देश में 70 अरबपतियों के होने से भारत धनकुबेरों की संख्या के दृष्टिकोण से दुनिया का पांचवां देश बन गया है। समाचार पत्रों में छपी खबरों के अनुसार जर्मनी, स्विटजरलैंड, फ्रांस और जापान जैसे विकसित देशों को भी पीछे छोड़कर भारत आगे आ गया है। बताया जा रहा है कि 2013 में 53 भारतीय अरबपतियों के मुकाबले में संख्या सत्रह अधिक है।
अब यदि भारत के संविधान निर्माताओं के दृष्टिकोण और सोच पर चिंतन किया जाए तो स्पष्ट होता है कि पूंजी को चंद हाथों में सौंपने और उस पर खुशी मनाने या समाचार प्रकाशित करने का उन लोगों का तो कोई सपना नही था। इसीलिए पूंजीवादी-अर्थव्यवस्था को धत्ता बताकर देश ने मिश्रित-अर्थव्यवस्था का सहारा लिया। तब भी हमारे राष्ट्रनिर्माताओं ने सपना लिया कि पूंजी को श्रम पर शासन करने के उसके हथियाए गये अधिकार से वंचित कर पूंजी पर श्रम का शासन स्थापित करने के लिए पूंजी पर सबका समान अधिकार घोषित किया जाए। फलस्वरूप अर्थ ये निकलना चाहिए था कि पूंजी आलीशान महलों की चकाचौंध से निकलकर गरीब की झोंपड़ी में उजाला करने के लिए उधर की ओर चलनी चाहिए और हम तब अखबारों में हर वर्ष ये समाचार प्रकाशित कराते कि इतने लोगों को विकास की अंतिम पंक्ति में से उठाकर आगे लाकर महलों की अवांछित और अतार्किक चकाचौंध को कम कर मासूम गरीबों की झोंपड़ी के प्रति उदारता का प्रदर्शन किया। यह कार्य वैसे ही होता जैसे संत विनोबा भावे ने देश में ‘भूदान यज्ञ’ चलाकर किया था। परंतु हमने देखा कि संत विनोबा भावे की ये परंपरा आगे नही बढ़ी और यहां सबके लिए अपना ‘कुछ छोडऩे’ की जो यज्ञीय परंपरा चली थी, वह उन के जाते ही बंद हो गयी। अब चला फैशन जोडऩे का।
छोडऩे की बात छूट गयी। बस, इसी सोच का परिणाम है ये अरबपतियों के नामों की प्रतिवर्ष जारी होती सूचियां। इस प्रकार की सूचियों ने लोगों को धन के प्रति आकर्षित किया है। क्योंकि धन कमा लेने पर कोई ये नही पूछता कि ये धन आया कहां से है, और कैसे आया है? बस, सूची में नाम आ गया और समझो कि मैदान फतह हो गया। जबकि सच ये है कि ‘अरबपति’ बनने के लिए बहुत से मासूम ‘झोंपड़ी पतियों’ को उजाडऩा पड़ता है। अब एक अरबपति के पीछे कितने झोंपड़ीपतियों के आशियाने उजड़ गये? ये बात भी देखने की है। है देश में कोई ऐसा सर्वेक्षक अर्थशास्त्री जो संविधान की मूलभावना के विपरीत होते जा रहे इन खेलों के पीछे की ‘मर्डर मिस्ट्रीज’ से पर्दा उठा सके?
जब तक देश में अरबपतियों के बनने के समाचार सुर्खियां पाते रहेंगे तब तक विकास की अंतिम पंक्ति में खड़े गरीब की ओर देखने की फुर्सत किसी को नही हो सकती। फलस्वरूप ‘मर्डर मिस्ट्रीज’ का राज और गहरा हो जाएगा, और कोई भी व्यक्ति ‘मर्डर मिस्ट्रीज’ से पर्दा नही उठा पाएगा। वास्तव में यह व्यक्तिवादी सोच है, जो निरे भौतिकवाद पर टिकी होती है। इस विचारधारा के अनुसार विकास में जो पिछड़ गया वह पिछड़ा हुआ मान लिया जाता है, और उसी की लाश पर खड़े होकर महलों की अटारियां चूमी जाती हैं।
सचमुच इस सोच का अथवा विचारधारा का हमारे संविधान से या हमारी व्यवस्था से दूर-दूर का भी संबंध नही है। फिर भी पता नही क्यों ऐसे अवांछित समाचार हमारे अखबारों में छप जाते हैं?
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