भारत में गौरी की जीत और पृथ्वीराज चौहान की हार को वर्तमान प्रचलित इतिहास में एक अलग अध्याय के नाम से निरूपित किया जाता है। जिसका नाम दिया जाता है-राजपूतों की पराजय के कारण। राजपूतों की पराजय के लिए मौहम्मद गौरी के चरित्र में चार चांद लग गये हैं, और जो व्यक्ति नितांत एक लुटेरा और हत्यारा था उसे बहुत बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया है।
डा. शाहिद अहमद ने गोरी के चरित्र और उसके कार्यों का मूल्यांकन करते हुए उसके भीतर कौटुम्बिक प्रेम की प्रबलता, व्यक्तियों के चयन में उसके चरित्र की प्रवीणता अर्थात मानव चरित्र का पारखी होना, गुलामों का आश्रयदाता, स्थिति का परिज्ञान तथा लक्ष्य की प्रधानता, अदम्य उत्साह तथा धैर्य, उच्च कोटि की महत्वाकांक्षा, वीर योद्घा तथा दूरदर्शी राजनीतिज्ञ, भारत में मुस्लिम साम्राज्य का संस्थापक, लुटेरा न होकर एक साम्राज्य का निर्माता, अदभुत प्रशासकीय प्रतिभा से संपन्न साहित्य तथा कला का प्रेमी, धर्मपरायण आदि गुणों को प्रमुखता देकर गोरी को प्रशंसित किया है। न्यूनाधिक अन्य इतिहास कारों ने भी लगभग इन्हीं गुणों को गोरी के भीतर स्थान देकर उसका महिमामण्डन किया है। यदि ये गुण ही किसी व्यक्ति की महानता के या किसी देश के किसी विशेष भूभाग पर उसकी जीत के निश्चायक प्रमाण हैं तो ये गुण तो हमारे चरितनायक पृथ्वीराज चौहान में उससे कहीं अधिक गहराई से व्याप्त थे। अब तनिक पृथ्वीराज चौहान के भीतर देखें कि जो गुण गोरी को महानता दिलाने वाले बताये गये हैं, वो पृथ्वीराज चौहान में कितने थे?
चौहान का कौटुम्बिक प्रेम
क्या कोई भी पाठक उस पृथ्वीराज चौहान को कभी कम करके आंक सकता है जो अपनी बहन और बहनोई से असीम स्नेह रखता था और बदले मेें उसकी बहन भी अपने सुहाग की चिंता न करके सदा हर युद्घ में अपने पति राणा समर सिंह को अपने भाई की रक्षार्थ भेजती रही और भाई की सुरक्षा में ही अपने पति को खो दिया। पृथ्वीराज चौहान के प्रति यदि उसके बहन और बहनोई का इतना लगाव था तो इसके पृथ्वीराज चौहान का अपना कौटुम्बिक प्रेम भी एक कारण था। दूसरे पृथ्वीराज चौहान के जीवन में ऐसे भी क्षण आये जब उसकी बाल्यावस्था में ही यदि किसी ने उसके पिता सोमेश्वर सिंह का कहीं किसी भी प्रकार से अपमान किया तो उसका प्रतिशोध जब तक चौहान ने नही ले लिया, तब तक उसे चैन नही मिला।
पृथ्वीराज चौहान अपने नाना अनंगपाल से भी अत्यंत प्रेम करता था, वह बड़ों के प्रति सेवाभावी था और उसके सेवा-भाव से प्रसन्न होकर ही उसके नाना ने उसे दिल्ली का अधिपति नियुक्ति किया था। राजा अनंगपाल से पृथ्वीराज चौहान ने दिल्ली छीनी नही थी, अपितु उसे अपने नाना से दिल्ली भेंट में या उत्तराधिकार में मिली थी। कोई भी वृद्घ स्वेच्छा से अपना उत्तराधिकारी तभी नियुक्त करता है, जब उसे अपने उत्तराधिकारी से अपने जीवन काल में कोई शिकायत नही होती है। पृथ्वीराज चौहान से उसके परिजनों को कभी कोई कष्ट नही रहा, यहां तक कि उसकी माता को भी नही रहा, विशेषत: तब जबकि वह अपने अल्पव्यस्क पुत्र की संरक्षिका के रूप में शासन कर रही थीं। इसलिए पृथ्वीराज चौहान का कौटुम्बिक प्रेम अनुकरणीय है।
साथियों के चयन में योग्यता प्रदर्शन
पृथ्वीराज चौहान अपने साथियों के चयन में भी गोरी से प्रथम स्थान पर है। चामुण्डराय, कैमास, चंद्रबरदाई, श्यामली और कई नरेश व सेनापतियों के चयन में उसने व्यक्तियों को परखने की अपनी अदभुत शक्ति का परिचय दिया था। उसके किसी सेनापति या साथी ने या अपने देशी नरेश ने उसे कभी भी धोखा नही दिया। हजारों लाखों की संख्या में लोगों ने अपने सम्राट के लिए सिर कटवा दिये और बड़ी आत्मीयता से देशभक्ति के उच्च मनोभाव के साथ श्रद्घापूर्वक अपने-अपने सिरों को मां भारती के श्री चरणों में सादर समर्पित कर दिया। यह उसकी अपनी महानता का ही चमत्कार था। किसी भी देश जाति के पास ऐसे बिरले ही इतिहास पुरूष हुआ करते हैं, जिनके संकेत मात्र से ही लोग आत्म-बलिदान के लिए उठ खड़े होते हैं। इसके पीछे पृथ्वीराज चौहान की अदभुत देशभक्ति थी जो नितांत नि:स्वार्थ भाव पर आधृत थी। जबकि दूसरी ओर जयचंद जैसा देशद्रोही था, उसकी देशद्रोहिता को पुरस्कार ये मिला कि 1194 ई. में जब वह गोरी से युद्घ कर रहा था तो उसकी सेना में बड़ी संख्या में कार्यरत मुस्लिम सैनिक युद्घ के समय विद्रोह करके शत्रुपक्ष से मिल गये और अपनी ही सेना को काटने लगे।
बात स्पष्ट है कि देशभक्ति को श्रद्घा और सम्मान मिलता है और देशद्रोहिता को विद्रोह का प्रतिकार मिलता है। जिसमें वह स्वयं ही नष्ट हो जाती है। अंतत: कोई तो बात होगी ही कि पृथ्वीराज चौहान जैसा एक महान शासक ‘पराजित योद्घा’ के सम्मान से इतिहास में क्यों सम्मानित किया जाता है?
मित्रों का आश्रयदाता
गोरी को गुलामों का आश्रयदाता कहा गया है। भारत की परंपरा रही है कि जो आपके आश्रित हैं, उनके साथ मित्रवत व्यवहार करो। इसका अभिप्राय है कि आप किसी की अस्मिता को या निजता को मत मिटाओ, अपितु उसका सम्मान करो। इसलिए पृथ्वीराज चौहान ने भी अपने मित्रों को या अपने साथियों को अपना मित्र ही माना। उनके साथ वह विजयोत्सवों के समय पर नाचा, झूमा, मस्त हुआ और भूल गया कि वह सम्राट है और ये लोग उसके अधीनस्थ हैं।
युद्घ में कभी भी गुलामों के साथ नही उतरा जाता है, अपितु क्षत्रिय वीरों के साथ ही उतरा जाता है। भारत की परंपरा रही है कि क्षत्रिय वीर किसी का दास नही होता है, वह अपने लक्ष्य का, अपने जीवन व्रत का और अपने देश के प्रति समर्पण भाव का दास होता है। अथर्ववेद (3/19/7) में पुरोहित अपने यजमान क्षत्रिय से कह रहा है कि हे अग्रगामी वीरो! चढ़ाई करो और विजय प्राप्त करो, तुम्हारे भुज उग्र हों।
ऐसे उग्र भुजाधारी आर्य वीरों को जब मुस्लिम काल में हिंदू कहा जाने लगा तो विद्वानों ने हिंदू शब्द की भी वीरोचित परिभाषा और व्याख्या कर दी, जिससे कि हिंदू और आर्य का भेद मिट जाए। आशय केवल ये था कि यदि आज आर्यों को आप हिंदू कह रहे हैं तो ये हिंदू भी उग्र भुज वाले ही हैं।
रामकोष में लिखा है-
हिन्दू: दुष्टो न भवति नानार्यो न विदूषक:।
सद्घर्मपालको विद्वान श्रौत धर्म परायण:।।
अर्थात हिंदू न तो दुष्ट होता है, न विदूषक न अनार्य। वह सद्घर्मपालक, वैदिक धर्म को मानने वाला विद्वान होता है।
शब्दकल्प द्रुम कोष के अनुसार हनि दूषयति इति हिंदू अर्थात जो हीनता को स्वीकार न करे वह हिंदू है।
अदभुत कोष में कहा गया है-
हिंदूर्हिन्दूश्च प्रसिद्घों चविधर्षणे।
अर्थात हिंदु और हिन्दू ये दोनों शब्द दुष्ट प्रकृति के लोगों को विधर्षित करने वाले अर्थ में प्रसिद्घ्र हैं। जबकि परिजात हरण नामक किसी प्राचीन नाटक में एक श्लोक में कहा गया है कि हिंदू वह है जो शस्त्र और शास्त्र दोनों में निष्पात है। उसमें कहा गया है कि जो अपनी तपस्या से दैहिक पापों तथा चित्त को दूषित करने वाले दोषों का नाश करता है तथा शस्त्रों से अपने शत्रु समुदाय का भी संहार करता है, वह हिंदू है।
देश-काल और परिस्थिति के अनुसार लोग अपने आर्यत्व के साथ हिंदुत्व का सफल सामंजस्य स्थापित कर रहे थे। हिंदू की इन वीरोचित परिभाषाओं में भी कहीं नही झलकता कि हिंदू वह है जो अपने अधीनस्थ सेनापतियों (जैसा कि गोरी ने कुतुबुद्दीन ऐबक के साथ किया) को अपना गुलाम समझे। तब पृथ्वीराज चौहान से भी यही अपेक्षा की जा सकती है कि वह भी अपने लोगों के प्रति मित्रभाव से ही भरा रहता था।
अथर्ववेद (11/9/26) में कहा गया है कि मित्रादेवजनांयूयम्-तुम विजयाभिलाषी होकर अपनी सेना के सैनिकों और सेनापतियों के साथ परस्पर प्रीति युक्त मित्रवत होकर युद्घ की तैयारी करो।
उनकी संस्कृति दास भाव को प्रोत्साहित करने वाली अपसंस्कृति थी, और हमारी अपनी संस्कृति मित्रभाव को स्थापित करने वाली संस्कृति थी, जिसकी इतनी गहन उपेक्षा?
स्थिति का परिज्ञान और लक्ष्य की प्रधानता
गोरी की अपेक्षा पृथ्वीराज चौहान में स्थिति का परिज्ञान तथा लक्ष्य की प्रधानता का गुण भी अधिक ही था। यद्यपि हम मानते हैं कि उसका बहुपत्नीक स्वभाव और अहंकारी मनोभाव है, ये दो दुर्गुण उसमें ऐसे थे कि जिन्होंने उसे अपने मार्ग से भटकाया भी, परंतु जब बात गोरी की चल रही हो तो चौहान को कम करके आंकना अपने अतीत और इतिहास दोनों के साथ ही अपघात करना होगा।
गोरी पृथ्वीराज चौहान से एक दो बार नही अपितु कई बार परास्त हुआ। यदि उसे स्थिति का परिज्ञान ही था तो वह बार बार क्यों पिटता था? जहां तक लक्ष्य की प्रधानता का प्रश्न है तो यदि जयचंद उसे बुलाकर नही लाता तो उसका लक्ष्य तो मिट चुका था। वह इतना निराश हो चुका था कि भारत की ओर से आने वाली हवा भी उसे कंपा डालती थी। उसका धैर्य टूट चुका था और उसके भीतर अदम्य उत्साह नाम की चीज खो चुकी थी। जबकि पृथ्वीराज चौहान चाहे जैसी भी परिस्थिति में रहा उसका धैर्य और अदम्य उत्साह सदा बने रहे, और उनके बल पर ही वह अपने शत्रु से भिडऩे को चल पड़ता था। उसके भीतर धैर्य और अदम्य उत्साह की इतनी प्रबलता थी कि इन्हीं दो गुणों ने उसके भीतर अहंकार को उत्पन्न कर दिया था। परंतु यहां पराजित योद्घा के किसी दुर्गुण का वर्णन नही हो रहा है, अपितु उसके गुणों की चर्चा हो रही है, और वह भी उसके विरोधी से तुलना करते हुए। अत: तुलना में न्यायसंगत दृष्टिकोण अपनाते हुए इतिहासकारों को अपने चरित नायक या इतिहास नायक का वर्णन करना चाहिए।
पृथ्वीराज चौहान की उच्च महत्वाकांक्षा
पृथ्वीराज चौहान की अपेक्षा गौरी को उच्च कोटि की महत्वाकांक्षा वाला भी नही माना जा सकता। गोरी ने जब भी भारत पर आक्रमण किया तब तब ही उसका लक्ष्य मजहबी उन्माद के माध्यम से भारत को इस्लाम के झण्डे तले लाना होता था। भारत में युद्घों में जनसंहार की रीति को कभी यहां के निवासियों ने अब से पूर्व नही देखा था, परंतु मुस्लिम आक्रमणों के काल में जनसंहारों की झड़ी लग गयी। इन जनसंहारों को आप किसी भी प्रकार की महत्वाकांक्षा नही मान सकते, क्योंकि महत्वाकांक्षा का अर्थ होता है अपने लिए मानव इतिहास में सम्मानजनक स्थान पाने के लिए न्यायपूर्ण कार्य करना और न्यायपूर्ण कार्यों में बाधक तत्वों को दण्डित करते हुए चलना। गोरी जिन आम भारतीयों को दंडित करता था या मारता था, वह न्यायपूर्ण नही था। तब भी नही जबकि उसकी अपनी मजहबी शिक्षा उसे विधर्मियों पर ऐसे अत्याचार करने की छूट देती थी। क्योंकि इतिहास में यदि आपने किसी मजहबी शिक्षा से प्रेरित होकर किये गये किसी व्यक्ति के अत्याचारों को न्यायपूर्ण कहकर उन्हें उसकी महत्वाकांक्षा की उच्चतम अवस्था कहा तो यह मानवता के साथ अन्याय, इतिहास के साथ धोखा और आने वाली पीढियों के प्रति आपकी आपराधिक मानसिकता कही जाएगी। क्योंकि ऐसे अनुचित महिमामण्डनों से आने वाली पीढिय़ों को यही लगता है कि यदि हम भी किसी वर्ग विशेष के साथ ऐसा ही अन्यायपूर्ण व्यवहार करेंगे तो हमें भी इतिहास में सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त होगा।
दूसरी ओर पृथ्वीराज चौहान है जिसने गोरी के अन्याय और अत्याचार का सामना करने को अपनी उच्चतम महत्वाकांक्षा बना लिया, उसकी और कोई महत्वाकांक्षा थी ही नही सिवाय इसके कि मां भारती को कोई विदेशी उसके रहते पराधीनता की बेडिय़ों में न जकड़ ले।….यह एक सुखद तथ्य है कि पृथ्वीराज चौहान ने अपने जीवन काल में ऐसा दुर्दिन आने भी नही दिया, परंतु जितना ये सुखद तथ्य है उतना ही ये दुखद तथ्य भी है कि उसकी इस उच्चतम महत्वाकांक्षा को इतिहास में हमने ही स्थान नही दिया।
वीर योद्घा और दूरदृष्टि वाला राजनीतिज्ञ
गोरी को वीर योद्घा और दूरदृष्टि वाला राजनीतिज्ञ भी माना है। हमारा मानना है कि उसे ऐसा कहना भी उसकी अपेक्षा से अधिक प्रशंसा करना ही माना जाएगा। शेर कभी वीर नही होता, क्योंकि वह अपने शत्रु पर घात लगाकर आक्रमण करता है, इसलिए वह क्रूर होता है। हमारे यहां वीर वह होता है जो शत्रु को बिना सावधान किये और उसके हाथ में शस्त्र न आने तक उस पर हमला नही करता है। निहत्थे पर आक्रमण करना या उसे मारना या किसी को छल से मारने को हमारे यहां कायरता माना गया है। पृथ्वीराज चौहान ने आजीवन इस भारतीय वीर-परंपरा का पालन किया। फिर भी उसे वीर योद्घा न माना जाना अपनी वीर-परंपरा का अपमान करना तो है ही, साथ ही शत्रु की छल-परंपरा को वीर-परंपरा में बदलने आत्मघाती संस्कृति विध्वंसक मानसिकता को प्रदर्शित करने वाला एक दुर्गुण भी है। आप किसी की छली दुष्टता को, दुर्दम्य दुस्साहस को या दुर्गुणों को वीर योद्घा जैसे उच्च गुणों से महिमामंडित नही कर सकते। गोरी के जीवन का अवलोकन करें, तो ऐसे कितने ही उदाहरण हैं जब उसने अपने छलबल से अपने विरोधी का नाश किया। उसको दूरदृष्टा भी जयचंद ने कहलवा दिया, अन्यथा वह ना भारत में आता और ना ही उसे ये पदवी मिलती कि वह एक दूरदृष्टा राजनीतिज्ञ था।
जहां तक गोरी के भारत में मुस्लिम साम्राज्य का संस्थापक होने की बात है तो यह भी अंशत: ही सत्य है। क्योंकि वह मुस्लिम साम्राज्य का संस्थापक होकर भी उसका उपभोग एक दिन भी भारत में रहकर नही कर सका। वह भारत के स्वतंत्रता प्रेमी देशभक्तों से आजीवन भयग्रस्त रहा और उनसे लड़ते लड़ते उन्हीं के हाथों मर गया। भारत की देशभक्ति पर उसका छलबल यदि कहीं सफल भी हो गया तो भी उसके लिए वह अनुकूल परिस्थितियां कभी नही बनीं जिनसे वह भारत का सम्राट या शासक स्वयं को घोषित कर पाता। फिर यह भी विचारणीय है कि यदि उसने भारत में पृथ्वीराज चौहान को हराने में सफलता भी हासिल कर ली थी तो उसने भारत के कितने क्षेत्र पर अपना साम्राज्य स्थापित किया? दस पांच प्रतिशत भाग को हम 90 प्रतिशत भाग पर हावी क्यों कर देतेे हैं? माना जा सकता है कि यहां से (1206 ई. से) भारत में मुस्लिम शासन की नींव पड़ गयी, परंतु हिंदू शक्तियां जो देश के विभिन्न आंचलों में राज्य कर रही थीं वो तो अब भी वैसे ही अपना कार्य कर रही थीं। जिनमें देशभक्ति भी थी और देश के प्रति समपर्ण भाव भी था, उनकी दुर्बलताओं के साथ-साथ हमें उनके इस गुण पर भी ध्यान देना चाहिए।
जहां तक गोरी के लुटेरा न होने की बात है तो यह तो नितांत असत्य है। पी.एन. ओक ने तथ्यों के आधार पर स्पष्ट किया है कि उसने 1000 हिंदू मंदिरों को लूटकर उन्हें मस्जिद बना दिया था। अकेले वाराणसी से ही वह अपने लूट के सामान को 1400 ऊंटों पर लाद कर ले गया था। इसीलिए ओक महोदय का यह कथन विचारणीय है कि-”हिंदुस्तान का हजार वर्षीय मुस्लिम युग उनकी बर्बर लूट, हिंदुओं की नृशंस हत्या, हिंदुओं का भीषण संहार, हिंदू देव स्थानों का विनाश, हिंदू स्त्रियों के साथ निर्मम बलात्कार हिंदू किशोरों का क्रूर हरण और लाखों हिंदुओं को गुलाम बनाकर बेच देने की ख्ूान खौलाने वाली कहानी है। इसी युग को बड़ी बेशर्मी से हमारे इतिहास का आदर्श युग माना गया है।”
हमें गोरी के लुटेरा न होकर साम्राज्य निर्माता होने के तर्क की एक और ढंग से भी समीक्षा करनी होगी कि यदि वह लुटेरा नही था तो वह भारत से मिले लूट के धन को अपने देश ही क्यों ले जाता था, और उस धन को प्राप्त कर यहीं के रहने वाले निर्धन लोगों के कल्याण कार्यों पर व्यय क्यों नही करता था? क्या कोई एक भी ऐसा उदाहरण है कि जब उसने किसी मंदिर को लूटकर उससे मिले धन को यहीं के निर्धन लोगों में बांट दिया हो या उनके लिए स्वास्थ्य, शिक्षा आदि का उत्तम प्रबंध किया हो, सारा जीवन जिसने लूट, हत्या, डकैती और बलात्कार किये हों, वह लुटेरा न कहा जाकर एक योग्य प्रशासक मानना कितना उचित है?
धर्मपरायण शासक वही होता है जो अपनी प्रजा के मध्य न्यायपूर्ण व्यवहार प्रतिपादित करता है और किसी भी वर्ग या व्यक्ति का शोषण दलन या दमन न तो करता है और न होने देता है। क्योंकि धर्म का अर्थ ही ऐसा न्यायपूर्ण शासन स्थापित करना है। धर्मपरायण का अर्थ किसी वर्ग विशेष की दमनकारी नीतियों को दूसरे वर्ग पर आरोपित करना कदापि नही है। यदि ऐसी नीतियों को भी उचित माना जाएगा तो फिर स्पष्ट करना होगा कि मानवता क्या है? इसलिए इतिहास की समीक्षा की जानी आवश्यक है। किन्हीं इतिहासकारों की मान्यताओं के आधार पर अपने इतिहासनायकों के साथ क्रूर-उपहास करने की अपनी अनुचित परंपरा को हम जितना शीघ्र छोड़ देंगे उतना ही उचित होगा।
मुख्य संपादक, उगता भारत