अशोक “प्रवृद्ध”
झारखण्ड सहित देश के अधिकांश राज्यों में ग्रामीण व लघु उद्योगों के माध्यम से आजीविका संवर्द्धन के अनेकानेक विकल्प होने के बावजूद सरकारी अथवा गैरसरकारी स्तर पर उचित दिशा- निर्देश के साथ प्रशिक्षण केन्द्रों और तकनीकी ज्ञान के अभाव में ग्रामीण व लघु उद्योगों को देश- विदेश में न तो अलग पहचान ही बन पा रही है, और न ही युवा वर्ग को इन कार्यों से समुचित रोजगार ही मिल पा रही है। फलतः देश में बेरोजगारों की संख्या दिनानुदिन बढती ही जा रही है। यद्यपि झारखण्ड सहित सम्पूर्ण देश में निबंधित बेरोजगारों की संख्या घटती-बढ़ती रहती है, परन्तु एक आंकड़े के अनुसार अकेले झारखण्ड में ही अभी 10. 39 लाख निबंधित बेरोजगार हैं ,जिनमें से एक लाख आईटी आई उत्तीर्ण और करीब इतना ही डिप्लोमा होल्डर हैं। हालांकि तकनीकी बेरोजगारों से विलग गैर तकनीकी अथवा सामान्य शिक्षा प्राप्त बेरोजगारों की संख्या ही अधिक है। ये वैसे निबंधित बेराजगार हैं, जिन्होंने रोजगार की आस में राज्य के कुल 44 नियोजनालयों में अपना निबंधन कराया हुआ है, जिसका जिक्र श्रम विभाग की आंकड़ों में है। इसमें कौशल विकास मिशन के तहत प्रशिक्षित युवा शामिल नहीं हैं, जिन्होंने विभिन्न ट्रेड में प्रशिक्षण प्राप्त किया हुआ है। कौशल विकास के कर्त्ता- धर्त्ताओं ने युवाओं को प्रशिक्षित करने में लगे प्रशिक्षण सेवा प्रदात्ता- ट्रेनिंग सर्विस प्रोवाइडर्स (टीएसपी) को स्पष्ट निर्देश दिया है कि वह उनके यहां प्रशिक्षित युवाओं से संबंधित जानकारी हुनर पोर्टल पर अपलोड करें। इससे स्पष्ट है कि कौशल विकास प्रशिक्षण के तहत प्रशिक्षित तथा अभी बेरोजगार हुए युवाओं के आंकड़े नियोजनालय के आंकड़े में शामिल नहीं हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू एन डी पी) द्वारा प्रकाशित नवीनतम मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार झारखण्ड में बेरोज़गारी दर 2004-2005 में 2.7 प्रतिशत से बढ़कर 2017-2018 में 8.2 प्रतिशत थी। कमोबेश यही स्थिति देश के अन्य सभी प्रदेशों की है। विशेषज्ञों का भी मानना है कि उच्च बेरोज़गारी दर के पीछे सरकारी व निजी क्षेत्रों में रोज़गार के पर्याप्त अवसर पैदा करने में राज्य की अक्षमता है। अन्य कई एजेंसियों के ताजा सर्वेक्षण में भी इस बात का दावा किया गया है कि देश में बेरोजगारी का ग्राफ बढ़ा है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संघटन और एशियाई विकास बैंक की संयुक्त रिपोर्ट के अनुसार देश में कोरोना महामारी के कारण 41 लाख युवाओं को नौकरी से हाथ धोना पड़ा है।
उल्लेखनीय है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार ऐसे विषय हैं जिनसे केंद्र और राज्य की सरकारें मुंह नहीं मोड़ सकतीं। शिक्षित युवाओं को रोजगार उपलब्ध कराना सरकारों की प्राथमिकता होनी चाहिए। लेकिन आंकड़े बताते हैं कि इन तीनों मोर्चों पर भारत का सरकारी तंत्र विफल साबित हुआ है। इससे यह स्पष्ट है कि सरकार की नीतियों में कहीं-न-कहीं कोई व्यावहारिक कठिनाई अवश्य है। इसलिए सरकार को इसके निराकरण हेतु एक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाकर समस्या को और अधिक बढऩे नहीं देना चाहिए। बेरोजगार युवाओं की तेजी से बढ़ती संख्या देश के लिए खतरे की घंटी है। अत: सरकारी स्तर पर बेरोजगार युवाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए भरसक प्रयास करने की जरूरत है, और रोजगार के अन्य क्षेत्रों के विकल्प को तलाश कर उन्हें संरक्षित, सुरक्षित और पुष्पित- पल्लवित किये जाने की आवश्यकता है। देश के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस समस्या का समाधान देश के ग्रामीण व लघु उद्योगों में भी ढूंढा जा सकता है। झारखण्ड, बिहार सहित कई राज्य सरकारें बड़े उद्योग एवं रोजगारों को राज्य में लाने में विफल रही है। जिसके कारण ग्रामीण समुदाय अपने स्तर पर लद्यु उद्योगों के माध्यम से अपनी आजीविका संवर्धन करने में संलग्न होने लगी है। इस ओर सरकार व निजी कंपनियों को कार्य करने की आवश्यकता है। जिससे ग्राम स्तर पर रोज़गार के साथ -साथ जंगली व पहाड़ी उत्पादों को वैश्विक स्तर पर पहचान भी मिल सके। वैसे राज्यों में महिला व किसान स्वयं सहायता समूह और सहकारिता संगठनों का गठन किया गया है। जिसमें वर्तमान में लाखों लाभार्थी लाभान्वित हो रहे हैं। झारखण्ड, बिहार सहित देश के प्रायः सभी राज्यों में जड़ी- बूटी, मसाले, दलहनों व अन्य उत्पादों का निर्माण व बाज़ारीकरण किया जा रहा है। ऐसे समूहों से जुडी महिलाओं ने बताया गया कि उन्हें खुशी होती है कि जिन लाभार्थियों की पूर्व में आजीविका नगण्य थी, वह समूह में जुड़ने के पश्चात हजारों रूपये की आय कर रही हैं। इसे व्यापक रूप दिलाने के लिए सरकार द्वारा आर्थिक सहयोग किया जाना चाहिए, जिससे प्रशिक्षण केन्द्र के निर्माण के साथ विभिन्न नवीन तकनीकी टूल किट देकर कार्य को उन्नत किया जा सके। इससे एक ओर जहां ग्रामीण उत्पादों को शहरों में पहचान मिल सकेगी, वहीं दूसरी ओर न केवल लोगों को रोज़गार मिलेगा बल्कि पलायन की समस्या का भी हल निकाला जा सकेगा। उल्लेखनीय है कि देश भर में ऐसे स्थानीय उत्पाद हैं जो लद्यु उद्योग का रूप धारण कर ग्रामीणों की आजीविका संवर्धन में मुख्य भूमिका निभा सकते हैं। जंगली जड़ी- बूटी, स्थानीय मसाले, फलों से निर्मित जूस, औषधि पौध, अन्य स्थानीय उत्पादों, परंपरागत कौशल में बुनकर, लुहारगिरी, बांस के सामान निर्माण इत्यादि पर विशेष जोर देते हुए सरकार व निजी कंपनियों द्वारा इनको आर्थिक सहयोग किये जाने से लोगों की इस उम्मीद को परवान चढ़ पाने की पूरी आशा है। यदि इन उत्पादों को एक निश्चित दिशा मिल जाये तो इन उत्पादों को विश्व स्तर पर पहचान के साथ राज्य सरकारों पर पड़ने वाले रोजगार विफलता के भार में भी कमी आयेगी। ग्रामीण महिलाओं को लद्यु उद्योगों से जोड़कर महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा मिल सकेगा।
देश के प्रायः सभी राज्यों में ऐसे कारीगर, काश्तकार भी हैं, जो अपने कार्यो में निपुण तो हैं, लेकिन उनके कौशल को वह उचित स्थान नहीं मिल पा रहा है। जैसे- झारखण्ड के गुमला, सिमडेगा, लोहरदगा, लातेहार, रांची आदि जिले के विभिन्न भागों में रहने वाले तुरी, ओड़ आदि कई जातियां बांस के उत्पादों के निर्माण में माहिर हैं। गुमला के बिशुनपुर, घाघरा प्रखण्डों की पहाड़ी, पाट क्षेत्रों में निवास करने बिरहोर, नगेसिया, असुर आदि जनजातियाँ मौसमी जंगली लताओं से रस्सी व जुताई, पटवन के कार्य आने वाली कई सामग्रियों के निर्माण में सिद्धहस्त हैं। कई असुर गाँवों में आज भी परम्परागत ढंग से लोहे गलाने और उसे विविध उत्पाद निर्माण के कार्य होते देखे जा सकते हैं। ऐसे गाँव और इन कार्यों में निपुण कारीगर जातियां सभी राज्यों में हैं। ऐसे गाँवों को चिह्नित कर उन में स्वयं सहायता समूहों का गठन किये जाने की आवश्यकता है, जिसमें कारीगर काश्तकारों को जोड़कर आय सृजन के साथ- साथ निर्मित उत्पादों के बाज़ारीकरण व्यवस्था पर भी ज़ोर दिया जा सकेगा। देश भर के बढई, कुर्मकार आदि जातियां भी काफी हद तक समाज की मुख्य धारा से कोसों दूर हैं, अपनी आजीविका के लिए मेहनत मजूदरी पर निर्भर हैं। बढई समाज के पुरूष वर्ग को लकड़ी की नक्काशी में महारत भी हासिल है, लेकिन उनके कार्य को समुचित सम्मान नहीं पा रहा है। कुर्मकार समाज का भी यही हाल है। कई दशकों से ये अपने परम्परागत इन कार्य को अपने शौकिया तौर पर कर रहे हैं, लेकिन उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं है कि उनका यह कार्य उन्हें समाज में एक अलग पहचान दिला सकने में सक्षम है। लेकिन इस संबंध में ऐसे समुदाय को जागरूक कर इसे लद्यु उद्योग का रूप दे पाना भी एक चुनौती से पूर्ण कार्य है। इस पर भी इनसे जुड़े समुदाय के लोगों को जागरूक कर सरकार को आर्थिक सहायता प्रदान करने की आवश्यकता है। अन्यथा सीमित रह चुके परिवारों के साथ इन कलाओं का भी अंत निश्चित है।
बहरहाल यह सत्य है कि देश में लद्यु उद्योग द्वारा आजीविका संवर्धन के कई विकल्प हैं, जिन पर सरकारी और गैरसरकारी स्तर के द्वारा उचित दिशा निर्देश के साथ प्रशिक्षण केन्द्रों और तकनीकी ज्ञान दिये जाने की आवश्यकता है। इससे न केवल देश के ग्रामीण स्थानीय लघु उद्योगों को देश- विदेश में अलग पहचान मिलेगी बल्कि बेरोजगारी की मार झेल रहे युवा वर्ग को रोज़गार तथा आत्मसम्मान की प्राप्ति भी होगी। वास्तव में लघु उद्योग देश के देहात, ग्रामीण व जंगली ग्रामों के स्वरूप को बदल पाने में सक्षम है। ज़रूरत है केवल उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान करने के साथ साथ उचित मंच प्रदान करने की।
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