नेपाल के प्रधानमंत्री ओली ने फेंका अब नया कूटनीतिक दांव
आशीष कुमार
बेहतर होगा कि भारत के कूटनीतिज्ञ नेपाल के बरक्स दीर्घकालिक नजरिया अपनाकर आगे बढ़ें, उसकी घरेलू राजनीति के पचड़े से खुद को दूर ही रखें।
पिछले हफ्ते नेपाली विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञावाली की तीन दिवसीय भारत यात्रा दोनों देशों के रिश्तों पर जमी बर्फ पिघलाने में काफी मददगार साबित हुई। लिपूलेख दर्रा, कालापानी और लिंपियाधुरा को लेकर पिछले साल हुए विवाद के बाद से नेपाल के किसी मंत्री की यह पहली भारत यात्रा थी। इस दौरान ज्ञावाली ने सीमा विवाद को बातचीत से हल करने की अपनी सरकार की सदिच्छा बार-बार दोहराई। उन्होंने यह भी कहा कि नेपाल अपनी जमीन का इस्तेमाल अन्य देशों (मौजूदा संदर्भ में भारत) के खिलाफ नहीं होने देगा। इस यात्रा का एक अहम उद्देश्य भारत से कोरोना के टीके की आपूर्ति सुनिश्चित कराना भी था।
अच्छे पड़ोसी की अपनी भूमिका के अनुरूप भारत ने सभी मतभेदों को एक तरफ रखकर नेपाली विदेश मंत्री को आश्वस्त किया कि ये टीके नेपाल को प्राथमिकता से उपलब्ध कराए जाएंगे। मगर इन सबके बावजूद जिन घरेलू राजनीतिक स्थितियों में ज्ञावाली का भारत दौरा हुआ है, उनकी अनदेखी करके दोनों देशों के रिश्तों के बारे में कोई नतीजा नहीं निकाला जा सकता। नेपाली प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने पिछले कुछ समय से अपने फैसलों और बयानों के जरिये जिस तरह का भारत विरोधी माहौल वहां पैदा किया, वह अभूतपूर्व है। चीन के पक्ष में झुका हुआ दिखने के मामले में भी उन्होंने अब तक की सारी हदें तोड़ दीं।
लेकिन दिलचस्प बात यह कि इस क्रम में वह न केवल नेपाली राजनीति में बल्कि सत्तारूढ़ नेपाली कम्यूनिस्ट पार्टी के अंदर भी किनारे पड़ते गए। पार्टी के सारे बड़े नेता उनके खिलाफ हो गए और उन पर इस्तीफे का दबाव बढ़ने लगा। आखिरकार कोई और उपाय न देखकर ओली ने राष्ट्रपति से संसद भंग करने की सिफारिश की और नए सिरे से चुनाव कराने की घोषणा कर दी। उनके विरोधी इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गए, जिसका फैसला अभी नहीं आया है।
लेकिन इस बीच सत्तारूढ़ नेपाल कम्यूनिस्ट पार्टी में विभाजन अवश्यंभावी लगने लगा और चीन की तरफ से इस संभावित विभाजन को टालने की कोशिश शुरू हुई। इसके लिए वहां से एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधि मंडल काठमांडू आया। इस प्रक्रिया में ओली को एक बार फिर अपना पद खतरे में दिखाई देने लगा है, लिहाजा उनकी कोशिश विदेश मंत्री को भेजकर भारत से रिश्ते सुधारने और चीन की ओर से बढ़ रहे दबाव का जवाबी बल तैयार करने की हो सकती है। यह दिलचस्प है कि हाल तक भारत के खिलाफ चीन का मोहरा बने ओली अब चीन के खिलाफ भारत को मोहरा बनाने की फिराक में हैं।
बेहतर होगा कि भारत के कूटनीतिज्ञ नेपाल के बरक्स दीर्घकालिक नजरिया अपनाकर आगे बढ़ें, उसकी घरेलू राजनीति के पचड़े से खुद को दूर ही रखें। भारत की कोशिश हर हाल में यह सुनिश्चित करने की होनी चाहिए कि अगले चुनावों में कोई भी दल भारत-नेपाल रिश्तों को मुद्दा न बनाए। दक्षिण एशिया में चीन की दखलंदाजी रोकने का अकेला तरीका यही है कि हम हर देश की घरेलू राजनीति के सभी पक्षों से सौहार्द कायम करें और द्विपक्षीय संबंधों में भरोसे और उम्मीद को सदाबहार बनाए रखें।
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