भारत के महापुरूषों ने दूर दूर तक अपनी संस्कृति को फैलाया। वे शस्त्र नही प्रेम को लेकर आगे बढे। उन्हे न रथ की आवश्यकता पडी न धुडसवारों की उनके विचार ही पादातिक थे। वे चींटी को बचाकर चले तथा पशु बल को सदैव नगण्य समझा निपट अन्यों ने उनको अपना और अनन्य गिना। यही संस्कृति कभी गौतमबुद्ध, कभी शंकराचार्य, नानक कबीर, विवेकानन्द, रवि ठाकुर तो कभी गॉंधी का गौरवशाली स्वर बनकर गूॅंजने लगी। इन महा पुरूषो की वाणी अंहकार से रहित रही, इस लिए विदेशों में भी इसका अभिनन्दन अंजलि में जल भरकर श्रद्धा पूर्वक किया गया।
भारतीय परम्परा और हिन्दू शास्त्रों में नारी को श्री कहा गया है।नर के ‘न’ और ‘र’ दोनो ही वर्ण ह्रस्व है। तथा नारी के दोनो ही दीर्घ। इससे यही द्योतित होता है कि नारी का स्थान नर से ऊंचा है। नारी मूलत: पुरूष की शिक्षिका है। तब भी, जबकि वह बच्चा होता है। और तब भी जब वह वयस्क हो जाता है। डॉ. राधा कृष्णन के शब्दों में जब आकाश बादलों से काला पड़ जाता है, भविष्य का मार्ग घने वन में से होता है, जब हम अध्ंाकार में बिल्कुल अकेले होते हैं। प्रकाश की एक किरण भी नही दीख पड़ती और जब सब ओर कठिनाइयॉ होती हैं, तब हम अपने आपको किसी प्रेममयी नारी के हाथ में छोड़ देते हैं।
वैदिक काल से ही नारी के शाश्वत रूप देवी, माता, पत्नी, बहन, और पुत्री हैं। जिसमें वह धैर्य, विवेक, सेवा, और त्याग को अपने जीवन का लक्ष्य बनाती रही है। भारतीय संस्कृति के शाश्वत जीवन मूल्यों से प्रभावित होकर अनेक विदेशी नारियां पूर्णत: भारतीयता के रंग में रंग गयीं, इनमें श्रीमती एनीबेसेन्ट, भगिनी निवेदिता, सावित्री बहन, मदर टेरेसा एवं नीरा बहन का नाम आदर से लिया जा सकता है। भारत जिनकी जन्म भूमि नहीं था, किन्तु उन्होंने इसे अपनी कर्मभूमि बनाया और स्वर्ग से भी सुन्दर बनाने का भरसक प्रयास किया।
वास्तविक सेवा वह है, जो नि:स्वार्थ भाव से की जाय। यह एक न्यायिक शब्द है और तीन रूप में प्रकट होता है, एक समाज कल्याण, दूसरा सामाजिक सुरक्षा और तीसरा सर्व सेेवा है। पहले में व्यक्ति शारीरिक और सामाजिक रूप से बाधक मनुष्यों के हित में कार्य करता है। क्योंकि ऐसे लोग अपना हित साधने में व्यक्तिगत रूप से समर्थ नही होते। जैसे अनाथ बच्चे, विधवा स्त्री, परित्यक्ता स्त्री और अक्षम वृद्धों की सेवार्थ किया गया कार्य। समाज सेवा सर्व सेवा का रूप जब धारण करती है जब पात्रता का प्रश्न ही न हो। सेवा ही वास्तविक संन्यास है, सेवा व्रतधारी अपने को परमार्थ की वेदी पर बलि चढा देता है। उपर्युक्त महान नारियां भी मोक्ष तक की कामना नही करतीं, इसलिए इनका सेवा भाव संन्यास से भी बढकर है।
धर्म का अर्थ है धारण करना, जो विशेष गुण किसी वस्तु के अस्तित्व को धारण किये हुए है वही उसका धर्म है। अग्नि का धर्म जलाना है और चदंन का धर्म शीतलता देना। इसी अर्थ में इन नदियों के स्वभाव को अभिव्यक्त करने वाला गुण ही उनका धर्म है। अपनी सेवा में मानव मात्र समान है अपने शत्रु को भी क्षमा बिना भेदभाव के सबकी सेवा की पुकार को लेकर चली है। प्रसिद्धी की दृष्टि से प्रथम नाम मदर टेरेसा का आता है। अठारह वर्ष की आयु में अपनी जन्म भूमि छोड़कर मदर इसाई धर्म की नन सेविका बनकर भारत आ गई। उन्होंने सेवा के लिए कलकत्ता को अपनी कर्म स्थली बनाया उन्होंने वहॉ 20वर्षों तक अध्यापन कार्य किया एक दिन मदर ने सडक के किनारे एक असहाय युवती को बीमार देखा। मदर का हद्रय द्रवित हो गया वे उस युवती को तुरन्त अस्पताल ले गईं। इलाज के पश्चात भी युवती को बचाया ना जा सका। इस घटना से मदर टेरेसा में एक बदलाव आया , उन्होने नौकरी छोडदी। बेसहारा लोगो के साथ रहने लगीं अर्थात जिसका कोई नही उसकी मदर टेरेसा हो गई।
दूसरा नाम मीरा बहन अर्थात मैडेलिन है जिनके लिए भारत ही सर्वस्व हो गया यह देश उनके लिए इतना अहम हो गया कि पिता की मृत्यु पर भी वह मॉं के पास इंग्लैण्ड नही गईं। उन्होने अपना जीवन मानव सेवा में अर्पित कर दिया। 22नवम्बर 1892 को लंदन के एक उच्च घराने में जन्मी मैडेलिन 7 नवम्बर 1925 को साबरमती आश्रम आ गई। मैडेलिन ने भाव विभोर हो बापू के चरणो में सिर रख दिया। बापू ने अत्यन्त कोमल स्वर में कहा-तुम मेरी बेटी बनकर रहोगी नाम दिया मीरा मैडेलिन। मैडेलिन ने एक नया जन्म पाया-मीरा का। अपने मीरा नाम को उन्होने सार्थक कर दिया जब कोई उत्सुूकतावश उनका मूल नाम पूछ बैठता तो वह जवाब देती वह नाम मैडेलिन स्लेड मुझे याद नही वह चोला तो कब का मर चुका है।शान्ति नामक चीनी युवक कार्य में उनका साथ देता। पाखाना पेशाब घर से लेकर झाडु से आश्रम साफ करने का काम वह इतनी तत्परता से करतीं कि सभी आश्रम वासी हैरान हो उठते थे। बापू ने खुद ही उस्तरे से उनके घनेे काले बाल मूंड दिए, मीरा बहन की दृष्टि में लक्ष्य की प्राप्ति के लिए त्याग और तपस्या कम है कर्म और साधना भी इसके लिए अनिवार्य है। उन्होने यूरोपीय पहनावा त्यागकर भारतीय पहनावा और वह भी खादी पहन ली।ग्रामीण स्त्रियों के ढंग का पूरा लहंगा और सिर ढकने के लिए आधी साडी पहनी वर्धा में विनोबा जी के आश्रम में भी रही यहा से उन्हे हिन्दी भाषा का अच्छा ज्ञान हो गया।
मीरा बहन का क्षेत्र बहुत विस्तृत रहा है, कताई बुुनाई और बच्चो को तकली पर कातना सिखाना उनका नियम था। बिहार के मधुबनी केन्द्र में धुनाई कताई की सुधरी हुई पद्धतियॉ जारी रखने में वह खादी कार्य कर्ताओं की सहायता करती थी।गौशालामें एक गाय का दूध निकालना उनका रोज का कार्य था लाखों मनुष्यों की सेवा भावना से प्रेरित मीरा बहन ने दुख से पीडित जनता के लिए अपने को समर्पित कर दिया उनके मन में भारत के लिए सच्चा प्यार था।भारत में रहकर तत्कालीन स्वतऩ़़़़्त्रा संग्राम के प्रति समर्पित होकर उन्होने भारत की स्वतन्त्रता का स्वर बुलन्द किया।वे राष्टीय आन्दोलन की एक जागरूक सिपाही थी।
मीरा बहन भारत वर्ष को पवित्र भूमि के नाम से पुकारती थी। इसे अपनी मातृभूमि मानकर यही बस गई। कुमारी मैडेलिन स्लेड के स्थान पर उन्होने विश्वभर में मीरा के नाम से प्रसिद्ध पायी कस्तूरबा गॉंधी हमेशा गर्व से कहा करती थी मैने हिन्दी पढना अपनी बेटी मीरा से जेल में सीखा मीरा बहन को भारतीय संस्कृति से अन्नय अनुराग था। अपने जेल जीवन में उन्होने रामायण महाभारत उपनिषद एवं गीता का अध्ययन किया उपनिषद और वेदो में उन्हे वही ध्वनिदी जो बीथोवन के संगीत में थी।
मीरा ने वर्धा के पास सैगांव नामक स्थान खोजा तथा वहा सेवा कार्य में जुट गई बापू ने उसका नाम ‘सेवाग्राम’ रख दिया। यह ‘सेवाग्राम’वास्तव में मीरा ग्राम ही है। जो कालन्तर मेें नए भारत के निर्माण का एक प्रशिक्षण केन्द्र बन गया भारत की समस्त शोषणो से मुक्ति हो यह उनकी आत्मा की तीव्र पुकार थी जिसने उन्हे निजी बन्धनो से मुुुुुुुुक्त कर भारत के बन्धनो में बांध दिया और मानवता का यह बन्धन अन्त तक अटूट रहा।भारत के ग्रामीण विकास की इच्छुक मीरा बहन ने सोचा कि गांव वालो को खेती और पशु पालन का ज्ञान दिया जाए। इसके लिए उन्होने रूडकी और हरिद्वार के बीच मूलदास पुर गांव में किसान आश्रम नाम से एक केन्द्र खोला तथा गौशाला का भी निर्माण किया। गाय तो उनकी अपने सगे सम्बन्धी जैसी परिवार की प्राणी ही थी। ऋषिकेश के पास पशुलोक में गौ सेवा का कार्य प्रमुख था। किसान आश्रम, गोपाल आश्रम और गांव बाल मीरा बहन के कारण तीर्थ स्थल बन गए।
श्रीमति ऐनी बेसेंट द्वारा संचालित थियोसोफीकल सोसायटी ने आधुनिक भारत में एक संास्कृतिक आन्दोलन का शुभारम्भ किया। इसमे मानव धर्म की स्थापना की गई मनुष्य तथा मनुष्यता को सर्वप्रथम सबसे ऊचा दर्जा मिला। इसी परम्परा में सरला बहन का नाम आता है। उनका प्रारम्भिक जीवन आयरलैण्ड और आयरिस की सुख सुविधाओ में व्यतीत हुआ।वह गॉधी जी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर भारतीयता में रंग गयी। वह गॉधी जी की बेटी बनकर कलकत्ता एवं पहाडी क्षेत्रो में मानव सेवा करती रही।
इन महान नारियों की निष्ठा और लगन से इनका जीवन सच्चे अर्थो में महान बनता गया। जहां भी रही जिस और भी बढी निष्ठा और लगन की ताकत से उस दिशा को उस कार्य को पूर्णता प्रदान की। विदेशो में जन्मी अपनी शासक जाति के समस्त अन्याय और पाप कर्म का प्रतिकार करती हुई इस देश की गुलामी की देहरी पर अपनी सेवा का दीपक जलाती रही। मानो विधाता ने इन्हे भारत की आत्मा के लिए ही अवतरित किया। जिनके जीवन का लक्ष्य ही भारत की सम्पूर्ण जागृतिया ये गोमुखी गंगा की भॉंति उपस्थित होती है।यह कमल से भी कोमल चॉंदनी से भी पावन नवनीत से भी तरल सागर से भी गंम्भीर और हिमालय से भी दृढ चरित्र वाली है। इनका जन्म ही दूसरो की सुख सुविधाओं के लिए हुआ है।उनका व्यक्तित्व दूसरो के हित में पर्यवसित
हो गया है। जिससे न तो इनकी कोई इच्छा रही न आवश्यकता उन्होने जीवन में दान ही सीखा है। और प्रतिदान की इच्छा इनके मन में कभी नही हुई।
मानवता की इन सच्ची सेविकाओं को जिस भी सम्बोधन से पुकारा जाये। वह अपने आप में एक अलग छवि लिये होगा।जहां कही दुखों की शत शत धाराओ में कभी अपने को दलित द्राक्षा की भॉंति निचोडकर दूसरो को सुख तृप्त करने की भावना ही वही नारी है। अथवा शास्त्रीय शब्दावली में कहा जाता तो वह शिव तत्व है।
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