मेरे देश की धरती सोना उगले..
उगले हीरे मोती…मेरे देश की धरती…………..
मैं समझता हूं भारत मां के लिए जिस कवि के हृदय में भी ये भाव मचले होंगे और उन्होंने जब कुछ शब्दों का रूप लिया होगा तो वह कवि भी आंदोलित हो उठा होगा। कवि के इन शब्दों को हम यहां और विस्तार देना चाहेंगे, कवि की भावनाओं को और भी अधिक सम्मान देना चाहेंगे। इन भावों को तनिक वीरप्रस्विनी रत्नगर्भा भारत माता के उस स्वरूप से भी मिलाने का प्रयास करें, जिसके अंतर्गत उसने यहां वीरों को जन्म दिया है, देश धर्म पर मिटने वाले शौर्य संपन्न अनोखे बलिदानियों को जन्म दिया है। जब हम ऐसा करेंगे तो पायेंगे कि इससे मां भारती के पास ऐसे हीरे मोतियों की भी भरमार है, जिन्होंने समय आने पर मां के प्रति अपने ऋण को चुकाने के लिए अपने प्राणोत्सर्ग करने में भी देरी नही की। जब ऐसे देशभक्तों की बात चलती है तो बुंदेलखण्ड की ‘वीरभूमि’ की ओर हमारा ध्यान ही ना जाए, ऐसा हो ही नही सकता। इस वीरभूमि के स्मरण मात्र से हमारा हृदय वीरता के भावों से भर जाता है। क्योंकि यह भूमि अपने रजकणों में ऐसे कई प्रातरस्मरणीय वीर महापुरूषों की कथाओं को समेटी पड़ी है, जिनका जीवन इस देश की आने वाली पीढिय़ों को भी प्रेरणा देता रहेगा।
आल्हा-ऊदल
इन प्रातरस्मरणीय वीर महापुरूषों में बुंदेलखण्ड की पावन भूमि के दो लालों आल्हा और ऊदल का नाम अग्रगण्य है। जिनकी लोककथाएं और लोकगीत (आल्हा) आज तक भी लोगों के भीतर रोमांच उत्पन्न कर देते हैं। इन दोनों वीर बंधुओं को संसार से गये सदियां चली गयीं, पर इनकी वीरता की आभा में कोई कमी नही आयी, इनका नाम आज भी लोगों को प्रभावित करता है। आइए, खोजें उन कारणों को, जिनके रहते हमारे लिए ये दोनों वीरबन्धु आज तक सम्मान का पात्र बने हुए हैं।
संक्षिप्त जीवन परिचय
आल्हा-ऊदल बुंदेलखण्ड के पृथ्वीराज चौहान के समकालीन शासक राजा परमाल के सेनापति थे। इन दोनों भाईयों के पिता ने भी एक योग्य सेनापति का दायित्व निर्वाह करते हुए देश के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया था। पिता का संरक्षण हटा तो मां ने वीर क्षत्राणी की मर्यादा का निर्वाह करते हुए अपने दोनों सपूतों को सहर्ष देश सेवा के लिए समर्पित कर दिया। यद्यपि मां जानती थी कि देश सेवा का परिणाम उस युग में केवल मृत्यु को निमंत्रण देना होता था।… परंतु मां ने वही किया जो उस जैसी मां को करना चाहिए था। अपने पति को विनम्र श्रद्घांजलि देते हुए उसने पुष्पांजलि तैयार की और वीरपति की शहादत पर दो बेटों को ‘श्रद्घा के दो पुष्प’ मानकर सादर समर्पित कर दिया।
राजा परमाल ने देवी के दोनों पुष्पों को अपने यहां सेना में सेनापति का दायित्व सौंपा। ये बहुत बड़ा सम्मान तो था ही दोनों बंधुओं के लिए बहुत बड़ी चुनौती भी थी।
समय बीतता गया। राजा परमाल की राजधानी महोबा का किला नित्य प्रति चढ़ते सूरज को देखता, उसे अघ्र्य देता और सूर्य अस्ताचल के अंक में समाहित हो तिमिर तिरोहित हो जाता। सब कुछ शांतिपूर्वक चल रहा था। तभी एक घटना घटित हुई। पृथ्वीराज चौहान के कुछ सिपाही कन्नौज के साथ चल रहे किसी युद्घ से भागकर घायलावस्था में महोबा की ओर आ निकले। यहां आकर वे राजा के किसी बाग में आ ठहरे। जहां उन्होंने मालियों के मना करने पर भी अपना डेरा डाल ही दिया। मालियों को उन सैनिकों का आचरण अच्छा नही लगा। तब उन्होंने राजा परमाल से उनकी शिकायत की। राजा ने उन सैनिकों का अंत ऊदल से करा दिया। मानो राजा ने पृथ्वीराज चौहान को ही चुनौती दे डाली थी- उसके घायल सैनिकों को मृत्यु का ग्रास बनाकर।
जब पृथ्वीराज चौहान को इस घटना की जानकारी हुई तो वह सचमुच आग बबूला हो उठा, और उसने महोबा पर चढ़ाई कर दी।
उधर महोबा के राजा ने किसी छोटी सी बात पर अपने वीर सेनापतियों आल्हा-ऊदल से खिन्न होकर उन्हें अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। यद्यपि राजा परमाल की विदुषी रानी मल्हना ने राजा के इस निर्णय से अप्रसन्नता व्यक्त की। परंतु राजहठ के सामने उसकी एक न चली। यह अलग बात है कि पृथ्वीराज चौहान ने जब महोबा पर चढ़ाई की तो राजा परमाल को अपनी भूल की अनुभूति हो गयी।
आल्हा-ऊदल देश से निर्वासित होकर पड़ोसी शासक कन्नौज के राजा जयचंद की शरण में चले गये और अपनी माता सहित पूरे परिवार के साथ वह सानंद रहने लगे। राजा जयचंद ने भी उन्हें अपना जागीरदार बनाकर सम्मान से रखना ही उचित समझा। रानी मल्हना को अपने पति का द्वंद्व-भाव और महोबा का विनाश स्पष्ट दीख रहा था। वह जानती थी कि पृथ्वीराज चौहान की विशाल सेना का सामना करने की सामथ्र्य उसके पति और उसकी सेना में नही है। इसलिए पृथ्वीराज चौहान के साथ जारी युद्घ को रानी ने राजा परमाल के भाट जगनिक के माध्यम से किसी प्रकार दो माह के लिए रूकवाने में सफलता प्राप्त कर ली, और राजा परमाल को इस काल में तुरंत आल्हा-ऊदल को कन्नौज से बुलाने का सत्परामर्श दिया। रानी ने कूटनीति का परिचय देते हुए अपने पति से यह भी आग्रह किया कि आपत्ति के इस काल में राजा जयचंद से भी सहायता की अपील की जाए। रानी जानती थी कि जयचंद और पृथ्वीराज चौहान की शत्रुता के चलते यह तीर खाली नही जाएगा और उसे कन्नौज से अवश्य ही सहायता मिलेगी।
जब आल्हा-ऊदल के पास राजा परमाल का दूत जगनिक भाट उन्हें वापस लौटने का संदेश लेकर गया तो एक बार तो उन्होंने इन्कार कर दिया। परंतु वीर माता ने दोनों भाईयों का मार्गदर्शन किया और आपत्ति काल में जन्मभूमि का ऋण उतारने को क्षत्रिय का सर्वोच्च धर्म बताया। मां की आज्ञा को शिरोधार्य कर दोनों भाईयों ने महोबा के लिए अपना बलिदान तक देने के लिए दूत को आश्वस्त किया। रानी मल्हना का पहला तीर तो ठीक चला ही दूसरा तीर भी ठीक निशाने पर लगा और जयचंद ने भी अपने भतीजे के नेतृत्व में बीस हजार की सेना महोबा की सहायतार्थ भेज दी।
महोबा में आल्हा-ऊदल और कन्नौज नरेश जयचंद की विशाल सेना के पहुंचते ही प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी। राजा परमाल ने भी अपने किये के लिए पाश्चाताप कर क्षमा याचना की। अगले ही दिन से पृथ्वीराज चौहान से युद्घ आरंभ हो गया। भयंकर मारकाट मची। राजा परमाल युद्घ से भाग गया, पर उसका वीर पुत्र ब्रहमजीत आल्हा-ऊदल के साथ मिलकर युद्घ करता रहा। दोनों ओर के हजारों सैनिकों के शब्दों से युद्घ क्षेत्र पट गया। चारों ओर भयंकर मारकाट हो रही थी। आल्हा ऊदल की जोड़ी के सामने कोई टिकने का साहस नही कर पा रहा था। परंतु विजयश्री ने अंत में पृथ्वीराज चौहान का साथ दिया। जयचंद की सारी सेना काम आ गयी और ऊदल भी वीरगति को प्राप्त हो गया। राजा परमाल का वीर योद्घा पुत्र ब्रह्मजीत भी युद्घ भूमि में काम आ गया। युद्घ का पटाक्षेप पृथ्वीराज चौहान की विजय के रूप में हुआ।
आल्हा का वो वंदनीय स्वरूप
जिस बात ने इस लेख को लिखने के लिए मुझे प्रेरित किया वह है आल्हा का अप्रत्याशित रूप से युद्घ भूमि से सदा-सदा के लिए विलुप्त हो जाना। अपने भाई ऊदल और राजकुमार ब्रह्मजीत के स्वर्गारोहण के पश्चात आल्हा अचानक युद्घभूमि से दुखी मन से ‘वैरागी’ होकर कहीं चला गया। अधिकांश इतिहासकारों ने यही माना है कि वह इस युद्घ के पश्चात पुन: कभी नही देखा गया। विद्वानों ने आल्हा के इस वैराग्य को ही हमारे लिए प्रेरणास्पद बना दिया है। क्योंकि उसके विषय में मान्यता है कि उसने जयचंद और पृथ्वीराज चौहान सहित कई देशी राजाओं से आग्रह किया था कि जब विदेशी शत्रु युद्घ के लिए सीमाओं पर हमें बार-बार चुनौती दे रहा हो, तब परस्पर के सभी मतभेदों को त्यागकर विदेशी शत्रु के विरूद्घ एक हो जाने के अपने राष्ट्र धर्म को पहचानो। यदि अब चूक गये तो फिर कभी नही संभल पाओगे। परंतु दुर्भाग्यवश उस वीर देशभक्त के इस सत्परामर्श को किसी ने भी नही माना। अब जब उसने महोबा के युद्घ में चारों ओर बिखरे शवों को देखा होगा तो उसके मानस को यह प्रश्न कौंध गया होगा कि इतने वीरों का नाश अंतत: किसलिए किया गया? वह तत्कालीन राजाओं की मूर्खतापूर्ण वीरता पर आंसू बहा रहा था, सचमुच ऐसी वीरता पर जो अपने ही बंधु-बांधवों का नाश करा रही थी। वह ऐसी वीरता को धिक्कार रहा था जो समय पर अपनों के साथ बने मतभेदों को मिटा न सके और शत्रु को अपना काम करने में सहायता पहुंचाए।
आज आल्हा साक्षात उस युधिष्ठिर का स्वरूप बन गया था जो महाभारत के युद्घोपरांत वैराग्य से भर उठा था और पश्चाताप की पीड़ा एवं वैराग्य से भरा उसका हृदय अर्जुन से ये कहने लगा था-
”हे अर्जुन ! क्षत्रियों के आधार, बल पराक्रम और अमर्ष=क्रोध को धिक्कार है, जिनके कारण हम ऐसी विपत्ति (कि सब बंधु बान्धवों को निहित स्वार्थ में ही मरवा बैठे) में फंस गये हैं।”
”क्षमा, दम-मनोनिग्रह, बाहर भीतर की पवित्रता, वैराग्य, ईष्र्या का अभाव, अहिंसा और सत्यभाषण ये वनवासियों के नित्यधर्म ही श्रेष्ठ हैं।”
”हम लोग लोभ और मोह के कारण राज्य प्राप्ति के दुख का अनुभव करने की इच्छा से दम्भ और अभिमान का आश्रय लेकर इस दुर्दशा को प्रात हुए हैं।”
जैसे मांस लोभी कुत्तों को अशुभ की प्राप्ति होती है वैसे ही राज्य में आसक्त हुए हम लोगों को भी अनिष्ट प्राप्त हुआ है, अत: हमारे लिए मांस तुल्य राज्य की प्राप्ति अभीष्ट नही है, अपितु उसका परित्याग ही अभीष्ट है।”
”हमारे जिन बन्धुबांधवों का संहार हुआ है, उनका त्याग तो हमें संपूर्ण पृथ्वी, स्वर्ण राशि और समस्त गाय, घोड़े पाकर भी नही करना चाहिए था।”
”दुर्योधन के कारण हमारे इस कुल का नाश हो गया और हम लोग अवध्य नरेशों का वध करके संसार में निंदा के पात्र हो गये।”
”हमने शूरवीरों को मौत के घाट उतारा, पाप किया और अपने ही राष्ट्र का विनाश कर डाला। शत्रुओं को मारकर हमारा क्रोध तो दूर हो गया, परंतु बंधु बांधवों के मारे जाने का शोक मुझे निरंतर घेरे रहता है।”
”हे अर्जुन! पाप करने वाला अपने पाप का बखान करने से, पश्चाताप करने से, दान देने, तप करने, वेद और स्मृतियों का स्वाध्याय करने तथ जप करने से पाप से छूट जाता है। (इसलिए मुझे भी अब ऐसा ही करना चाहिए।)”
”हे शत्रुसन्तापक अर्जुन! मैं तुम सब लोगों से विदा लेकर वन में चला जाऊंगा। शत्रुसंहारक! श्रुति कहती है कि-”संग्रह परिग्रह में फंसा हुआ मनुष्य पूर्णतया धर्म प्रभुदर्शन प्राप्त नही कर सकता। इस तथ्य का मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है।”
”हे कुरूकुलनंदन! तुम इस निष्कण्टक और कुशल क्षेम से युक्त पृथिवी का शासन करो। मुझे राज्य और भोगों से कोई प्रयोजन नही है।”
शांतिपर्व के प्रथम अध्याय में महाराज युधिष्ठिर ने ऊपरिलिखित जिस पीड़ा को अर्जुन के समक्ष प्रकट किया उसका अभिप्राय यही है कि भारत में युद्घ का उद्देश्य भी यज्ञीय ही रहा है। यदि युद्घ यज्ञीय भावना से नही किया गया है, अर्थात युद्घ का प्रयोजन राजा की निजी महत्वाकांक्षा की पूर्ति करना और उस महत्वाकांक्षा के कारण व्यर्थ में ही निरपराध लोगों का संहार करना है तो वह युद्घ क्षत्रियों के बल पराक्रम पर एक कलंक होता है। इसलिए ऐसे युद्घों से बचना ही राजधर्म है, जिसमें निरपराध लोगों का संहार हुआ हो।
यज्ञ के लिए महर्षि दयानंद कहते हैं-”जो अग्निहोत्र से लेके अश्वमेघ पर्यन्त वा जो शिल्प व्यवहार और जो पदार्थ विज्ञान है, जो कि जगत उपकार के लिए किया जाता है, उसको यज्ञ कहते हैं।”
यज्ञ की इस परिभाषा से स्पष्ट है कि युद्घ भी तब यज्ञ बन जाता है जब वह जनसाधारण को पाप-ताप संताप से निवारणार्थ आततायियों को समाप्त करने वाला हो।
आल्हा समझ रहा था कि वर्तमान में हम जिस झूठी प्रतिष्ठा को राष्ट्र की प्रतिष्ठा समझकर लड़ रहे हैं, वह तो अनर्थकारी है, और उसी मूर्खता को दिखा रही है जो एक व्यक्ति उसी शाख को काटकर दिखाया करता है, जिस पर वह स्वयं बैठा हो। इसलिए आल्हा वैराग्य से भर गया, मानो वह लगभग चार हजार वर्ष पश्चात पुन: युधिष्ठिर के रूप में आकर हमारे क्षत्रिय धर्म की पतितावस्था पर आंसू बहा रहा था।
वह जानता था कि ‘राष्ट्रं वै अश्वमेध:’ अर्थात राष्ट्र पर सर्वस्व अर्पित कर देना ही अश्वमेध है। पर जब राष्ट्र के लिए अपनों को ही बलि चढ़ा चढ़ाकर नष्ट किया जाने लगे तो उससे राष्ट्र की शक्ति क्षीण होती है। इसलिए वह देश की दुर्दशा पर दुखी होकर चला गया।
किसी इतिहासकार ने या लेखक ने आज तक उसके शेष जीवन के विषय में खोज नही की कि आगे उसने क्या किया? संभवत: नेताजी सुभाष चंद्र बोस के किसी पूर्वगामी या अनुगामी का यही हश्र कर देना हमारा स्वभाव बन गया है। इतिहास के इस हीरे को तराशकर उचित स्थान दिया जाना अपेक्षित था, जो कि दुर्भाग्य से नही दिया गया?
स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज ने अपनी पुस्तक ‘दृष्टांत महासागर’ में लिखा है-”एक ज्योतिषी जंगल में से गुजर रहा था। रास्ते पर मिट्टी पर जमे पदचिन्ह देखकर वह दंग रह गया। गहरी सोच में डूब गया, एक चक्रवर्ती सम्राट! इस रास्ते से! और नंगे पैर गया! सम्राट जाए तो सवारी पर जाए और आगे पीछे सेना हो, लेकिन ये पदचिन्ह तो अकेले व्यक्ति के हैं, क्या ज्योतिष विद्या धोखा है? उसने पदचिन्हों का अनुसरण किया। जहां पद समाप्त हुए वहीं एक भिक्षुक ध्यान में बैठे मिले। भिक्षुक जब ध्यान से उठा, तब ज्योतिषी ने कहा-”पदचिन्ह तो किसी सम्राट के हैं, और आप एक भिक्षुक! वास्तव में भिक्षुक और कोई नही, महावीर स्वयं थे। उन्हेांने सवाल किया,-”सम्राट की क्या पहचान है?”
ज्योतिषी बोला सम्राट अकेला नही होता। आप तो अकेले हैं। महावीर बोले-”नही, निर्विकल्प ध्यान रूपी पिता मेरे साथ हंै, अहिंसा रूपी माता मेरे साथ हैं, शांति रूपी प्रिया मेरे साथ है, सत्यरूपी मित्र मेरे साथ हंै। विवेक रूपी पुत्र मेरे साथ है, और क्षमारूपी पुत्री मेरे साथ है। फिर मैं अकेला कैसे?”
”ज्योतिषी जान गया कि सामुद्रिक लक्षण केवल बाह्य चीजों पर ही आधारित होते हैं। मनुष्य अगर छिपी हुई संभावनाओं का सदुपयोग करे तो सच्चा सम्राट बन जाता है।”
आल्हा के समक्ष अपने गौरवपूर्ण अतीत के इन गरिमामयी सम्राटों की एक श्रंखला ही मानो आज आ उपस्थित हुई थी। जिन्होंने चक्रवर्ती सम्राट बनकर मोक्ष की साधना की थी। कहीं कोई पाप कोई उपद्रव, किसी मिथ्या अभिमान से जन्मी मिथ्या महत्वाकांक्षा जिन्हें छू भी नही गयी थी, उन महात्मा राजाओं को महाराज और महात्मा संतों को महाराज कहने का सारा रहस्य वह समझ रहा था। इसलिए वह आज के क्षात्रधर्म की ग्लानिपूर्ण अवस्था पर शोक से भर उठा था। इतिहास ने कभी उसे उकेरा नही और उसने इतिहास को अपने योग्य समझा नही। इतिहास में स्थान पाने की मिथ्या अभिलाषा से वह आज पीठ फेर चुका था और चला गया अनंत की उस अनंत गहराई में जहां से वह संभवत: भारत के पुरातन वैभव को लौटाने गया था। हमें उसके इस प्रयाण के महाप्रयोजन में सहायक बनना चाहिए था।
आल्हा डूबा नही था, अपितु सागर की गहराई में उतरा था-मोती खोज ने, भारत का वैभव पूर्ण अतीत खोजने।
आल्हा सूर्य की भांति अस्त भी नही हुआ था अपितु अपने आत्मा के आलोक में और भी अधिक दिव्यता से आलोकित होने के लिए इस संदेश को देकर गया कि मैं पुन: लौटूंगा और जब लौटंूगा तो नया सवेरा लेकर आऊंगा।
15 अगस्त 1947 के सूर्य की पहली किरण के साथ आल्हा इस पावन भारत माता पर विचरण करने के लिए किरणों के दिव्यरथ पर आरूढ़ होकर आया था, उसने एक झटके में ही भारत के स्वर्णिम अतीत के पृष्ठों को खोलकर हमारे सामने रख दिया था, पर हमने ही उसे नही पहचाना। वह तो आज भी भारत के क्षितिज पर मुस्करा रहा है। सचमुच वह भारत का धु्रव तारा है, जिसे इसी रूप में स्थापित किया जाना चाहिए।
क्रमश: