ऎसा खान-पान होगा
तो विकार आएंगे ही
– डॉ. दीपक आचार्य
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खान-पान सिर्फ वह प्रक्रिया नहीं है जिसमें खा-पी कर पेट भर लिया और फिर अपनी राह। खान-पान का सीधा संबंध शरीर की तमाम ज्ञानेन्दि्रयों और कर्मेन्दि्रयों से है । इसी से चित्त की भावभूमि, मन-मस्तिष्क की तरंगों और संकल्पों की दिशाओं को आकार मिलता है।
खान-पान के लिए धन के स्रोत से लेकर निर्माण और इसके बाद की भावनाओं का सीधा संबंध खान-पान को सूक्ष्म रूप से प्रभावित करता है और यही सब मिलकर ये तय करते हैं कि हमारे जीवन की गाड़ी किस दिशा में जा रही है।
जिनका खान-पान दूषित है उनका व्यवहार तथा वाणी भी दूषित हुए बिना नहीं रह सकती। आजकल खान-पान और व्यवहार सभी तरफ कुछ न कुछ प्रदूषण व्याप्त हो ही गया है। बात सिर्फ खान-पान के लिए जरूरी कारकों की शुद्धता या तत्वों की गुणवत्ता की ही नहीं है बल्कि खान-पान से जुड़ी उन तमाम गतिविधियों से है जो खान-पान के लिए उत्प्रेरक का काम करती हैं।
खान-पान सादा हो या गरिष्ठ, सस्ता हो या महंगा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जरूरी यह है कि किस भावना से खिलाया-पिलाया या परोसा जा रहा है। वो जमाना बीत गया जब हम रोजमर्रा के यज्ञों में शामिल अतिथि यज्ञ को निभाने के लिए प्रसन्नता के लिए औरों को भोजन कराते थे, पानी और पेय पदार्थों से आवभगत किया करते थे।
आजकल अतिथि यज्ञ से लेकर अतिथियों के प्रति हमारे दैनंदिन धर्म, कर्म और फर्ज को हम भुलते जा रहे हैं और इसी का नतीजा है कि आजकल हम किसी को भी अतिथि नहीं मानते। हम उन्हीं को खिलाने-पिलाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं जिनसे हमारा किसी न किसी प्रकार का स्वार्थ का संबंध होता है।
हमारे अपने स्वार्थ पूरे न हों तो हम किसी की भी तरफ झाँकें तक नहीं, बोलचाल और आतिथ्य सत्कार की बात तो बहुत दूर की है। ऎसे माहौल में जबकि आतिथ्य सत्कार की हमारी सारी बुनियाद ही ध्वस्त हो चुकी हो, उन परंपराओं का खात्मा कोई नई बात नहीं है जिसमें अतिथियों को देवता की तरह माना जाता रहा है।
आज हम सभी को यह भ्रम तोड़ देना चाहिए कि कोई भी हमें आतिथ्य सत्कार या श्रद्धा भावना से निष्काम भाव से खान-पान कराने को आतुर रहता है। अपने कुछ आत्मीयों को छोड़ दिया जाए तो शेष सभी जगह का हमारा खान-पान दूषित और प्रदूषित ही है और जो लोग हमारी आवगभगत करते हैं उनमें कुछ अपने आत्मीयों को छोड़कर किसी में श्रद्धा भावना हो, यह लगता नहीं।
यही कारण है कि आजकल के तमाम प्रकार के भोज व्यवसायिक होते जा रहे हैं जिसमें सामग्री से लेकर निर्माण तक गुणवत्ता और पौष्टिकता की बजाय सस्ता और कम खर्च में अधिकतर के लिए उपयोग भोजन और पेय पदार्थों का चयन चल पड़ा है।
यह इस बात को संकेतित करता है कि हमारे प्रति आतिथ्य सत्कार की सारी भावनाएँ गौण हो गई हैं और उनका स्थान ले लिया है व्यवहार निभाने की औपचारिक परंपराओं ने। कोई सा अवसर हो, इसमें खान-पान के पीछे अब श्रद्धा और भावना का स्थान नहीं होता बल्कि फैशन परस्ती और औपचारिकता का निर्वाह अथवा लेन-देन के संबंधों की पूर्णता अथवा स्वार्थ के संबंधों के निर्वाह मात्र की भावना रह गई है।
आजकल लोग श्रद्धा की बजाय दबाव या मजबूरी में आतिथ्य सत्कार करने लगे हैं और इसी का परिणाम है कि बाहरी खान-पान आनंद और पौष्टिकता की बजाय विभिन्न प्रकार के मानसिक विकारों को पनपाने लगा है तथा इससे बीमारियों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है।
जिस खान-पान में शुद्धता और आत्मीय भावना का अभाव होगा, वह हमें विकार देगा ही। इस बात को हम आज स्वीकार भले न करें, हमारी वृत्तियाँ, हमारे चेहरे पर छायी मलीनता और हृदय में घर करती जा रही कुटिलताएं अपने आप सब कुछ कह देती हैं।
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