति में भी भगवान को न मानकर मूर्ति को ही भगवान मानने लगते हैं। जिसका परिणाम हमारे लिए ही घातक आता है और हमारी बुद्घि चेतन की उपासक न होकर जड़वाद की उपासक हो जाती है।
हम जितनी सहजता और सरलता से ये समझ लेंगे कि सत्य से ही पृथ्वी स्थिर है, सत्य से ही सूर्य तपता है, सत्य से ही वायु चलता है, बहता है, और यह सारा जगत भी सत्य में ही स्थिर है, उतनी ही शीघ्रता से हम सत्य के उपासक हो जाएंगे। वास्तव में सत्य तो एक विज्ञान है और विज्ञान के भी सारे रहस्यों को खोलने की एक चाबी है। सत्योपासक बनने का अभिप्राय है वैज्ञानिक मेधा संपन्न होना। जो जैसा है उसे वैसा ही मानना और वैसा ही खोजना, यह सत्य की अनिवार्य शर्त है। सारे विज्ञान को स्वयं में समेटने वाला यह शब्द हमारी संस्कृति की धरोहर है, वैज्ञानिक खोज है और आध्यात्मिक जगत की अद्भुत उपलब्धि है, क्योंकि सारा सांसारिक तामझाम इसी में सिमटा पड़ा है। ईश्वर जीव और प्रकृति से बाहर कुछ भी नही है। अत: सत्य का अनुसंधान करना मानव धर्म है। यह धर्म शब्द सत्य के सर्वाधिक निकट है, परंतु है धर्म से ऊपर ही। क्योंकि धर्म सत्य पर ही आधारित होता है। जैसा-जैसा जिसका अधिकार है वैसा वैसा उसको देना और सबके जीवन का सम्मान करना मानव धर्म है, परंतु यह मानवधर्म इस सत्य पर आधृत है कि सब जीव मौलिक रूप में ही स्वतंत्र उत्पन्न हुए हैं और सबको जीने का अधिकार देना ईश्वरीय व्यवस्था है। अत: जो मत, पंथ या सम्प्रदाय किसी जीव की या किसी विपरीत मत, पंथ, संप्रदाय के अनुयायी की जान लेते हैं वो धर्म इसलिए नही है, क्योंकि वो सत्य के मौलिक स्वरूप के उपासक नही है।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।