डॉ विवेक आर्य
पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरता के उदय और उसके प्रसार के लिए पूर्व सैन्य तानाशाह जनरल ज़िया-उल-हक़ की सरकार और उसके बाद मुस्लिम कट्टरपंथियों की ताक़त को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है.
लेकिन पाकिस्तानी इतिहास के एक अहम किरदार, जोगिंदरनाथ मंडल ने 70 साल पहले ही तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को लिखे अपने त्यागपत्र में धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा देने की बात कह दी थी.
उन्होंने इसके लिए पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान की मज़हब को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने और फिर उसके सामने घुटने टेकने की नीति को ज़िम्मेदार ठहराया था.
पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना ने जोगिंदरनाथ मंडल को पाकिस्तान की संविधान सभा के पहले सत्र की अध्यक्षता की ज़िम्मेदारी दी थी. वह पाकिस्तान के पहले क़ानून मंत्री भी बने.
जोगिंदरनाथ मंडल बंगाल के दलित समुदाय से थे. भारत के बँटवारे से पहले बंगाल की राजनीति में केवल ब्रिटिश उपनिवेशवाद से आज़ादी एक महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं था, बल्कि कुछ लोगों की नज़र में उससे भी ज़्यादा अहम मुद्दा बंगाल में ज़मींदारी व्यवस्था की चक्की में पिसने वाले किसानों का था. इनमें ज़्यादातर मुसलमान थे. उनके बाद दलित थे,
ज़मींदारों में से अधिकांश हिंदू ब्राह्मण और कायस्थ थे जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘भद्रलोक’ कहा जाता था.
अविभाजित बंगाल की कुल जनसंख्या पाँच करोड़ दस लाख थी. इनमें 80 लाख दलितों समेत हिंदुओं की कुल आबादी दो करोड़ बीस लाख थी. जबकि मुसलमानों की आबादी लगभग दो करोड़ अस्सी लाख थी. उच्च जाति के हिंदुओं यानी ‘भद्रलोक’ की कुल आबादी तीस लाख थी.
इस तरह बंगाल में मुसलमानों की आबादी 54 फ़ीसद थी, उसके बाद दलित और फिर हिंदू ब्राह्मण थे. ईसाई और अन्य धर्मों के मानने वाले बहुत कम तादाद में थे.
दलितों में सबसे बड़ा जातीय समूह ‘महेशियों’ का था. इनकी आबादी 35 लाख थी. इसके बाद ‘नामशूद्र’ आते थे. जोगिंदरनाथ मंडल इसी समूह से संबंधित थे. उन्होंने बँटवारे से पहले की राजनीति में दलितों को मुस्लिम लीग से जोड़ा था. बंगाल के नामशूद्र 1930 के दशक से ही मुस्लिम लीग के मज़बूत सहयोगी बन गए थे.
पाकिस्तान की संविधान सभा की पहली बैठक 11 अगस्त 1947 को हुई थी. औपचारिक स्वतंत्रता से तीन दिन पहले. जब भारत और पाकिस्तान ने 14 और 15 अगस्त की दरम्यानी रात को स्वतंत्रता प्राप्त की, तब तक मुस्लिम लीग दलितों के साथ संबंधों को एक सांचे में ढाल चुकी थी.
इसके बाद जब भारत में संविधान लिखने की प्रक्रिया शुरू हुई तो नेहरू ने अपने मंत्रिमंडल ने एक ग़ैर-कांग्रेसी दलित नेता डॉ. भीमराव आम्बेडकर को जगह दी और देश का पहला क़ानून मंत्री बनाया. उन्हें देश के संविधान का मसौदा तैयार करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई.
पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना का पहला भाषण सिर्फ़ उनकी एक परिकल्पना नहीं थी बल्कि यह एक राजनीतिक रणनीति भी थी. उसी रणनीति के तहत उन्होंने अपने भाषण से पहले बंगाल के एक हिंदू दलित नेता जोगिंदरनाथ मंडल से संविधान सभा के पहले सत्र की अध्यक्षता करवाई थी. (यह अलग बात है कि अब पाकिस्तान की नेशनल एसेंबली की वेबसाइट पर पहले अध्यक्ष के तौर पर मंडल का नाम मौजूद नहीं है.)
जब उन्होंने जिन्ना के आश्वासन के बाद पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया, तो उन्हें उनके सहयोगी और भारत के उस समय के सबसे बड़े दलित नेता डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर ने चेताया था.
तक़दीर का खेल ऐसा हुआ कि डॉ. आंबेडकर भारत के पहले क़ानून मंत्री बने और जोगिंदरनाथ मंडल पाकिस्तान के पहले क़ानून मंत्री बने. कुछ साल बाद दोनों को ही अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा.
मंडल ने 8 अक्टूबर, 1950 को इस्तीफ़ा दे दिया, जबकि आंबेडकर ने 27 सितंबर, 1951 को त्यागपत्र दे दिया. दोनों के बीच फ़र्क़ यह था कि मंडल ने हताशा में त्यागपत्र दे दिया था. वो पाकिस्तान का संविधान बनते हुए नहीं देख सके, जबकि आंबेडकर ने जनवरी 1950 में भारत के संविधान को पूरा करके अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाई.
इतिहासकारों का मानना है कि 11 अगस्त 1947 को पाकिस्तान के संस्थापक और देश के पहले गवर्नर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना ने संविधान सभा की पहली बैठक में अध्यक्ष के तौर पर अपने भाषण में पाकिस्तान के भविष्य का ख़ाका पेश करते हुए रियासत को मज़हब से अलग रखने का ऐलान किया था.
उसी भाषण में जिन्ना ने यह भी कहा था कि “समय के साथ हिंदू अब हिंदू नहीं रहेंगे और मुसलमान मुसलमान नहीं रहेंगे. धार्मिक रूप से नहीं, क्योंकि धर्म एक निजी मामला है, बल्कि राजनीतिक रूप से एक देश के नागरिक होने के नाते.”
जिन्ना ने यह भी कहा था, “हम एक ऐसे दौर की तरफ़ जा रहे हैं जब किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा. एक समुदाय को दूसरे पर कोई वरीयता नहीं दी जाएगी. किसी भी जाति या नस्ल के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा. हम इस मूल सिद्धांत के साथ अपनी यात्रा शुरू कर रहे हैं कि हम सभी नागरिक हैं और हम सभी इस राज्य के समान नागरिक हैं.”
मोहम्मद अली जिन्ना के इस भाषण से एक दिन पहले संविधान सभा के कार्यकारी अध्यक्ष और पहले स्पीकर जोगिंदरनाथ मंडल ने अपने पाकिस्तान चुनने की वजह बताई थी. उन्होंने कहा था कि उन्होंने पाकिस्तान को इसलिए चुना क्योंकि उनका मानना था कि “मुस्लिम समुदाय ने भारत में अल्पसंख्यक के रूप में अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया है, लिहाज़ा वो अपने देश में अल्पसंख्यकों के साथ न केवल न्याय करेगा बल्कि उनके प्रति उदारता भी दिखाएगा.”
अमरीका के जॉन्स हॉपकिंस विश्वविद्यालय की ग़ज़ल आसिफ़ ने अपने हालिया शोध पत्र ‘जोगिंदरनाथ मंडल एंड पॉलिटिक्स ऑफ़ दलित रिकग्निशन इन पाकिस्तान’ (‘जोगिंदरनाथ मंडल और पाकिस्तान में दलितों की मान्यता की राजनीति’) में कहा है कि “मंडल ने पाकिस्तान के निर्माण में दलित स्वतंत्रता के सपने को साकार होते हुए देखा था, लेकिन नए राज्य में हिंदू अल्पसंख्यक के आंतरिक अंतर को समझे बिना (यानी, एक राज्य की विचारधारा के सामने जो अनुसूचित जाति और उच्च जाति के हिंदुओं के बीच अंतर के बिना अल्पसंख्यकों को एक इकाई मानता है), मंडल का विज़न टिक नहीं सका.”
प्रोफ़ेसर अनिर्बान बंदोपाध्याय के मुताबिक़ यह जानना आसान काम नहीं है कि पाकिस्तान में जोगिंदरनाथ मंडल के साथ ज़्यादती की गई थी या नहीं.
प्रोफ़ेसर बंदोपाध्याय भारत में गांधीनगर के कनावती कॉलेज के इतिहास विभाग के साथ जुड़े हैं. उन्होंने आम्बेडकर और मंडल पर एक महत्वपूर्ण शोध पत्र लिखा है. वो कहते हैं, “इसका सही जवाब तभी दिया जा सकता है जब कोई इतिहासकार पाकिस्तान के आर्काइव्स में रखे दस्तावेज़ खंगाले.”
मंडल 1950 तक प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान के मंत्रिमंडल में बने रहे. इस दौरान उन्होंने बार-बार प्रधानमंत्री से पूर्वी पाकिस्तान में दलितों पर अत्याचार की शिकायत की.
फिर उन्होंने अक्टूबर, 1950 में त्यागपत्र दे दिया, जिसमें उन्होंने अल्पसंख्यकों के भविष्य के बारे में अपनी निराशा का इज़हार करते हुए उन कारणों का ज़िक्र किया जिनसे उनकी यह राय क़ायम हुई थी. उन्होंने अपने इस्तीफ़े में लिखा था कि सेना, पुलिस और मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओं के हाथों बंगाल में सैकड़ों दलितों की हत्या की घटनाएं हुईं हैं.
मंडल की बार-बार की शिकायतों के बाद प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान ने मंडल से दलितों पर अत्याचार की घटनाओं का विस्तृत ब्यौरा माँगा. लेकिन अब समय निकल चुका था. मंडल ने अपने इस्तीफ़े में दलितों (अनुसूचित जातियों) पर पुलिस और स्थानीय मुसलमानों की तरफ़ से किए गए अत्याचारों की घटनाओं का सिलसिलेवार ढंग से ब्यौरा दिया गया था.
मंडल ने खुलना और बारिसाल (अपने निर्वाचन क्षेत्र) में हुई हिंसा का वही विवरण लिखा, जो स्थानीय दलितों ने उन्हें लिख कर भेजा था. उन्होंने एक गांव में फ़सलों की कटाई की घटना का भी उल्लेख किया जिसमें एक मुस्लिम की मौत हो गई थी. इसका बदला लेने के लिए स्थानीय पुलिस और एक मुस्लिम संगठन ‘अंसार’ की मदद से नामशूद्र दलितों के गांव के गांव लूट लिए गए.
दलितों के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों की फ़ेहरिस्त ठीक वैसी ही थी जैसी कि बँटवारे के वक़्त हुई हिंसा के दौरान देखी गई थी. अब इसमें दलितों के ख़िलाफ़ अत्याचार की घटनाएं भी शामिल हो गई थीं. मसलन ‘जबरन धर्म परिवर्तन, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, लूटपाट, जबरन वसूली, गोकशी, और उनके पूजास्थलों में रखी मूर्तियों का अपमान करना.’
अपने इस्तीफ़े में भारत के बँटवारे पर जोगिंदरनाथ मंडल ने कहा, “हालांकि मैं समझता था कि मुसलमानों के प्रति उच्च जाति के हिंदुओं के रवैये के कारण भारत का बँटवारा मुसलमानों की शिकायतों का एक जायज़ जवाब था. लेकिन मुझे यक़ीन था कि पाकिस्तान के निर्माण से सांप्रदायिकता की समस्या का समाधान नहीं होगा. इसके विपरीत यह केवल संप्रदायवाद और नफ़रत को बढ़ाएगा.”
“इसके अलावा, मेरा दृढ़ विश्वास है कि (पाकिस्तान का निर्माण) मुसलमानों की स्थिति में सुधार नहीं करेगा. बँटवारे का परिणाम यह होगा कि स्थायी रूप से न सही, लेकिन लंबे समय तक, दोनों देशों के मेहनतकशों के लिए ग़रीबी, जहालत और दुखों का लंबा दौर रहेगा. मुझे डर है कि पाकिस्तान शायद दक्षिण पूर्व एशिया का सबसे पिछड़ा देश बन जाएगा.”
जब मंडल ने इस्तीफ़ा दिया और 1950 में पाकिस्तान छोड़ कर भारत के बंगाल राज्य में शिफ़्ट हो गए, तो उन्हें अपनी ही जाति के लोगों ने भी शक की निगाहों से देखा. क्योंकि वह पाकिस्तान से आए थे. हालाँकि पाकिस्तान जाने से पहले, वो भारत में दलितों के सबसे बड़े नेता डॉ. आम्बेडकर के सहयोगी रहे थे, लेकिन अब मंडल का समर्थन करने वाला कोई नहीं था.
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