उत्तर प्रदेश में चुनावी समर- हत्या, दंगों और विकास के मुद्दों का असर
अरविन्द विद्रोही
लोकसभा चुनाव का जंग लडऩे व जीतने के लिए राजनेताओं-राजनैतिक दलों ने चुनावी रण में अपने-अपने योद्धाओं को उतारना शुरू कर दिया है। 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर-प्रदेश में प्रत्येक दल अपनी पकड़ बनाने के लिए बैचैन है। उत्तर-प्रदेश में रैलियों में उमड़ रहे जन रेला ने राजनेताओं और चुनावी पंडितों को अज़ब झमेले में डाल दिया है। रैली चाहे मोदी की हो या मुलायम की या फिर माया व राहुल की उमड़ रहा जनसैलाब रैलीस्थल को छोटा कर देता दिखा है । पूरब में राजभर-अंसारी बंधुओं की जोड़ी, इलाहाबाद की अनुप्रिया पटेल, बाराबंकी के बेनी प्रसाद वर्मा -केंद्रीय इस्पात मंत्री ,भारत सरकार अपना-अपना जलवा लगातार दिखला रहे हैं। आआपा के भी कई प्रत्याशी उत्तर-प्रदेश में चुनावी ताल ठोंकते दिख रहे हैं । दिल्ली विधानसभा चुनावों में चुनावी रण से खुद पे विश्वास ना होने के कारण भागने वाले कुमार विश्वास उत्तर-प्रदेश में राहुल गांधी के खिलाफ अमेठी में लडऩे को बेताब-बेकरार हैं। मुजफ्फरनगर दंगों से उपजे राजनैतिक-सामाजिक हालात के कारण पश्चिम उत्तर-प्रदेश में खासा दखल रखने वाले चौधरी अजित सिंह को इस बार लोकसभा चुनाव में अपनी प्रतिष्ठा बचाये रखने की चुनौती का सामना करना पड़ेगा। जाटलैंड में पकड़ बनाये रखने के लिए जयंत चौधरी -सांसद द्वारा किये जा रहे व्यापक जनसम्पर्क अभियान का मतदाताओं पर पडऩे वाला असर भविष्य के गर्भ में छुपा है। विभिन्न दलों से गठबंधन करने की भाजपा की रणनीति और पश्चिम उत्तर-प्रदेश में भाजपा का बढ़ा प्रभाव भांपते हुये किसी भी वक़्त राजनीति के अद्भुत खिलाड़ी के रूप में पाला बदलने में माहिर चौधरी अजित सिंह भाजपा में या उसके गठबंधन में पुन: शामिल हो सकते हैं। अतीत के पन्नों में दर्ज चौधरी अजित सिंह का राजनैतिक आचरण इसका पुख्ता-प्रत्यक्ष प्रमाण है । पीस पार्टी के डॉ. अय्यूब अंसारी उत्तर-प्रदेश विधान सभा चुनाव में सिर्फ 4 सीट को जीतने और फिर विधायकों के टूटकर बिखरने के पश्चात् अपने संगठन को धार देने की कोशिशों के बावजूद कोई कारगर माहौल नहीं बना पायें हैं।
और तो और जिन अमर सिंह की तूती सपा संगठन व मुलायम सरकार में बोलती थी, सपा से अलग होने के पश्चात् अपने दल लोकमंच से उत्तर-प्रदेश विधानसभा 2012 का चुनाव तमाम सीटों पर लड़वाने और बुरी तरह शिकस्त खाने के बाद ईद का चाँद हो चुके अमर सिंह अब सिर्फ बयान जारी कर सकते हैं । सपा में छत्रिय नेता के रूप में माने जाने वाले अमर सिंह के साथ उनके अति प्रिय छत्रिय नेता भी नहीं खड़े हुये थे। यही हाल पूर्व में सपा से अमर-जयाप्रदा के कारण अलग हुये आज़म खान का था। जब आज़म खान सपा से अलग हुये थे तो कितने मुस्लिम नेता उनके साथ सपा से गये थे यह शोध का विषय हो सकता है । उत्तर-प्रदेश की राजनीति में सपा से अलग होने के बाद भी एक सशक्त हस्ताक्षर के तौर पर अपना वज़ूद एवं हनक बरकऱार रखने वाला सिर्फ एक नेता है और वह है – बेनी प्रसाद वर्मा। बसपा-भाजपा से बाहर गये तमाम दिग्गज नेता भी अपने-अपने दल से बाहर जाकर कोई राजनैतिक प्रभाव नहीं बना सके। बसपा में आर के चौधरी और भाजपा में कल्याण सिंह की पुनर्वापसी से दोनों नेताओं और दोनों दलों को फायदा होता दिख रहा है।
विशाल भूभाग वाले उत्तर-प्रदेश की राजनीति विषमताओं और दुरुहताओं से भरी हैं। जातीय -धार्मिक जकडऩ में जकड़ी उत्तर-प्रदेश की राजनीति में विकास के मुद्दे बहुत प्रभावी व कारगर नहीं होते रहे हैं परन्तु इस लोकसभा चुनाव में जातीय-धार्मिक उन्माद-उत्तेजना के बीच विकास का मुद्दा अपना हस्तक्षेप स्थापित कर चुका है। राजनेताओं की विकास परक सोच, उनके द्वारा अभी तक कराये गये विकास कार्य, छवि की चर्चा मीडिया-मतदाता दोनों ही कर रहे हैं। भाजपा-कांग्रेस-सपा में तो छवि चमकाने-निखारने की तगड़ी प्रतिस्पर्धा चल रही है। मीडिया का भरपूर इस्तेमाल अपनी-अपनी छमता के अनुसार सभी कर रहे हैं और छवि बनाओं अभियान में पिछडऩे पर मीडिया को कोस भी रहे हैं। बसपा प्रमुख मायावती प्रचार युद्ध में छवि गढऩे-निखारने के चक्कर से दूर जातीय समीकरणों को दुरुस्त करके बूथवार कमेटी के बलबूते संसद मार्ग की तरफ बसपा के हाथी को पहुंचाने का इरादा रखती हैं।
उत्तर-प्रदेश के लोकसभा चुनावी समर में सेनानी बनने के लिए इस मर्तबा तमाम नौकरशाह भी बेकरार है। सेवा निवृत्ति के पश्चात् तो कई स्वैछिक सेवानिवृत्ति लेकर तथा कुछ अपनी पत्नी-पुत्री-पुत्र को लोकसभा पहुंचाने की जुगत में लगे हैं। लोकतान्त्रिक व्यवस्था के तहत कोई भी नागरिक चुनाव लड़ सकता है – यह ताकत भी और दुर्भाग्य भी। वातानुकूलित कमरों में ऐशों-आराम का जीवन गुजरने वाले ये नौकरशाह व उनके परिजन किस ध्येय से राजनीति में उतरते हैं सभी जानते हैं। राजनीति सिर्फ पद-सत्ता प्राप्ति का मार्ग ना होकर समाज के प्रति दायित्वों के निर्वाहन और वंचितों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने का पथ भी होता है। अपराधियों के पश्चात् अब नौकरशाहों ने भी अपनी काली कमाई के बूते राजनैतिक कार्यकर्ताओं के हक़ पर डाका डालना शुरू कर दिया है। राजनैतिक शुचिता-ईमानदारी का ढिंढोरा पीटने वाले तमाम दल बेशर्मी पूर्वक यह राजनैतिक कदाचरण-बेईमानी करते चले जा रहे हैं।
बिगड़ी कानून व्यवस्था व अनवरत हुये दंगों के अभिशाप के साथ-साथ सैफई महोत्सव में चले रास रंग के व्यापक विरोध -आलोचना से निपटने के लिये सपा प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव -मुख्यमंत्री उत्तर-प्रदेश ने जंतर-मंतर से लखनऊ तक की युवाओं की साइकिल यात्रा 23 फरवरी को रवाना किया। इसी दिन व्यापारियों की यात्रा लखनऊ से सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने रवाना की और इसी दिन राजधानी से सटे बाराबंकी जनपद में भी समाजवादियों ने हक़-न्याय के लिए संघर्ष यात्रा शुरू कर दी है।
एक चिंगारी किस कदर भारी तबाही का सबब बन जाती है असंख्य उदहारण मौजूद हैं। अनवरत दंगों से उपजे रोष से हल्का हलकान सपा नेतृत्व मुस्लिमों के विरोध को झेल रहा है, सपा सरकार द्वारा मुस्लिम हित की तमाम योजनाओं-घोषणाओं के बावज़ूद मुस्लिम वर्ग की नाराजगी जगजाहिर है। बाराबंकी में 15 जनवरी को दिनदहाड़े हुई सपा युवा नेता अरविन्द यादव – जिला महासचिव यूथ ब्रिगेड की निर्मम हत्या और तत्पश्चात बाराबंकी कारागार में निरुद्ध कुख्यात माफिया द्वारा स्व अरविन्द यादव के परिजनों को धमकी दिए जाने से ग्रामीणों खासकर यदुवंशियों- युवाओं में जबर्दस्त आक्रोश है। 1 मार्च को छाया चौराहा बाराबंकी स्थित कमला नेहरू पार्क में श्रद्धांजलि-संकल्प सभा का आयोजन भी किया जाना सुनिश्चित है।
मुजफ्फरनगर दंगा, टांडा-कुण्डा में हुए हत्याकांड हो या फिर बाराबंकी के सपा युवा नेता अरविन्द यादव की हत्या सभी मुद्दे सत्तारूढ़ सपा सरकार के लिए परेशानी का सबब ही हैं। बाराबंकी के ही बेनी प्रसाद वर्मा -केंद्रीय इस्पात मंत्री पहले से ही सपा की अखिलेश यादव सरकार को दंगाइयों की सरकार घोषित कर चुके हैं।
बाराबंकी के ही राममनोरथ वर्मा की हत्याकांड के विरोध में बड़े विरोध प्रदर्शन के बाद अब अरविन्द यादव की याद में आयोजित कार्यक्रम में भारी भीड़ जुटने की बात सपा यूथ ब्रिगेड जिला अध्यक्ष प्रीतम सिंह वर्मा और सपा जिला सचिव ज्ञान सिंह यादव द्वारा कही जा रही है। सपा सरकार चौतरफा घिरी हुई है।
उत्तर-प्रदेश में मचे चुनावी घमासान में सपा के प्रति तेजी से फैली हवा अब सपा विरोधी लहर में तब्दील हो रही है।
भाजपा नेता नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व के प्रभाव के चलते उत्तर प्रदेश में भाजपा की बढ़त निश्चित मानी जा रही है। अधिकतर अल्पसंख्यक मतदाताओं का रुझान फि़लहाल सपा से खिसककर कांग्रेस-बसपा आदि की तरफ जाता प्रतीत हो रहा है। यह निश्चित माना जा रहा है कि इस लोकसभा चुनाव में अल्पसंख्यक समुदाय भाजपा के प्रत्याशियों को हराने वाले प्रत्याशियों को मत देगा, दल गौण रहेंगे।