व्योमेश चन्द्र जुगरान
उत्तराखंड में उत्तरकाशी जिले के बारसू गांव में एक किसान ने तालाब बनाकर 50 किलो ट्राउट मछली का उत्पादन किया है। यह मछली वह गांव में ही बेच रहा है और खरीदार बड़े आराम से उसे 1200 से 1500 रुपए प्रति किलो दे रहे हैं। अगर थोड़ा सा सरकारी सपोर्ट मिल जाए तो पानी से भरे इस प्रदेश में मछली उत्पादन किसानों की तकदीर पलट सकता है।
उत्तराखंड सरकार के पशुपालन, डेयरी और मत्स्य पालन विभाग की सितंबर 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में 2700 किलोमीटर लंबी करीब 32 नदियां, 297 वर्ग किलोमीटर में फैली लगभग 31 झीलें, 23133 वर्ग किलोमीटर में विस्तृत जलाशय और करीब 785 हेक्टेयर में 4290 निजी व सामुदायिक तालाब हैं। बिलाशक संसाधनों की यह विपुलता मत्स्य उद्योग के लिए शानदार आधारभूत ढांचे का निर्माण करती है, लेकिन इस राज्य को ऐसी किसी ढांचागत पहल का आज भी इंतजार है। सरकार का दावा है कि उसने राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में आमदनी के विभिन्न विकल्पों में पशुपालन और डेयरी के साथ ही मत्स्य पालन को भी प्राथमिकता में रखा है। यह भी कहा जा रहा है कि चमोली जिले के बैरांगना और काशीपुर स्थित मत्स्य प्रजनन केंद्र की क्षमता बढ़ाने की तैयारी चल रही है। यहां ट्राउट के लिए अलग से चारा तैयार करने के अलावा हिमाचल से मत्स्य बीजों का इंतजाम किया जा रहा है।
उत्तराखंड में स्नो ट्राउट मछली के लिए बहुत अनुकूल जलवायु है। औषधीय गुणों के कारण देश-विदेश में इसकी भारी मांग है। बताते हैं कि करीब 120 साल पहले इस मछली को अंग्रेज भारत लाए थे और उन्होंने ही उत्तराखंड में उत्तरकाशी के डोडीताल में इसके अंडे डाले थे। उत्तराखंड की नदियों, झीलों, जलाशयों में ट्राउट और महाशीर के अलावा एक दर्जन से अधिक प्रजातियों की बहुमूल्य मछलियां पाई जाती हैं। सरकार इस सिलसिले में व्यापक सर्वेक्षण कर योजनाएं तैयार करें तो मछली पालन उत्तराखंड का एक प्रमुख व्यवसाय बन सकता है। विशेषज्ञ इस बात पर जोर देते रहे हैं कि राज्य में ‘कोल्ड वाटर फिशरी’ के विकास के लिए किसी उपयुक्त जगह पर अनुसंधान और विकास संस्थान की स्थापना की जानी चाहिए। यह देश के पश्चिमोत्तर क्षेत्र की भी बड़ी आवश्यकता है। राज्य में पर्यटन के मद्देनजर शौकिया तौर पर मत्स्य आखेट के लिए मनोरंजन पार्कों का विकास किया जा सकता है। हिमाचल ने तो कुल्लू क्षेत्र में मछली पालन केंद्र को पर्यटन आकर्षण का महत्वपूर्ण सेंटर बना दिया है।
यह बात सच है कि उत्तराखंड में तीर्थ की प्राचीन परंपरा और धार्मिक आचारों के कारण यहां का एक बड़ा वर्ग मत्स्य आखेट को निषिद्ध मानता आया है। ऐसे में सजावटी मछली उद्योग एक महत्वपूर्ण विकल्प हो सकता है। कम स्थान व कम पूंजी जैसी आसानियों के बावजूद यह उद्यम हमारे देश में उपेक्षित रहा है, जबकि विश्व भर में सजावटी मछलियों की भारी मांग है। दुनिया में सजावटी मछलियों की लगभग 600 प्रजातियों की जानकारी मिलती है। इनका विश्व व्यापार लगभग 3.4 अरब अमेरिकी डॉलर आंका गया है, जिसमें भारत की हिस्सेदारी मात्र 0.25 अरब डॉलर है। भारत में सजावटी मछलियों के प्रमुख स्रोत के रूप में पश्चिमी घाट का नाम लिया जाता है, और इसे दुनिया में सजावटी मछलियों के 25 प्रमुख स्थानों में से एक माना जाता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि अद्वितीय जैव-विविधता वाले भारत के पर्वतीय राज्य सजावटी मछलियों के भंडार गृह हैं। उत्तराखंड इन्हीं में से एक है। यहां मछली उत्पादन संभव बनाने लायक नमीयुक्त विशिष्ट क्षेत्रों और अन्य कुदरती संसाधनों की कमी नहीं है। सरकारें दिलचस्पी लें तो महिलाएं नदी, गाड-गधेरों के माध्यम से गांव में ही एक्वेरियम की छोटी-छोटी इकाइयां चलाकर विकास के ढांचे को मजबूती दे सकती हैं। हालांकि इसके लिए राज्य में बड़े पैमाने पर हैचरियों और संबंधित अनुसंधान गतिविधियों का समानांतर विकास भी जरूरी है। इससे जहां उत्पादकों को बीज मिलने में आसानी होगी, वहीं प्रजनन और बेहतर कृषि दशाओं के लिए प्रशिक्षित मानव बल भी तैयार किया जा सकेगा। उत्तराखंड सरकार मत्स्य उद्योग को अपनाने के लिए पीपीपी मोड की बातें कर रही है, मगर पहाड़ में पर्यावरण और पारिस्थितिकी के मद्देनजर जल स्रोतों के बहुआयामी उपयोग के प्रयासों को बेहद सजग और संतुलित ढंग से आगे बढ़ाना होगा।
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