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राजनीति संपादकीय

दीदी को समझ नहीं आया मोदी का ‘पराक्रम’

नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती के अवसर पर धर्मनिरपेक्ष राजनीति एक बार फिर हुई नंगी


गाजियाबाद ( ब्यूरो डेस्क) कांग्रेसी और सेकुलरिस्ट पार्टी देश, धर्म और संस्कृति के परिचायक शब्दों से पहले दिन से ही घृणा करती चली आई हैं। चाहे राहुल गांधी हों चाहे ममता बनर्जी हों या कोई और सेकुलरिस्ट नेता हो , यह सभी कहने के लिए तो नफरत की राजनीति का आरोप भाजपा और केंद्र की मोदी सरकार पर लगाते हैं, पर सच यह है कि ये खुद तो कई शब्दों से ही नफरत करते हैं।
– इन्हें राष्ट्रवाद से नफरत है, भगवा से भी नफरत है वंदे मातरम से भी नफरत है, भारत माता की जय से नफरत है, जय श्रीराम से नफरत है, भारत की आर्य संस्कृति से नफरत है, वेदों से नफरत है ,गीता से नफरत है, महाभारत से नफरत है ,रामायण से नफरत है, भारत के हिंदू राजाओं के गौरवपूर्ण इतिहास से नफरत है।

सचमुच शब्दों की एक बहुत बड़ी सूची है जिनसे इन सबको नफरत है। इसी सूची में अब एक शब्द और जुड़ गया है ममता बनर्जी को नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिवस को पराक्रम दिवस के रूप में मनाने से भी नफरत है। उन्हें जय श्रीराम से नफरत हुई तो अपने भाषण को बीच में छोड़कर चली गईं। हां कम्युनिस्टों के साथ मिलकर इन्हें अल्लाह हो अकबर से नफरत नहीं है, क्योंकि वह धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक शब्द है। इनके खासम खास कम्युनिस्टों की भाषा में नेताजी को ‘तोजो का कुत्ता’ कहने से भी नफरत नहीं है, परंतु ‘जय श्री राम’ का नारा इनकी नजरों में सांप्रदायिक है। सचमुच इनकी बुद्धि पर तरस आता है ।जिसने इस देश की राजनीति और राजनीतिक मूल्यों का गुड़ गोबर कर रख दिया है।
यह सच है कि इस देश को आजादी मिली थी तो वह केवल भारत के पराक्रम के कारण मिली थी और पराक्रम का सबसे बड़ा प्रतीक यदि कोई हो सकता है तो वह नेताजी सुभाष चंद्र बोस का आंदोलन ही हो सकता है, आजाद हिंद फौज हो सकती है, हमारे क्रांतिकारियों का ‘जय हिंद’ का नारा हो सकता है और बंगाल की धरती हो सकती है। यह सारे संयोग यदि कहीं मिल रहे थे तो वह नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125 वीं जयंती के अवसर पर मिल रहे थे। लेकिन जिसे पहचान कर प्रधानमंत्री मोदी ने सचमुच एक सराहनीय कार्य किया । संकीर्ण मानसिकता के चलते सेकुलरिस्ट राजनीतिक दलों और ममता बनर्जी को इसमें भी राजनीति दिखाई दी।
स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती पर बंगाल राजनीति में भूचाल आ गया। ऐसा इसलिए, क्योंकि मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी बिना किसी पूर्व नियोजित कार्यक्रम के नेताजी भवन पहुंचीं। उन्होंने वहां नेताजी के प्रति अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित किए। फिर कुछ देर रुकीं और फिर एक छोटा सा संबोधन दिया।
दीदी ने इस दौरान केंद्र पर हमला बोला। पूछा, “मोदी सरकार ने इसे परामक्रम दिवस क्यों नाम दिया?” यह भी सवाल उठाया कि जिस योजना आयोग को नाम नेता जी ने दिया था, उसका भी नाम क्यों बदल (अब नीति आयोग है) दिया गया? दीदी यहां पर भाषण के बाद वहां से रवाना हो गईं। उन्होंने उसके बाद कोलकाता के श्याम बाजार से रेड रोड तक मार्च निकाला। यह रोड शो करीब आठ किमी लंबा रहा।
मार्च की शुरुआत से पहले उन्होंने कहा- मुझे पराक्रम शब्द समझ नहीं आता है। मुझे उनका (नेताजी) देश प्रेम, विचारधारा, जज्बात…समझ आते हैं। हमने इसे देशनायक दिवस क्यों घोषिक किया? इसलिए, क्योंकि रबींद्रनाथ टैगोर ने यह टाइटल दिया था…इसलिए क्योंकि नेताजी ने टैगोर के एंथम को पहचान दिलाई थी।
ममता बनर्जी ने जो कुछ किया है वह भारत में लंबे समय से चली आ रही छद्म धर्मनिरपेक्ष नेताओं की राजनीति का ही एक अंग है। अब समय आ गया है जब इस प्रकार की छद्म राजनीति और धर्मनिरपेक्षता को देश जाकर अपने वास्तविक क्रांतिनायकों, इतिहासनायकों और राष्ट्रनायकों का सम्मान करना सीखे। सारी राजनीति को एक ओर रखकर राष्ट्रनीति अपनाई जाए और अपने राष्ट्रनायकों को उचित सम्मान देने के लिए सारी राजनीति एक घाट पर पानी पीती हुई दिखाई देनी चाहिए। जहां तक दीदी को मोदी के ‘पराक्रम’ का अर्थ समझ नआने की बात है तो उन्हें इसका अर्थ पश्चिम बंगाल के मतदाताओं से पूछना चाहिए। हो सकता है इस बार के चुनाव में ममता बनर्जी इसका अर्थ समझ लें और उनके शब्दकोश में अनायास ही एक वृद्धि हो जाए ।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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