राकेश कुमार आर्य
गोडसे और गांधीजी दोनों में एक ‘उभयनिष्ठ’ गुण ये था कि वे दोनों गौभक्त थे। गांधीजी की गौभक्ति को कांग्रेस ने मार दिया, और गांधीजी की यह सैद्घांतिक हत्या भी उनके परम शिष्य नेहरू के शासन काल में ही कर दी गयी। गांधीजी की कांग्रेस में सन 1921 से कई बार गोरक्षा को पार्टी की नीतियों में सम्मिलित किया गया जिसे नेहरू की कांग्रेस ने सत्ता संभालते ही समाप्त कर दिया।
सन 1925 में कांग्रेस का महाधिवेशन बेलगांव में हुआ। इसके गोरक्षा सम्मेलन का अध्यक्ष गांधीजी को बनाया गया था। तब गांधीजी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में जो कुछ कहा था, वह कांग्रेस के लिए एक ‘नसीहत और वसीयत’ सिद्घ होना चाहिए था, पर ऐसा हुआ नही। गांधी जी ने कहा था-‘जब तक (भारत में) गोवध होता है, तब तक मुझे ऐसा लगता है कि जैसे मेरा स्वयं का वध हो रहा है। हिंदू धर्म का बाहय रूप गोरक्षा ही है। गोरक्षा मुझे मनुष्य के सारे विकास क्रम में सबसे अलौकिक कारण मालूम होता है। मैं गोरक्षा को स्वराज्य प्राप्ति से भी अधिक महत्वपूर्ण मानता हूं। हिंदू धर्म तभी तक रहेगा जब तक हिंदू गोरक्षा करते रहेंगे।’
गांधीजी की यह बात ध्यान देने योग्य है कि वे गोरक्षा को ‘स्वराज्य’ से भी अधिक महत्वपूर्ण मानते थे। कारण स्पष्ट है कि वे गाय के धार्मिक ही नही अपितु वैज्ञानिक और आर्थिक महत्व को भी जानते थे। हमारे देश की परंपरा रही है कि जो प्राणी या कोई वस्तु हमारे लिए अत्यंत महत्व की हो और हम पर अपने उपकारों की वर्षा निरंतर कर रही हों, उसके प्रति अगाध श्रद्घा व्यक्त करना हम अपना धर्म मानते हैं, इसलिए गाय और गंगा हमारे लिए धर्म की आस्था से जुड़ गयी। पर यह ध्यान रखना चाहिए कि यह धर्म की आस्था का प्रश्न तब आता है जब हम उस प्राणी या वस्तु के वैज्ञानिक और आर्थिक महत्व को जांच, समझ और परख लेते हैं।
एक बार अकबर ने अपने दरबारियों से पूछा कि ये बताओ कि किस प्राणी का दूध हमारे लिए सबसे अधिक उपयुक्त है? सभी दरबारियों में से किसी ने भैंस का, किसी ने ऊंटनी का तो किसी ने बकरी का दूध मानव शरीर के लिए उत्तम एवं उपयुक्त बताया। अंत में बीरबल ने कहा कि हमारे लिए गाय का दूध उत्तम और उपयुक्त होता है। तब अकबर को गुस्सा आ गया और वह बोला कि ‘बीरबल! तुम गाय के दूध को दूध क्यों कहते हो? वह तो अमृत है, अमृत कहकर ही बोलो।’
बस, इसी बात को गांधीजी जानते थे कि मानव के बौद्घिक, आत्मिक और आध्यात्मिक विकास के लिए गाय का दूध अमृत है। इसलिए उनकी मान्यता थी कि देश की भावी पीढिय़ों के लिए देश में गोवंश की रक्षा करना शासन की नीति होनी चाहिए। महात्मा गांधी की मान्यता थी-”गौरक्षा हिंदू धर्म को दिया गया सबसे मूल्यवान उपहार है।’ मानो गोरक्षा का दायित्व प्रकृति ने केवल हिंदू समाज को ही दिया है, या कहिए कि इस दायित्व को केवल हिंदू समाज ने ही समझा है। करोड़ों वर्ष के मानवता के इतिहास को केवल भारत ने ही समझा है, शेष विश्व तो आज भी इस बात में उलझा हुआ है कि इस संसार की आयु कितनी है, या कितने वर्ष पूर्व इस का निर्माण हुआ होगा? और निर्माण भी हुआ तो क्यों हुआ? इस निर्माण में हम सबके एक दूसरे प्राणि समुदाय के प्रति दायित्व क्या हैं? भारत ने जीने के लिए इस सिद्घांत का आविष्कार किया कि सबके सब प्राणि एक दूसरे को कहीं न कहीं लाभान्वित करने के लिए उत्पन्न किये गये हैं, इसलिए सबका जीवन मूल्यवान है। अत: सबके जीवन की रक्षा होनी चाहिए। जबकि कुछ लोगों ने कहा कि प्रकृति में उत्पन्न सभी प्राणियों में जीने के लिए एक संघर्ष हो रहा है और इसलिए इस संघर्ष में जो जीतेगा वही जीएगा। गांधीजी की मान्यता थी कि प्रकृति में संघर्ष नही अपितु सहचर्यवाद है। इसलिए वह गोरक्षा को प्राणि रक्षा तक खींचकर ले जाते हुए कहते हैं कि गोरक्षा हिंदू समाज को दिया गया मूल्यवान उपहार है। अत: वे भारत में स्वतंत्रता के पश्चात गोरक्षा को शासन की नीति का आधार बनाकर पंचगव्य के सेवन को देश के युवावर्ग के स्वास्थ्य को बनाये रखने हेतु अनिवार्य बनाना चाहते थे।
गांधीजी को इस बात पर घोर आश्चर्य होता था कि गाय के मूल देश भारत में तो भैंस का दूध प्रयोग किया जाता है जबकि पश्चिमी देशों में भैंस को कोई जानता भी नही है। उनका कहना था-”यूरोप में तो भैंस के घी के बारे में कोई जानता ही नही, यूरोप में कोई भैंस का दूध या घी प्रयोग नही करता। विश्व में केवल भारत ही ऐसा देश है जहां भैंस का दूध एवं घी पसंद किया जाता है और लोग इसे खाते हैं। भैंस की वजह से ही भारत में गाय की बर्बादी हुई है। इसलिए मैं कहता हूं कि हमें गाय, गौसेवा, गौपालन एवं गौरक्षा पर ही जोर देना चाहिए, वरना गाय बचेगी नही। गौरक्षा करना हमारा धर्म ही नही पवित्र कत्र्तव्य भी है। भारतीय किसान गौरक्षा का भार इसलिए नही उठा पा रहा है, कि अधिकांश किसानों के पास जमीन नही है, या जमीन की कमी है। एक एकड़, दो एकड़, चार एकड़, इसलिए खेती को सौ परिवारों में बांटने के स्थान पर सौ परिवार मिलकर रहें। सामूहिक रूप से की गयी खेती से किसान गौपालन बहुत कुशलता पूर्वक कर सकेगा और उसकी आय भी बढ़ेगी।’
एक बार गांधीजी ने ‘नवजीवन’ समाचार पत्र में लिखा था-”बूढ़ा बैल, जितनी घास और चारा खाता है, उतने ही अधिक कीमत का गोबर और गौमूत्र देता है, अर्थात अपना कर्ज आप ही चुका देता है।”
अत: गांधीजी का सपना था कि भारत में गोहत्या पूर्णत: निषिद्घ होनी चाहिए। गांधीजी के इस सपने की हत्या नेहरू सरकार ने की, जब देश में कत्लखानों की अंधाधुंध स्थापना करानी आरंभ की और अनुपयोगी पशुओं के वध के नाम पर गोहत्या को प्रोत्साहित किया। शब्दों के जाल में देश की जनता को फंसाया गया और देश की आत्मा पर सीधा प्रहार करते हुए गोहत्या करानी आरंभ कर दी। देश की जनता कांग्रेस के ‘गाय बछड़े’ वाले चुनाव चिन्ह पर निशान लगा लगाकर कांग्रेस को चुनावों में जिताती रही और कांग्रेस पीछे से ‘गाय बछड़ों’ को कत्लखानों में कटवाती रही। इसे धार्मिक भावनाओं के साथ कांग्रेस द्वारा किया गया ‘क्रूर उपहास’ ही कहना चाहिए।
इसी प्रकार दसवीं पंचवर्षीय योजना आ गयी। तब इस पंचवर्षीय योजना की उपसमिति ने भारत सरकार से 1804 करोड़ रूपये का वार्षिक बजट नेशनल मीट बोर्ड के लिए मांगा। इस उपसमिति ने भैंसों के वध पर प्रतिबंध हटाने, बैलों, सांडों के वध पर प्रतिबंध हटाने की मांग करते हुए यह भी इच्छा व्यक्त की कि गोमांस निर्यात के लिए पशु वध के लिए आयु सीमा कोई न रखी जाए।
इससे पूर्व 15-16 वर्ष के गोवंश से नीचे के वंश को नही काटा जा सकता था। उपसमिति ने इस आयु सीमा को समाप्त करवा लिया और गोमांस निर्यात को बढ़ावा देने के नाम पर देश के कानून में ही संशोधन करा लिया। इसके अतिरिक्त इस उपसमिति ने गांव गांव और शहर में कत्लखाने स्थापित करने कीे जो योजना प्रस्तुत की, वह भी कम चौंकाने वाली नही थी। उपसमिति का कहना था कि दस महानगरों में बीस करोड़ की लागत वाले विशालकाय आधुनिक यांत्रिक कत्लखाने स्थापित किये जाएं।
पचास नगरों में पांच करोड़ की लागत वाले आधुनिक कत्लखाने खोले जाएं। 500 नगरों में पचास लाख की लागत वाले तथा सौ गांवों में पांच लाख रूपये की लागत वाले तथा सौ गांवों में 5 लाख रूपये की लागत वाले
सहारनपुर में एक गोभक्त राशिद अली रहते थे, जो पशु क्रूरता निवारण समिति के उपाध्यक्ष थे और कुरान की उन शिक्षाओं में विश्वास करते थे जो गायों और अन्य प्राणियों के प्रति व्यक्ति को सहिष्णु बनाना सिखाती है। इसलिए बड़ी तन्मयता से पशु हिंसा और गोहत्या निषेध के लिए कार्य कर रहे थे, परंतु एक दिन चार लोगों ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया।
यदि कांग्रेस गांधीजी की गोभक्ति पर सच्चे हृदय से चिंतन करती तो राशिद अली जैसे इंसानों का कत्ल भी न होता। परंतु यहां हैवानों के लिए इंसानों का बलिदान करने की मूर्खतापूर्ण सोच का विकास हुआ है। जिसके कारण गौमाता की निरंतर हानि होती जा रही है-गांधी जी के शब्दों में कहें तो ये गौमाता की नही बल्कि देश की हानि हो रही है, मानवता की हानि हो रही है, हिंदुत्व की हानि हो रही है।