लेखक:- आर.के.त्रिवेदी
(लेखक ऑर्कियोकेमिस्ट हैं)
विश्व के कल्याण का भाव लेकर ही भारत में धातुकर्म विकसित हुआ था। धातुकर्म के कारण ही भारत में बड़ी संख्या में विभिन्न धातुओं के बर्तन बना करते थे जो पूरी दुनिया में निर्यात किए जाते थे। धातुकर्म विशेषकर लोहे पर भारत में काफी काम हुआ था। उस परम्परा के अवशेष आज भी देश में मिलते हैं। यह केवल लौह स्तंभों की बात नहीं है, उस ज्ञान परम्परा की भी बात है। वह ज्ञान परम्परा आज भी हमारे देश में धातुकर्म करने वाले अनपढ़ लुहारों के पास सुरक्षित है।
वर्ष 2012 में आंध्र प्रदेश के निजामाबाद जो कि वर्तमान में तेलंगाना में पड़ता है, में एक किले के संरक्षण के उपाय कर रहा था। उस किले की दिवारों में अनेक पेड़ उग आए थे। उन्हें काटने में कठिनाई आ रही थी कि कुल्हाड़ियों की धार पत्थर के कारण कट जाती थी। इस पर मैंने एक स्थानीय लुहार से पूछा कि एक कुल्हाड़ी में धार चढ़ाने का वह कितना लेगा। उसने बताया बीस रुपये। मैंने उसे कहा कि पत्थर पर कुल्हाड़ी मारने पर भी धार न कटे, ऐसी धार चाहिए। इस पर उसने कहा कि ऐसी धार बनाने के तीन सौ रूपये लगेंगे। मैंने उससे पूछा कि कैसे करेगा। उसने लोहे को पहले गरम किया, फिर पानी में डाल कर ठंडा किया। 2-3 बार ऐसा करने के बाद उसने लोहे को लगभग 300 डिग्री सेंटीग्रेट तक गरम किया, वह नीले रंग का हो गया। तब उसने उसे एक काले रंग के पानी में डाल दिया। पूछने पर बताया कि वह काला पानी त्रिफला का पानी था। उससे ठंडा करके उसने एक गड्ढा बनाया और उसमें लोहे को डाल कर उसमें केले के तने को छोटे-छोटे टुकड़े करके उसमें डाल दिया। केले के तने का रस उसमें ठीक से भर गया। फिर उसे बंद करके 15 दिन के लिए छोड़ दिया गया। पंद्रह दिन बाद उसमें ऐसी धार थी कि पत्थर कट रहे थे, धार नहीं। एक धरोहर के संरक्षण में मैंने इन्हीं लुहारों का सहयोग लिया था। उनकी बनाई धार के कारण पत्थरों में जमे वृक्षों को साफ करना संभव हो पाया था।
भारतीय धातुकर्म की इसी उत्कृष्टता के कुछ नमूने हमें देश में लौह स्तंभों के रूप में मिलते हैं। इन स्तंभों की विशेषता है कि लोहे के बने होने के बाद भी इनमें जंग नहीं लगता और खुले में धूप-बरसात को झेलते हुए ये हजारों वर्षों से खड़े हैं। सवाल है कि इन पर जंग क्यों नहीं लगता? आखिर उन्हें किस प्रकार के इस्पात से बनाया गया है?
इन्हें बनाने में पिटवां लोहे का उपयोग किया गया है। लोहे को गरम करके पीट-पीट कर तैयार करने पर पिटवां लोहा तैयार होता है। परंतु इतने बड़े लोहे के टुकड़े को घुमाना संभव नहीं है। परंतु इसी लौह स्तंभ के आकार की तोपें भी मिलती हैं। यानी उस समय इस आकार के लोहे के टुकड़ों को बनाने का तरीका लोगों को ज्ञात था। वे लोग लोहे को गरम करके ठंड़ा करते समय उसे गौमूत्रा में भिगोते थे। गौमूत्रा लोहे के ऊपर एक ऐसी परत चढ़ाता है, जो उसे जंग लगने से बचाती है। इसे हम अपने दांतों के उदाहरण से समझ सकते हैं। हमारे दांतों पर एनामेल की परत चढ़ी होती है। जब तक वह परत सुरक्षित है, हमारे दांत सुरक्षित हैं। एनामेल नष्ट हुआ तो हमारे दांत भी गए। यही बात इन लौह स्तंभों की भी है। मेहरौली के लौह स्तंभ की जाँच करने के लिए जब उसका नमूना लिया गया तो वहाँ की परत कट जाने के कारण वहाँ जंग लगना प्रारंभ हो गया।
इसी प्रकार कोणार्क मंदिर में भी लोहे की बड़े-बड़े बीम बनाए गए थे। आज यह तीन टुकड़ों में मिलता है। इसी प्रकार धार, मध्य प्रदेश में दुनिया का सबसे बड़ा स्तंभ मिलता है। यह भी पिटवां लोहे का बना हुआ है। इसमें भी जंग नहीं लगता। इसका अर्थ है कि इस पर भी कुछ परत चढ़ाई गई होगी। आइने अकबरी में एक संदर्भ मिलता है कि उसके लेखक ने जब पुरी का मंदिर देखा तो वह वर्णन करता है कि उस पर रंग चढ़ाया गया है। उस समय रासायनिक रंग नहीं होते थे। जो रंग होते थे वे जैविक तरीके से तैयार किये जाते थे।
आंध्र प्रदेश में एक धरोहर के संरक्षण के लिए उस पर मुझे एक परत चढ़ानी थी, तो मैंने भी उसी तरह एक रंग तैयार किया था। मैंने इसके लिए मधुमक्खी के मोम को जले हुए किरासन तेल के साथ मिला कर उसे गरम किया और उसकी परत चढ़ाया। इससे वह धरोहर 100 वर्ष तक के लिए संरक्षित हो गया। यह प्रक्रिया हमारे लोगों को पहले से ज्ञात थी।
माउंट आबू में ऐसा ही एक लौह स्तंभ पाया जाता है। कहते हैं कि जब अलाउद्दीन खिलजी को यहां के राजाओं ने हराया तो उसकी सेना के अस्त्रा-शस्त्रों को एकत्रा करके उन्हें पिघला कर उससे एक त्रिशूल के आकार का स्तंभ बनाया। इसलिए इसे जय स्तंभ भी कहा जाता है। मुर्शिदाबाद में एक लोहे की बड़ी तोप है। इस तोप में भी वही तकनीक का प्रयोग किया है। बीजापुर के तोप में भी यही तकनीक पाई जाती है। यह तकनीक इतनी अधिक प्रयोग में रही है कि आज के सामान्य लुहारों को भी इसकी अच्छी जानकारी है।
इसी प्रकार की अन्य भी कई पद्धतियों की चर्चा पाई जाती है। इसे मधुचिकित्सा विधान के नाम से जाना जाता था। इसमें मधुमक्खी के मोम का उपयोग किया जाता था। लोहे पर उस मोम की परत चढ़ाने की प्रक्रिया का वर्णन इसमें पाया जाता है। इसी प्रकार मूर्तियों को बनाने के लिए धातु को पिघलाना, उसे मूर्तियों के सांचे में डालकर मूर्तियां बनाना आदि की प्रक्रिया भी काफी वैज्ञानिक रही है। ऐसी भट्ठियां रही हैं, जिनमें 700 डिग्री तक का तापमान पैदा किया जा सकता था।
लोहे के अयस्कों की पहचान के तरीके थे। युक्तिकल्पतरू में लोहे के प्रकारों का वर्णन पाया जाता है। वहां कलिंगा, वज्रा, भद्रा आदि प्रकार के लोहे का वर्णन किया गया है। धातुकर्म की एक प्रक्रिया में पीप्पली के चूर्ण को गौमूत्रा मिलाकर उसकी एक परत लोहे पर चढ़ाई जाती थी। इसी प्रकार नागार्जुन के रसतंत्रासार में भी धातुकर्म की अनेक विधियों का उल्लेख मिलता है। आचार्य चाणक्य ने अपने ग्रंथ कौटिलीय अर्थशास्त्रा में भी धातुकर्म पर काफी लिखा है। इन सभी विवरणों से यह साबित होता है कि अपने देश में धातुकर्म की एक विशाल परम्परा विद्यमान थी। आज भी गाँवों और शहरों में पाए जाने वाले लुहारों के पास उस विद्या का ज्ञान सुरक्षित है। आवश्यकता है तो उस ज्ञान को सहेजने और उसका उपयोग करने की।
भारतीय परम्परा में यदि हम धातुकर्म को खोजना चाहें तो विष्णु पुराण अनुसार ईश्वर निमित्त मात्रा है और वह सृजन होने वाले पदार्थों में है, जहां सृजन हो रहा है, वहीं ईश्वर है। सृज्य पदार्थों में परमाण्विक सिद्धांत के अनुसार धरती पर पाए जाने वाले सभी एक सौ अठारह पदार्थों की अपनी संरचना है और उन्हें ही आपस में जोड़ कर दूसरी वस्तु का निर्माण किया जाता है। इस संदर्भ से जब हम आगे बढ़ते हैं तो पाते हैं कि सृजन धातुकर्म से जुड़ा हुआ है। ऋग्वेद के चौथे एवं सातवें मंडल, यजुर्वेद के तीसरे मंडल तथा अथर्ववेद के छठे एवं ग्यारहवें मंडल में इसकी विस्तृत चर्चा आती है।
इसी प्रकार भारतीय शास्त्रों में एक चर्चा आती है कि हे अयस्क, इस सृष्टि की रक्षा करने के लिए धातु के रूप में इसका संरक्षण करो। संरक्षित हम कब होते हैं? हमारे पास अस्त्रा-शस्त्रा हैं, तो हम संरक्षित हैं, हमारे पास मजबूत किले हैं तो हम संरक्षित हैं। इस प्रकार हम धातुओं और उनके अयस्कों के उपयोग की चर्चा प्राचीन साहित्य में पाते हैं।
यदि हम इतिहास की बात करें तो आज से चार हजार वर्ष पहले हमें एक ऐसे धातु की जानकारी थी, जिसके बारे में दुनिया में और किसी को पता नहीं था। यह धातु है जस्ता यानी जिंक। जिंक के निष्कर्षण की विधि भारत में ही विकसित हुई थी। आमतौर पर धातुओं को नीचे से गर्म करके निष्कर्षित किया जाता है। जस्ते को ऊपर से गर्म करके निकाला गया। यह विधि यहां से चीन गई और वहां से फिर सन् 1547 में यूरोप पहुंची।
अपने देश में धातुकर्म की शुरूआत तीर की नोक को और धारदार बनाने के प्रयास से हुई। महाभारत में कथा आती है कि यादवों ने दुर्वासा ऋषि से छल किया था। वे एक युवक को गर्भवती स्त्राी के वेष में उनके पास ले गए और उनसे पूछा कि इसके पेट में लड़का है या लड़की? इस पर दुर्वासा ने कहा कि इसके पेट से मूसल पैदा होगा जिससे तुम्हारा नाश होगा। पेट से बाद में मूसल ही निकला। उस मूसल को घिसने से वह तीर के नोक के समान बचा जो उस बहेलिये को मिला जिसके तीर से बाद में कृष्ण की मृत्यु हुई। इस कहानी का अभिप्राय इतना ही है कि एक मूसल से तीर की नोक बनती है और उससे दुनिया का इतिहास बदल जाता है। इसका अर्थ है कि वहां धातु की चर्चा है और उसका निर्माण है।
कहा जाता है कि पाषाणयुगीन मानव भोजन के लिए तीर से शिकार किया करता था। फिर उसने चमकदार पत्थरों जिनमें धातु के अंश थे, का प्रयोग करने लगे। आज से साढ़े आठ हजार से नौ हजार वर्ष के बीच पश्चिमी एशिया, तुर्र्कीी, ईरान, इराक में हमें तांबा मिलता है। हड़प्पा संस्कृति में भी हमें तांबा, सोना और चांदी मिली है। लोहा नहीं मिला है। माना जाता है कि सबसे पहले 1500 ईसा पूर्व में लोहा पाया जाता है। मैंने अपने शोध में लोहे का एक स्लैग पाया है। धातु को शुद्ध करने की प्रक्रिया में जब उससे अशुद्धियां हटाने के बाद धातु निकाला जाता है तो उसके बाद भी कुछ ठोस पदार्थ बच जाता है, उसे ही स्लैग कहा जाता है। मेरे पास इसी स्लैग के तीन नमूने आए थे जो आलमगीरपुर, उत्तर प्रदेश के थे। इन तीनों की जांच से समझ आया कि यह कम से कम 1870 वर्ष ईसापूर्व का है। इसका अर्थ हुआ कि हड़प्पा से लगभग 450 वर्ष और पहले से लोहा प्रयोग में था। हमारी खोज अभी पूरी नहीं हुई है। यदि और खोजा जाए तो लोहे का इतिहास और पुराना साबित हो सकता है।
धातुओं के प्रयोग के हमारे यहां जो लिखित प्रमाण पाए जाते हैं, उनमें रामायण, महाभारत, कौटिल्य आदि हैं। यहां मैं इनके कालक्रम पर कोई चर्चा नहीं करूंगा। उस पर विवाद हो सकता है, परंतु इन प्रमाणों पर कोई विवाद नहीं है। चाणक्य ने लिखा है कि यदि आपको अयस्क को ढूंढना है तो रंग के अनुसार ढूंढा जा सकता है। अयस्क से पदार्थ निकालने की चर्चा करते हुए पी.सी.रे. अपनी पुस्तक हिंदू केमिस्ट्री में लिखते हैं कि उसे धौंकनी में डालें। वह पहले लाल होगा, फिर सफेद होगा, फिर उसका रंग थोड़ा गेरूआ हो जाएगा। अंत में उसका रंग मोर की गर्दन (शिखिग्रीवा) के रंग का हो जाएगा। इसके लिए लगभग 780 सेटीग्रेड से ऊपर तापमान चाहिए।
चाणक्य के ठीक बाद नागार्जुन का काल माना जाता है। उन्होंने इस पर काफी विस्तृत काम किया है। उन्होंने हरेक रसायन को निकालने की प्रक्रिया बताई और प्रकृति में पाए जाने वाले पिगमेंटों से विभिन्न प्रकार के रंग निर्माण की प्रक्रिया भी बताई। इसका वर्णन हमें आयुर्वेद में भी मिलता है। प्रसिद्ध शल्य चिकित्सक सुश्रुत ने जो औजार प्रयोग किए हैं, वे तांबा और पीतल के तो थे ही, स्टील के भी थे। ये औजार तक्षशिला में पाए गए। इन औजारों में शानदार धार हुआ करती थी। आज हम जो स्किन-ट्रांसफर, कास्मेटिक सर्जरी और आंख का आपरेशन आदि करते हैं, वह सब उस काल में सुश्रुत किया करते थे।
अपने यहां वर्ष 800 से 550 ईसापूर्व में बर्तनों पर कलई करने की प्रक्रिया मिलती है। कलई की प्रक्रिया के इस कालखंड को निर्धारण करने के लिए उसकी कार्बन डेटिंग की जाती है। परंतु इसमें यह ध्यान रखने की बात यह है कि इतने लंबे कालखंड में कलई में प्रदूषण हो जा सकता है। इस प्रदूषण से उस कलई का काल कम निकल जा सकता है। इसलिए इसमें हमारी पारंपरिक गणना पद्धति का उपयोग करना महत्वपूर्ण हो जाता है। उस पद्धति में हमने पूरी सृष्टि की आयु निकाली है जो आज वैज्ञानिक अनुसंधानों से भी सही साबित हो रही है।
गुप्त काल में वराहमिहिर हुए हैं। मेहरौली की लोहे की लाट वराहमिहिर से जुड़ी हुई है। वे एक रसायनशास्त्राी थे। उन्होंने एक धातु से दूसरी धातु के निर्माण प्रक्रिया की चर्चा की है। एक और उदाहरण इससे पहले का मिलता है सिकंदर और पोरस की लड़ाई के समय का। लड़ाई के बाद पोरस ने सिकंदर को 30 किलोग्राम की इस्पात की बनी तलवार थी। वह स्टील की बनी हुई थी। वह पिटवां लोहे से बना हुआ था। लोहा दो प्रकार का होता है। एक ढलवा और दूसरा पिटवां। ढलवा लोहा पिघला कर तैयार किया जाता है और पिटवां लोहा पीट-पीट कर तैयार किया जाता है। ये दोनों प्रकार के लोहे भारत में बनते थे।
वराहमिहिर की लोहे की लाट काफी विशाल है। 23-24 फीट की इस लाट को बनाने के लिए हमें सोचना होगा। परंतु उन्होंने बड़ी सरलता से बनाया। इसको बनाने में उच्च गुणवत्ता के लोहे का प्रयोग किया गया है। इसके लिए अपने यहां ब्लास्ट फर्नेस यानी कि भट्ठी हुआ करती थी। पहले इसे धौंकनी कहते थे। इसमें हवा के धक्के से तापमान पैदा किया जाता था। उसमें वे लकड़ी का कोयला मिलाते थे, फिर लोहे को पिघलाते थे। लोहे की अशुद्धि दूर करने के लिए उसमें कुछ मिलाते थे। आज इसके लिए काफी अत्याधुनिक तकनीक का प्रयोग किया जाता है। परंतु आज के तकनीक से क्या हम मकरध्वज बना सकते हैं? नहीं।
मकरध्वज भारतीय धातुकर्म का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। कहा जाता है कि सुश्रुत और चरक खरल में मूसल से पारे को घोटते रहते थे। इतना घोटते थे कि उसका मारन हो जाता था। इसका तात्पर्य है कि मरकरी, पारा जो धातु हो कर भी तरल है, उसे घोटनी से घोटते-घोटते ठोस बना देते थे फिर उसका जारन किया यानी कि उसमें कुछ पुट मिलाते थे। तीसरा पुट मिलाते-मिलाते सातवें दिन उसे बाहर निकाला जाता है। तब वह ठोस हो जाता है, वही मकरध्वज है जिसका आज की भाषा में रासायनिक सूत्रा एचजीएस है। वही थोड़े परिवर्तन के साथ वर्मिलियन हो जाता है यानी कि भखरा सिंदुर जिसे महिलाएं सिर में लगाती हैं। इससे उनकी आयु बढ़ती थी।
यही भारतीय धातुकर्म की विशेषता थी। भारतीय धातुकर्म मनुष्य की भलाई के लिए था। इससे किसी का बुरा नहीं होना चाहिए। उनका यह भाव हमेशा बना रहा। यही भाव वेदों का भी है। वेदों का एक ही आदेश है चीजों के संरक्षण और लोगों के कल्याण की।
✍🏻साभार – भारतीय धरोहर
वज्रसंघात लेप : अद्भुत धातु मिश्रण
लोहस्तंभ को देखकर किसे आश्चर्य नहीं होता। यह किस धातु का बना कि आज तक उस पर जंग नहीं लगा। ऐसी तकनीक गुप्तकाल के आसपास भारत के पास थी। हां, उस काल तक धातुओं का सम्मिश्रण करके अद्भुत वस्तुएं तैयार की जाती थी। ऐसे मिश्रण का उपयोग वस्तुओं को संयोजित करने के लिए भी किया जाता था। यह मिश्रण ” वज्रसंघात ” कहा जाता था।
शिल्पियों की जो शाखा मय नामक शिल्पिवर के मत स्वीकारती थी, इस प्रकार का वज्र संघात तैयार करती थी। उस काल में मय का जाे ग्रंथ मौजूद था, उसमें इस प्रकार की कतिपय विधियों की जानकारी थी, हालांकि आज मय के नाम से जो ग्रंथ हैं, उनमें शिल्प में मन्दिर और मूर्ति बनाने की विधियां अध्ािक है, मगर 580 ई. के आसपास वराहमिहिर को मय का उक्त ग्रंथ प्राप्त था। वराहमिहिर ने मय के मत को उद्धृत करते हुए वज्रसंघात तैयार करने की विधि को लिखा है-
अष्टौ सीसकभागा: कांसस्य द्वौ तु रीतिकाभाग:।
मय कथितो योगोsयं विज्ञेयाे वज्रसंघात:।। (बृहत्संहिता 57, 8)
मय ने 8 : 2 :1: अनुपात में क्रमश: सीसा, कांसा और पीतल को गलाने का नियम दिया था, इससे जो मिश्रण बनता था, वह वज्रसंघात कहा जाता था। यह कभी नहीं हिलता था और वज्र की तरह चिपकाने के काम आता था। वराहमिहिर के इस संकेत के आधार पर 9वीं सदी में कश्मीर के पंडित उत्पल भट ने खाेजबीन की और मय का वह ग्रंथ खोज निकाला था। उसी में से मय का वह श्लोक वराहमिहिर की टीका के साथ लिखा था-
संगृह्याष्टौ सीसभागान् कांसस्य द्वौ तथाशंकम्।
रीतिकायास्तु संतप्तो वज्राख्य: परिकीर्तित:।। ( मयमतम : श्रीकृष्ण जुगनू, चौखंबा, बनारस, २००८, परिशिष्ट, मय दीपिका)
आज वह ग्रंथ हमारे पास नहीं। मगर, इस श्लोक में कहा गया है कि इस मिश्रण के लिए सभी धातुओं को मिलाकर तपाया जाता था। इसके लिए उचित तापमान के संबंध में जरूर शिल्पियों को जानकारी रही होंगी, वे उन मूषाओं के बारे में भी जानते रहे होंगे, जो काम आती थीं।
मगर, क्या हमारे पास इस संबंध में कोई जानकारी है,,, बस यही तो समस्या है।
रसायन : भारतीयों की अप्रतिम देन
कीमियागरी यानी कौतुकी विद्या। इसी तरह से भारतीय मनीषियों की जो मौलिक देन है, वह रसायन विद्या रही है। हम आज केमेस्ट्री पढ़कर सूत्रों को ही याद करके द्रव्यादि बनाने के विषय को रसायन कहते हैं मगर भारतीयों ने इसका पूरा शास्त्र विकसित किया था। यह आदमी का कायाकल्प करने के काम आता था। उम्रदराज होकर भी कोई व्यक्ति पुन: युवा हो जाता और अपनी उम्र को छुपा लेता था।
पिछले दिनो भूलोकमल्ल चालुक्य राज सोमेश्वर के ‘मानसोल्लास’ के अनुवाद में लगने पर इस विद्या के संबंध में विशेष जानने का अवसर मिला। उनसे धातुवाद के साथ रसायन विद्या पर प्रकाश डाला है। बाद में, इसी विद्या पर आडिशा के राजा गजधर प्रतापरुद्रदेव ने 1520 में ‘कौतुक चिंतामणि’ लिखी वहीं ज्ञात-अज्ञात रचनाकारों ने काकचण्डीश्वर तंत्र, दत्तात्रेय तंत आदि कई पुस्तकों का सृजन किया जिनमें पुटपाक विधि से नाना प्रकार द्रव्य और धातुओं के निर्माण के संबंध में लिखा गया।
मगर रसायन प्रकरण में कहा गया है कि रसायन क्रिया दो प्रकार की होती है-1 कुटी प्रवेश और 2 वात तप सहा रसायन। मानसोल्लास में शाल्मली कल्प गुटी, हस्तिकर्णी कल्प, गोरखमुण्डीकल्प, श्वेत पलाश कल्प, कुमारी कल्प आदि का रोचक वर्णन है, शायद ये उस समय तक उपयोग में रहे भी होगे, जिनके प्रयोग से व्यक्ति चिरायु होता, बुढापा नहीं सताता, सफेद बाल से मुक्त होता… जैसा कि सोमेश्वर ने कहा है –
एवं रसायनं प्रोक्तमव्याधिकरणं नृणाम्।
नृपाणां हितकामेन सोमेश्वर महीभुजा।। (मानसोल्लास, शिल्पशास्त्रे आयुर्वेद रसायन प्रकरणं 51)
ऐसा विवरण मेरे लिए ही आश्चर्यजनक नहीं थी, अपितु अलबीरूनी को भी चकित करने वाला था। कहा, ‘ कीमियागरी की तरह ही एक खास शास्त्र हिंदुओं की अपनी देन है जिसे वे रसायन कहते हैं। यह कला प्राय वनस्पतियों से औषधियां बनाने तक सीमित थी, रसायन सिद्धांत के अनुसार उससे असाध्य रोगी भी निरोग हो जाते थे, बुढापा नहीं आता,,, बीते दिन लौटाये जा सकते थे, मगर क्या कहा जाए कि इस विद्या से नकली धातु बनाने का काम भी हो रहा है। (अलबीरुनी, सचाऊ द्वारा संपादित संस्करण भाग पहला, पेज 188-189)
है न अविश्वसनीय मगर, विदेशी यात्री की मुहर लगा रसायन…।
महाकालमत : एक अज्ञात ग्रंथ
कादम्बरी अपने अल्पकाय स्वरूप में विश्वकाय स्तर लिए हैं। बाणभट्ट को विषय के सूक्ष्म चित्रण में कितना कौशल हस्तगत था, उसकी रचनाएं बताती हैं। उसकी जानकारी में था कि ‘महाकालमत’ नामक कोई ग्रंथ लोकरूचि के विषयों का संग्रह है। उसमें मनुष्य के मन में रहने वाले उन विषयों के संबंध में जानकारियां थीं जो धन, रसायन, औषध आदि को लेकर है। इस तरह के विषयों पर निरंतर अनुसंधान, तलाश और तोड़तोड़ आज भी होती है और हर्षवर्धन के काल में भी होती थी।
आज इस नाम की किताब का पता नहीं है।
उज्जैन या अवन्तिका के रास्ते में पड़ने वाले एक देवी मंदिर में द्राविड़ नामक बुजुर्ग था। चंद्रापीड ने उसका सम्मान पान खिलाकर किया। उसके संग्रह में कई पुस्तकें थी जिनमें दुर्गास्तोत्र के साथ ही पाशुपतों की प्राचीन पुस्तक ‘महाकालमत’ भी थी। उस काल में पाश्ाुपतों की साधनाओं का रोचक वर्णन बाण ने ‘हर्षचरित’ में भी किया है। भैरवाचार्य की वेताल साधना का राेमांचक वर्णन आंखों देखा हाल से कम नहीं है। बाण ने लिखा है कि उस ग्रंथ को उसने प्राचीनों से सुनकर लिखा था। उसमें दफीनों को खोजने, रसायन को सिद्ध करने, अन्तर्धान हो जाने जैसे कई उपायों को लिखा गया था। मालूम नहीं ये सब बातें कहां गई, इन साधनाओं से क्या कुछ हांसिल हाेता भी है कि नहीं, मगर बाणभट्ट ये जरूर संकेत देता है कि वह द्राविड़ इन सभी साधनाओं के बाबजूद रहा तो अभावग्रस्त ही।
हां, इस प्रकार की विद्याओं पर चाणक्य ने भी ध्यान दिया। अर्थशास्त्र के अंत में ऐसे उपायों को खूब लिखा गया। कवि क्षेमेंद्र ने तो इस तरह की बातों को सोदाहरण सिरे से खारिज किया। मगर, मध्यकाल में अनेक राजागणों ने लिखा और लिखवाया। अपराजितपृच्छा से लेकर यामलोक्त स्वरोदय शास्त्रों में भी दफीनों की खोज के संकेत कम नहीं मिलते। पंद्रहवीं सदी में हुए ओडिशा के राजा गजधर प्रतापरुद्र देव ने इस विद्या पर अपनी कलम चलाई और ‘कौतुक चिंतामणि’ को लिखा। लिखते ही इसकी पांडुलिपियां अनेक देशों में भेजी और मंगवाई गई…। मैंने इसमें आए कृषि सुधार विषयक संदर्भों को उद्धृत किया है। यह बहुत रोचक ग्रंथ रहा है और इसका उपयोग सामाजिक सांस्कृतिक विचारों, लोकाचारों के लिए किया जा सकता है, यही मानकर पूना के प्रो. पीके गौड़े ने इस दिशा में विचार किया है…। इस विषय की क्या प्रासंगिकता है,, मित्रों की इस संबंध में राय की प्रतीक्षा रहेगी।
✍🏻डॉ श्रीकृष्ण जुगनू जी की पोस्टों से संग्रहित